वे इटे थापते है
बाल-बच्चो सहित
वर्षा ने कहर बरपाया
पानी ...
सर्वत्र पानी
वे वेरोजगार है आज से ॥
इधर सरकार का बेरोजगारी
दूर करने की योजना
मनरेगा भी बंद हो गया
२८ जून के बाद
हर साल की तरह ॥
मगर उनके बच्चो का
सुनहला दिन लौट आया है
केकड़ा पकड़ना
और ....दिन भर
खेतों में /तालाबों में
मछली मारना ॥
शाम को
माँ को मछली देना
और रात के खाने में
मछली -चावल का इंतज़ार॥
उन…
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Added by baban pandey on July 7, 2010 at 8:02pm —
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गुज़रा था रात सूरज, गलियों से मेरी होकर.
कितना कुरूप था वो, दिन का लिबास खोकर
किसने बदल दिया है, इस शहर का ही नक्शा.
जहां हुस्न सहमता है, मोहब्बत का नाम सुनकर.
जाबांज वो नहीं था, बुजदिल नहीं था मैं भी.
बैठा था मेरा कातिल, घूँघट की ओट लेकर.
हो जाए बात कुछ भी, नाराज़ हम ना होते.
सिखा है जब से हमने, जीना सहम-सहम कर.
कायर के हाथ खंज़र, जब से लगा है पुरी.
दैरो-हरम में अल्लाह, बैठा हुआ है छिपकर.
गीतकार- सतीश मापतपुरी
Added by satish mapatpuri on July 7, 2010 at 4:42pm —
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योगिराज देवरहा बाबा :- देवरिया सुप्रसिद्ध संत ब्रह्मर्षि योगिराज देवरहा बाबा की कर्मस्थली रह चुकी है । देवरिया क्षेत्र की जनता हार्दिक रूप से शुक्रगुजार है उस परम मनीषी, योगी की जो देवरिया क्षेत्र को अपना निवास बनाया, इस क्षेत्र की मिट्टी को अपने पावन चरणों से पवित्र किया और अपने ज्ञान एवं योग की वर्षा से श्रद्धालु जनमानस को सराबोर किया । इस योगी की कृपा से देवरिया जनपद विश्वपटल पर छा गया । देवरहा बाबा ब्रह्म में विलीन हो गए लेकिन उनके ईश्वरी गुणों की…
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Added by Prabhakar Pandey on July 7, 2010 at 3:37pm —
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हाँ! मैं हूँ परमेश्वर.
मैं बन बैठा भगवान,
मंदिर में,सबके दिल में.
गाँव-गाँव व शहर-शहर,
मैं घूमता रहा पहर-पहर,
चंदे के लिए,मंदिर के वास्ते,
मिल गए मुझे भाग्य के रास्ते.
सुबह निकलता बिना नहाए-खाए,
लंबा चंदन टीका करता,
कंधे में झोला लटकाता,
लगता पंडित भोला-भाला.
मंदिर के नाम की रसीद
हाथ में रहती,कटती रहती,
मैं घूमता रहता,काटता रहता,
अपने अभाग्य को,रसीद के साथ.
लोग चंदे के साथ भोजन भी कराते,
रात को हम वहीं भरते…
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Added by Prabhakar Pandey on July 7, 2010 at 10:52am —
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लेकर उजियारे मेरे, अंधेरी शाम दे गया कोई
आँसू भरी रहे आँखे ऐसे इंतज़ाम दे गया कोई
इस ज़माने मे रहता था नशा उसके प्यार का
आज इस मासूम के हाथ मे जाम दे गया कोई
ना अब जाता हूँ मंदिर ना नमाज़ पढ़ता हू मैं
जपू माला उसके नाम की,ये काम दे गया कोई
नहीं हुई आवाज़ पर दिल टूटकर मेरा चूर हुआ
जातेजाते मुझपे बेवफ़ाई का इल्ज़ाम दे गया कोई
कल तक तो बुलाते थे तुझे पल्लव कह की ही सब यहाँ
छीनकर मेरी पहचान दीवाना मुझे नाम दे गया कोई
Added by Pallav Pancholi on July 7, 2010 at 12:01am —
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सम्वेदनाओं के शून्य को ,जगाना चाहता हूँ !
विचारो के उत्तेज से ,हलचल मचाना चाहता हूँ !
मर्म को पहचान, चोट करारी होनी चाहिए ,
बंद आँखों को नींद से ,जगाना चाहता हूँ !
…!!
खून की गर्म धारा ,बह रही ही जिस्म में ,
देश-भक्ति का इसमें ,उबाल लाना चाहता हूँ !
जज्बों में ना कमी हो तो ,समन्दर भी छोटा है ,
,आसमां में अपना तिरंगा फहराना चाहता हूँ !
