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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog (228)

सूर्य से जो लड़ा नहीं करता (ग़ज़ल)

२१२२ १२१२ २२

 

सूर्य से जो लड़ा नहीं करता

वक़्त उसको हरा नहीं करता

 

सड़ ही जाता है वो समर आख़िर

वक्त पर जो गिरा नहीं करता

 

जा के विस्फोट कीजिए उस पर

यूँ ही पर्वत झुका नहीं करता

 

लाख कोशिश करे दिमाग मगर

दिल किसी का बुरा नहीं करता

 

प्यार धरती का खींचता इसको

यूँ ही आँसू गिरा नहीं करता

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2016 at 11:22pm — 8 Comments

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम (ग़ज़ल)

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

 

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम

उदर की राह से धमनी में आ गई हो तुम

 

मेरे दिमाग से दिल में उतर तो आई हो

महल को छोड़ के झुग्गी में आ गई हो तुम

 

ज़रा सी पी के ही तन मन नशे में झूम उठा

कसम से आज तो पानी में आ गई हो तुम

 

हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी

लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम

 

बदन पिघल के मेरा बह रहा सनम ऐसे

ज्यूँ अब के बार की गर्मी में आ गई हो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 5, 2016 at 11:30pm — 10 Comments

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

 

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब

जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

 

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि

अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

 

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब

ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

 

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को

वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2016 at 6:00pm — 14 Comments

तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले (ग़ज़ल)

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

 

सभी पैरहन हम भुला कर चले

तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले

 

न फिर उम्र भर वो अघा कर चले

जो मज़लूम का हक पचा कर चले

गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ

वहीं से मुहब्बत कमा कर चले

 

अकेले कभी अब से होंगे न हम

वो हमको हमीं से मिला कर चले

 

न जाने क्या हाथी का घट जाएगा

अगर चींटियों को बचा कर चले

 

तरस जाएगा एक बोसे को भी

वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 5:57pm — 10 Comments

काले काले घोड़े (नवगीत)

पहुँच रहे मंजिल तक

झटपट

काले काले घोड़े

 

भगवा घोड़े खुरच रहे हैं

दीवारें मस्जिद की

हरे रंग के घोड़े खुरचें

दीवारें मंदिर की

 

जो सफ़ेद हैं

उन्हें सियासत

मार रही है कोड़े

 

गधे और खच्चर की हालत

मुझसे मत पूछो तुम

लटक रहा है बैल कुँएँ में

क्यों? खुद ही सोचो तुम

 

गाय बिचारी

दूध बेचकर

खाने भर को जोड़े

 

है दिन रात सुनाई देती

इनकी टाप सभी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2016 at 11:03am — 4 Comments

रुक गई बहती नदी (नवगीत)

काम सारे

ख़त्म करके

रुक गई बहती नदी

ओढ़ कर

कुहरे की चादर

देर तक सोती रही

 

सूर्य बाबा

उठ सवेरे

हाथ मुँह धो आ गये

जो दिखा उनको

उसी से

चाय माँगे जा रहे

 

धूप कमरे में घुसी

तो हड़बड़ाकर

उठ गई

 

गर्म होते

सूर्य बाबा ने

कहा कुछ धूप से

धूप तो

सब जानती थी

गुदगुदा आई उसे

 

उठ गई

झटपट नहाकर

वो रसोई में…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 2, 2016 at 3:44pm — 12 Comments

बात वही गंदी जो सब पर थोपी जाती है (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

अच्छी बात वही जिसको मर्जी अपनाती है

बात वही गंदी जो सब पर थोपी जाती है

 

मज़लूमों का ख़ून गिरा है, दाग न जाते हैं

चद्दर यूँ तो मुई सियासत रोज़ धुलाती है

 

रोने चिल्लाने की सब आवाज़ें दब जाएँ

राजनीति इसलिए प्रगति का ढोल बजाती है

 

फंदे से लटके तो राजा कहता है बुजदिल

हक माँगे तो, जनता बद’अमली फैलाती है

 

सारा ज्ञान मिलाकर भी इक शे’र नहीं होता

सुन, भेजे से नहीं,…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 17, 2016 at 11:24pm — 8 Comments

मेंढक और कुँआँ (कविता)

हर मेंढक अपनी पसंद का कुँआँ खोजता है

मिल जाने पर उसे ही दुनिया समझने लगता है

 

मेढक मादा को आकर्षित करने के लिए

जोर जोर से टर्राता है

पर यह पूरा सच नहीं है

वो जोर जोर से टर्राकर

बाकी मेंढकों को अपनी ताकत का अहसास भी दिलाता है

और बाकी मेंढकों तक ये संदेश पहुँचाता है

कि उसके कुँएँ में उसकी अधीनता स्वीकार करने वाले मेंढक ही आ सकते हैं

 

गिरते हुए जलस्तर के कारण

कुँओं का अस्तित्व संकट में है

और संकट में है…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 9, 2016 at 8:18pm — 6 Comments

नाम लिख मेरा हथेली पर, हुई गुमनाम तू (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

 

जो मुझे अच्छा लगे करने दे बस वो काम तू

ज़िन्दगी सुन, ज़िन्दगी भर रख मुझे गुमनाम तू

 

जीन मेरे खोजते थे सिर्फ़ तेरे जीन को

सुन हज़ारों वर्ष की भटकन का है विश्राम तू

 

तुझसे पहले कुछ नहीं था कुछ न होगा तेरे बाद

सृष्टि का आगाज़ तू है और है अंजाम तू

 

