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२२१/२१२१/१२२१/२१२
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जिनकी ज़बाँ से सुनते हैं गहना ज़मीर है
हमको उन्हीं की आँखों में पढ़ना ज़मीर है।१।
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जब सच कहे तो काँप उठे झूठ का नगर
हमको तो सच का ऐसे ही गढ़ना ज़मीर है।२।
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सत्ता के साथ बैठ के लिखते हैं फ़ैसले,
जिनकी कलम है सोने की, मरना ज़मीर है।३।
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ये शौक निर्धनों का है, पर आप तो धनी,
किसने कहा है आप को, रखना ज़मीर है।४।
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चलने लगी हैं गाँव में, बाज़ार की हवा,
पनपेंगे ज़र के…
Posted on September 3, 2025 at 9:15pm — 2 Comments
२१२/२१२/२१२/२१२
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घाव की बानगी जब पुरानी पड़ी
याद फिर दुश्मनी की दिलानी पड़ी।१।
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झूठ उसका न जग झूठ समझे कहीं
बात यूँ अनकही भी निभानी पड़ी।२।
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दे गये अश्क सीलन हमें इस तरह
याद भी अलगनी पर सुखानी पड़ी।३।
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बाल-बच्चो को आँगन मिले सोचकर
एक दीवार घर की गिरानी पड़ी।४।
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रख दिया बाँधकर उसको गोदाम में
चीज अनमोल जो भी पुरानी पड़ी।५।
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कर लिया सबने ही जब हमें आवरण
साख हमको सभी की बचानी…
Posted on September 1, 2025 at 5:30pm — 4 Comments
212/212/212/212
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केश जब तब घटा के खुले रात भर
ठोस पत्थर हुए बुलबुले रात भर।।
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देख सावन के आँसू छलकने लगे
और जुगनू हुए चुलबुले रात भर।।
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हाल अपना मगर इसके विपरीत था
नैन डर से रहे अधखुले रात भर।।
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धार फूटी कहीं फोड़ पाषाण को
शेष रखने कुटी हम तुले रात भर।।
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देख तारों को मद्धम जो इतरा गयी
दर्प उस चाँदनी के घुले रात भर।।
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खोल मन बिजलियाँ खिलखिलाती रहीं
कह गये …
Posted on August 17, 2025 at 8:56pm — 4 Comments
१२२/१२२/१२२/१२२
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कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के
सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१।
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महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के
कहे झोपड़ी का नहीं मोल सिक्के।२।
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लगाता है सबके सुखों को पलीता
बना रोज रिश्तों में क्यों होल सिक्के।३।
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रहें दूर या फिर निकट जिन्दगी में
बजाता है सबको बना ढोल सिक्के।४।
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सिधर भी गये तो न बक्शेंगे हमको
रहे जिन्दगी में जो ये झोल सिक्के।५।
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नहीं पेट ताली …
Posted on July 10, 2025 at 3:15pm — 3 Comments
सादर आभार आदरणीय
अपने आतिथ्य के लिए धन्यवाद :)
मुसाफिर सर प्रणाम स्वीकार करें आपकी ग़ज़लें दिल छू लेती हैं
जन्मदिन की शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’ जी
प्रिय भ्राता धामी जी सप्रेम नमन
आपके शब्द सहरा में नखलिस्तान जैसे - हैं
शुक्रिया लक्ष्मण जी
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी!आपने मुझे इस क़ाबिल समझा!
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