शन्नो की सगी बहन मन्नु लेकिन शक्ल सूरत में जमीन आसमान का अंतर , अपने माता पिता की लाडली शन्नो इतनी सुंदर थी मानो आसमान से कोई परी जमीन पर उतर आई हो ,बेचारी मन्नु को अपने साधारण रंग रूप के कारण सदा अपने माता पिता की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता था |शन्नो अपने माँ बाप के लाड और अपनी खूबसूरती के आगे किसी को कुछ समझती ही नही थी |एक दिन दुर्भाग्यवश उनकी माँ बहुत बीमार पड़ गई ,सारा दिन बिस्तर पर ही लेटी रहती थी ,मन्नु ने अपनी माँ की सेवा के साथ साथ घर का बोझ भी अपने कंधों पर ले लिया ,उसकी नकचढ़ी…
ContinueAdded by Rekha Joshi on July 31, 2012 at 11:04pm — 16 Comments
वो आँखें थी या ख्वाब के बगूले, वो जुल्फें थीं या रात के समंदर की लहरें, वो होंठ थे या सेब तराशे हुए, वो चेहरा था या किसी नदी का सुनहरा टुकड़ा, वो कामत थी या लहलहाते फसल का खेत, उसका पैरहन था या जिस्म के तनासुब में बनाया कालिब, उसकी नज़र थी या कि कोई नीली बर्क, उसकी हंसी थी या प्यार का गुदगुदाता ऐतेराफ़, उसकी चाल थी या किसी सपेरे की हिलती बीन, उसके कॉल थे या ख्वाब से जागती अंगड़ाई, उसकी उदासी थी या मीलों लंबा पहाड़ का दामन, उसकी खुशी थी या कहकशाँ में भीगे सितारे, उसका लम्स था या किसी शिफागर…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:57pm — No Comments
कहाँ चले जाते हैं लोग करीब आके. किधर मुड़ जाती है राह आँखों से ओझल होके. क्या होता है उनका जो अब अपनी वाबस्तगी में नहीं. धूप जो अभी अभी पूरे एअरपोर्ट पे बिखरी थी, कहाँ गुम हो गई. इक उदासी भरी धुन जो बज रही था, वो क्या कह के चुप हो गई.
लाउंज की खाली-खाली कुर्सियां, और कुछ कुर्सियों में सिमटे सिकुड़े लोग, कहाँ जा रहे हैं ये लोग, कौन इनका इंतज़ार करता होगा और किस जगह पे. हम इनसे फिर कभी मिलेंगे भी या नहीं और मिले भी तो कैसे जान पायेंगे. दिन यूँ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा है जैसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:56pm — No Comments
कुछ उदासियों के चेहरे होते हैं जो जब हंसते हैं तो और भी रुलाते हैं! कुछ खामोशियाँ बाजुबां होती हैं, जो जब बोलती हैं तो दिल की गहराइयों में लहरें उठती हैं, कुछ ख़याल टहलते हैं गिर्दोपेश में कि उनके मानी को सरापा पढ़ा जा सकता है. कोई दिन पपीहे की तरह गाता है गोया बारिश की फुहारों ने समूची कायनात को इक मजलिसेमूसीकी बना दिया हो, कोई रात आके सिरहाने खडी़ हो जाती है मानो मेरे काँधे पे सर रख के दो आंसूं रो लेना चाहती हो. कुछ लोग ज़हन में यूँ बस जाते हैं गोया कोई बीती निस्बतों का नेस्तेनाबूद न होने…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:30pm — No Comments
कह मुकरने की कुछ कोशिशें...