डूबता मैं रोज़ तुझमें रोज़ पाता कुछ नया

मैं ख़यालों का शराबी और मेरा जाम तू

 

क्या करूँ, कैसे उतारूँ, जान तेरा कर्ज़ मैं

नाम…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 2, 2016 at 12:00pm — 10 Comments

हर बार उन्हें आप ने सुल्तान बनाया (ग़ज़ल)

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

 

ये झूठ है अल्लाह ने इंसान बनाया

सच ये है कि आदम ने ही भगवान बनाया

 

करनी है परश्तिश तो करो उनकी जिन्होंने

जीना यहाँ धरती पे है  आसान बनाया

 

जैसे वो चुनावों में हैं जनता को बनाते

पंडे ने तुम्हें वैसे ही जजमान बनाया

 

मज़लूम कहीं घोंट न दें रब की ही गर्दन

मुल्ला ने यही सोच के शैतान बनाया

 

सब आपके हाथों में है ये भ्रम नहीं टूटे

यह सोच के हुक्काम ने मतदान…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 23, 2015 at 10:00am — 32 Comments

भौंक रहे कुत्ते (नवगीत)

हर आने जाने वाले पर

भौंक रहे कुत्ते

 

निर्बल को दौड़ा लेने में

मज़ा मिले, जब तो

क्यों ये भौंक रहे हैं, इससे

क्या मतलब इनको

 

अब हल्की सी आहट पर भी

चौंक रहे कुत्ते

 

हर गाड़ी का पीछा करते

सदा बिना मतलब

कई मिसालें बनीं, न जाने

ये सुधरेंगे कब

 

राजनीति, गौ की चरबी में

छौंक रहे कुत्ते

 

गर्मी इनसे सहन न होती

फिर भी ये हरदम

करते हरे भरे पेड़ों…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 15, 2015 at 9:49pm — 4 Comments

ग़ज़ल : जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

देख तेरे संसार की हालत सब्र छूटने लगता है

जिसको ताकत मिल जाती है वही लूटने लगता है

 

सरकारी खाते से फ़ौरन बड़े घड़े आ जाते हैं

मंत्री जी के पापों का जब घड़ा फूटने लगता है

 

मार्क्सवाद की बातें कर के जो हथियाता है सत्ता

कुर्सी मिलते ही वो फौरन माल कूटने लगता है

 

जिसे लूटना हो कानूनन मज़लूमों को वो झटपट

ऋण लेकर कंपनी खोलता और लूटने लगता है

 

बेघर होते जाते मुफ़लिस, तेरे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 13, 2015 at 2:49pm — 10 Comments

जीवन नमकीन पानी से बनता है (कविता)

भावनाएँ साफ पानी से बनती हैं

तर्क पौष्टिक भोजन से

 

भूखे प्यासे इंसान के पास

न भावनाएँ होती हैं न तर्क

 

कहते हैं जल ही जीवन है

क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है

तर्क से किताबें बनती हैं

 

पत्थर भी पानी पीता है

लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है

किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं

 

प्लास्टिक पानी नहीं पीता

इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता

हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 8, 2015 at 10:07pm — 12 Comments

लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं

तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जाएँगे

लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

सबसे आगे हो जो सबसे पहले खेत रहे

सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया

आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं

 

धीरे धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’

सबकुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2015 at 9:31am — 14 Comments

पूँजी के बंदर (नवगीत)

खिसिया जाते, बात बात पर

दिखलाते ख़ंजर

पूँजी के बंदर

 

अभिनेता ही नायक है अब

और वही खलनायक

जनता के सारे सेवक हैं

पूँजी के अभिभावक

 

चमकीले पर्दे पर लगता

नाला भी सागर

 

सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें

वही खेल है मज़हब

बिक जाये जो, कालजयी है

उसका लेखक है रब

 

बिछड़ गये सूखी रोटी से

प्याज और अरहर

 

जीना है तो ताला मारो

कलम और जिह्वा पर

गली मुहल्ले साँड़…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 12, 2015 at 10:51am — 4 Comments

ग़ज़ल : हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

 

हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है

न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

 

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का

जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है

 

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा

ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है

 

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक

वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है

 

वो सुबूत माँगते हैं, वो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 15, 2015 at 6:13pm — 10 Comments

तालाब की मछलियाँ (लघुकथा)

इस बार गर्मियाँ तालाब का ढेर सारा पानी पी गईं। मछुआरे से बचते-बचाते धीरे-धीरे मछलियाँ बहुत चालाक हो गईं थीं। वो अब मछुआरे के झाँसे में नहीं आती थीं। उनके दाँत भी काफ़ी तेज़ हो गए थे। अगर कोई मछली कभी फँस भी गई तो जाल के तार काटकर निकल जाती थी। मछुआरे को पता चल गया था कि इस बार उसका पाला अलग तरह की मछलियों से पड़ा है। वो पानी कम होने का ही इंतज़ार कर रहा था।

उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2015 at 6:47pm — 2 Comments

ग़ज़ल : मैं पागल था मगर इतना नहीं था

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

 

सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था

मैं पागल था मगर इतना नहीं था

 

बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे

तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था

 

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ

मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था

 

यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की

ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था

 

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी

कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 26, 2015 at 10:33am — 20 Comments

ग़ज़ल : जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

 

चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं

जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

 

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे

जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं

 

उनकी तो हर बात सियासी होगी ही

यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?

 

दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी

मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं

 

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर

हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं

------------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 20, 2015 at 10:29pm — 16 Comments

धर्मान्धों की नगरी में (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर

ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री

पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते

ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2015 at 5:50pm — 18 Comments

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