कमी नही इस देश में, बौद्धिक शारीरिक बल की ,
‘कमलेश’ इसे विश्व शीर्ष पर पहुंचाना चाहता हूँ… Continue
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 11:03pm —
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अनजाने में छू गया था हाथ तेरा ,
पल को लगा मिल गया , तेरा ।
दिल ही तो है इसका क्या करें ,
न मिलो तो होता होगा, क्या हाल मेरा ।
ये ख्याल मुझे जीने नही देता ,
मिली तो क्या होगा सवाल तेरा ?
कटने को कट तो कट रही है जिन्दगी ,
क्यूँ की मेरे पास है जो रुमाल तेरा ।
ऐसे बेदर्द तो नही हो” कमलेश” ,
की जेहन में न आए ख्याल मेरा ॥
Posted in अहसास | Tags: पल,
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:54pm —
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कौन होना चाहता है
यहाँ बे-आबरू ।
ये वक्त ही है ,
बे-शर्म बना देता है
हसरत मुझे भी थी,
आसमान छूने की ,
वक्त ,कोशिशों की सीढ़ी को ,
बे-वक्त गिरा देता है ।
संभल -संभल कर बढ़ रहे थे ,
जानिबे – मंजिल ,
जो कभी खत्म न हो राह ,
वक्त,पकडा वो सिरा देता है ।
टूटते हौंसलों को ,
कैसे सम्भाले ”कमलेश” ,
बसे बसाये घरौंदों पर ,
वक्त बिजली गिरा देता है…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:50pm —
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मेरा तन- मन उचाट क्यूँ है? इस पूरे जहान से ,
चिड़ियों ने भी समेट लिये , घोंसले मेरे मकान से ।!
इंसानों में खुदगर्जी हो गयी ,इस कदर हावी ,
जड़ भी कहने लगे ,हम अच्छे है इस इन्सान से ।!
फिजां की इन सरसराती हवावों में है ,बू साजिश की
, इनकी दोस्ती से है कहीं अच्छी ,दुश्मनी तूफ़ान की ।!
कितना भी अफ़सोस कर लो, इस जमाने नीयत पर ,
कितने बेगुनाहों को गुजारा है ,इसने अपने इम्तिहान से ।!
‘कमलेश ‘अब भी बहुत कुछ है…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:14pm —
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मेरी जिन्दगी में इतने झमेले ना होते
गर तुम मेरे जज्बातों से खेले ना होते ,
बहुत पर खुशनुमा थी मेरी यह जिन्दगी
गर दिखाए हसीं- ख्वाबों के मेले न होते ,
रफ्ता-रफ्ता चल रहा था कारवां जिन्दगी का
दुनिया की इस महफिल में हम अकेले न होते ,
''कमलेश'' ना लुटता दिले- सकूं मेरा कभी
गर मेरी नजरों के सामने ,तेरे हाथ पीले ना होते ,
हमेशा ही कहर बरपा है इश्क पर जमाने का
राहें फूलों की होती कांटे भी न नुकीले होते
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 9:41pm —
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कितना दिल लगाने से पहले, इत्मिनान किया मैंने ,
सच्ची है मुहब्बत 'का' फिर भी इम्तहान दिया मैंने ॥
कहने को तो मुहब्बत करना, गुनाह है इस जहाँ में ,
फिर भी करके मुहब्बत ,किया सबको हैरान मैंने ॥
हमारे इश्क की चर्चा है, शहर के ह़र मोड़ पर ,
इस तरह सारे शहर को, किया परेशान मैंने ॥
न छूटे दिल की लगी ,तेरी दिल-लगी में कहीं ,
कितना तेरे लिये दिल ,लगाना किया आशां मैंने ॥
तुझसे माँगा न कभी, तेरी चाहत के सिवा ,
तेरी चाहत की राहों में , सब…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 9:40pm —
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प्रभु ! तू बता अपनी
सच्चाई,
क्योंकि,तू अब नहीं बचेगा,
देख,मनुष्य ने ली है
अंगड़ाई.
क्या तू है ?
तेरा अस्तित्व है ?
देख,
विज्ञान आ गया है,
तेरा अस्तित्व,
हटा गया है.
तू खुद सोच,
मनुष्य लगाता है,
तेरे कार्यों में अड़चन,
वह तेरा करता है खंडन.
वह खुद ही लगा है,
बनाने,बिगाड़ने
सपनों को,अपनों को.
वह खुद ही बन बैठा है
भगवान ?
अगर तू है तो रुका क्यों है,
भाग जा,
जा ग्रहों पर छिप…
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Added by Prabhakar Pandey on July 5, 2010 at 6:00pm —
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प्रस्तुत पदों के रचयिताओं का नाम मुझे पता नहीं है. ये पद मेरे दादाजी सुनाया करते हैं.
1.
इस पद में यह बताया गया है कि किस माह में क्या खाना अच्छा होता है-
कातिक मूली , अगहन तेल,
पूष में करे दूध से मेल,
माघ मास घी खिचड़ खा,
फागुन उठ के प्रात नहा,
चइत (चैत्र) माह में नीम बेसहनी,
बैसाख में खाय जड़हनी,
और जेठ मास जे दिन में सोए,
ओकर जर (बुखार) असार में रोवे.
(भावार्थ-ऐसे व्यक्ति को बिमारी नहीं होती)
2.
इस…
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Added by Prabhakar Pandey on July 5, 2010 at 2:10pm —
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मेघों का अम्बर में लगा अम्बार
थकते नहीं नैना दृश्य निहार
हर मन कहे ये बारम्बार
आहा!आषाढ़..कोटि कोटि आभार
धरा ने ओढी हरित चादर निराली
लहलहाए खेत बरसी खुशहाली
तन मन भिगोये रिमझिम फुहार
आहा! आषाढ़.. कोटि कोटि आभार
भीगे गाँव ओ' नगर सारे
थिरकीं नदियाँ छोड़ कूल किनारे
अठखेलियाँ करे पनीली बयार
आहा! आषाढ़. कोटि कोटि आभार
दुष्यंत...
Added by दुष्यंत सेवक on July 5, 2010 at 12:05pm —
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नवगीत:
निर्माणों के गीत गुँजायें...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
मतभेदों के गड्ढें पाटें,
सद्भावों की सड़क बनायें.
बाधाओं के टीले खोदें,
कोशिश-मिट्टी-सतह बिछायें.
निर्माणों के गीत गुँजायें...
*
निष्ठां की गेंती-कुदाल लें,
लगन-फावड़ा-तसला लायें.
बढ़ें हाथ से हाथ मिलाकर-
कदम-कदम पथ सुदृढ़ बनायें.
निर्माणों के गीत…
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Added by sanjiv verma 'salil' on July 5, 2010 at 8:49am —
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मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,
मुझे सारा ज़माना मिल गया है !
जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,
आंसुयों को ठिकाना मिल गया है !
मेरा पडौस परेशान है यही सुनकर
मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!
तेरे आशार और मुझको मुखातिब,
मुझे मानो खजाना मिल गया है !
कलम उगलेगी आग अब यकीनन,
जख्म दिल का पुराना मिल गया है !
मेरे आशार और है ज़िक्र उनका,
दीवाने को दीवाना मिल गया है !
लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,
मेरे…
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Added by योगराज प्रभाकर on July 4, 2010 at 11:30pm —
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बाल कविता:
आन्या गुडिया प्यारी
संजीव 'सलिल'
*
*
आन्या गुडिया प्यारी,
सब बच्चों से न्यारी।
गुड्डा जो मन भाया,
उससे हाथ मिलाया।
हटा दिया मम्मी ने,
तब दिल था भर आया ।
आन्या रोई-मचली,
मम्मी थी कुछ पिघली।
नया खिलौना ले लो,
आन्या को समझाया ।
आन्या बात न माने,
मन में जिद थी ठाने ।
लगी बहाने आँसू,
सिर पर गगन उठाया ।
आये नानी-नाना,
किया न कोई बहाना ।
मम्मी को…
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Added by sanjiv verma 'salil' on July 4, 2010 at 12:05am —
3 Comments
क्या प्यार इसको कहते हैं ,
पार्क में बेपरवाह बेसर्म सा ,
या बाइक पे भद्दा नुमाइस ,
या बुजुर्गो के सामने भी ,
बेसर्मो सा बेवहार करते हैं ,
क्या प्यार इसको कहते हैं ,
ना मैं तो इसे प्यार ना कहू ,
हमें तो लगता हैं ये हवास ,
यारो इस हवास को आप ,
प्यार का नाम मत दो ,
सोचो आपसे गुजारिस करते हैं ,
क्या प्यार इसको कहते हैं ?
Added by Rash Bihari Ravi on July 3, 2010 at 7:12pm —
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प्यार तो मैं भी करता हूँ ,
पर कहने से डरता हूँ ,
कारण जग विदित हैं ,
उन्हें आरक्षण जो मिला हैं
इसी से डरता हूँ ,
शादी हम से करे ,
आरक्षण का फायदा ,
कही और उठायें ,
कारण यही हैं ,
कदम उठाने से डरता हूँ,
प्यार तो मैं भी करता हूँ ,
Added by Rash Bihari Ravi on July 3, 2010 at 3:30pm —
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जो थे अरसे से खामोश मेरे इन होठों को तराने मिल गये
लड़ा पत्थरों से कुछ ऐसे की हीरों के खजाने मिल गये
गया मेरी जिंदगी से, मुझे मरने के लिए छोड़ गया वो
अब भी हूँ जिंदा मस्ती मे, मुझे जीने के बहाने मिल गये
जो था मेरा अपना वो मुझसे अब नज़रें चुराने लग गया
पर इस महफ़िल मे हंसकर गले मुझसे बैगाने मिल गये
घर से मिकला था की जाऊँगा मंदिर पर अभी तो नशे मे हुँ
अगली ही गली मे मुझे ये कितने सारे मयखाने मिल गये
गया था कुछ बैगानों की महफ़िल मे कल…
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Added by Pallav Pancholi on July 2, 2010 at 11:46pm —
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