(1)
वो डोले दुनिया मुसकाए।
पवन बसन्ती झूमे गाये।
बिन उसके जग खाली खाली,
क्या सखी साजन? ना हरियाली।
…
ContinueAdded by Sanjay Mishra 'Habib' on July 31, 2012 at 3:30pm — 5 Comments
"करमजली"
गुलाबो की अम्मा
बचपन में ही छोड़ गयी थी
बचपन क्या १ दिन की थी
१ दिन की थी तभी
छोड़ गयी थी
इस करमजली को
ममत्व मर कैसे गया
उसकी माँ का…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 31, 2012 at 12:39pm — 1 Comment
माहिया (12,10,12)
(1)
अम्बर पे बदरी है
देखो आ जाओ
तरसे मन गगरी है
(२)
सागर में नाव चली
बिन तेरे कुछ भी
चीजें लगती न भली
(३)
चुनरी पे नौ बूटे
सुन तकते- तकते
कहीं डोरी न टूटे
(४)
सूरज सिन्दूरी ना
मिल न सके कोई
इतनी भी दूरी ना
(५)
मैं माँ घर जाउंगी
पैर पकड़ लेना
वापस नहीं आउंगी
Added by rajesh kumari on July 30, 2012 at 10:00pm — 10 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 30, 2012 at 9:00pm — 4 Comments
"मुझे चाहिए ऐसी ही रौशनी "
लिखता हूँ
जो मन करता है
दिमाग की नशें नहीं खींचता
जोर आजमाइश कर कुछ नहीं निकलता
सिवाए तेल के
अब कोल्हू का बैल तो हूँ नहीं
मोती तो गहराई में होते हैं…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 30, 2012 at 2:00pm — 3 Comments
"स्याही"
पता है तुम्हे
तुम जानती हो
तुम हर्फ़ हर्फ़ की रूह हो
गलत कुछ भी नहीं
सफाह तुम बिन तन्हा है
खाली है, कोरा है
धूल जम चुकी है
डायरी में…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 30, 2012 at 1:08pm — No Comments
ख़ुदाकी जलाई शम्मा तो कबसे रौशन है
कोई है तो खुद अपनी दानाई चिल्मन है
कुछ किताबें, कपड़े, एक तोशक, तकिया
और तेरी फुर्कतसे चरागाँ मेरा नशेमन है
न होता इश्क तो हुस्न की कद्र क्या थी
आशिकों को दीवाना कहना पागलपन है
क्यूँ भला पूछें हम बगलगीरों के मसाइल
अपना-अपना घर अपना-अपना आँगन है
हुए खानाखराब इश्कमें फिरेहैं खानाबदोश
रहलेवें हैं हम जिस शह्रमें जैसा चलन है
मौत किस तरहा मुश्कबूसी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 8:30pm — No Comments
जीवन
जीवन
तुम हो
एक अबूझ पहेली,
न जाने फिर भी
क्यों लगता है
तुम्हे बूझ ही लूंगी.
पर जितना तुम्हे
हल करने की
कोशिश करती हूँ,
उतना ही तुम
उलझा देते हो.
थका देते हो.
पर मैंने भी ठाना है;
जितना तुम उलझाओगे ,
उतना तुम्हे
हल करने में;
मुझे आनद आएगा.
और
इसी तरह देखना;
एक दिन
तुम मेरे
हो…
Added by Veena Sethi on July 29, 2012 at 6:35pm — 1 Comment
मैं पैदा ही हुआ हूँ दर्द को जीने के लिए
जैसे लहरें बनींहैं जाँकश सफीनेके लिए
मुझको क्या गिजा चाहिए जीने के लिए
तुम्हारा गम काफी है पूरे महीने के लिए
कुछ तो चाहिए दिलको गम दवा या दारु
इकअदद आब काफी नहींहै पीने के लिए
क्यूँ बढ़ालीहैं हमने अपनी सब ज़रुरीयात
बढ़ीहुई तंख्वाह चाहिए हर महीने के लिए
मैं भटकता हुआ दरिया हूँ समंदर है कहाँ
कोई ठहराव चाहिए तामीरेनगीने के लिए
अपनी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:50am — 2 Comments
बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:20am — No Comments
"चाय "
आज सुबह उठा तो सोचा चाय बना लूं
पानी लिया
श्याही सा
हर्फ़ हर्फ़
चाय के दाने
तैरने लगे
एहसासों की चीनी डाल
चढ़ा दिया पतीली को…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 29, 2012 at 9:48am — No Comments
Added by Dr.Prachi Singh on July 28, 2012 at 5:30pm — 13 Comments
मानो तो रूह क़ा नाता है जी ये राखी
न मानो कच्चा धागा है जी ये राखी .
जो राखी को दम्भ-आडम्बर मानते हैं ;
उन का मन भी तो अपनाता है ये राखी .
बहना के मन से उपजी हर इक दुआ है ये ;
भाई-बहन से बंधवाता है ये राखी .
सभ्य समाज की नींव के पत्थर नातों का…
ContinueAdded by DEEP ZIRVI on July 27, 2012 at 7:00pm — 1 Comment
प्यार से मुझको, अनमोल नगीना दे दो,
जिंदगी को बस , इक और महीना दे दो,
हम जितना उनको देख मुस्कुराते चले गए,
वो उतना ही दिल कसम से दुखाते चले गए,
हुस्न की फिर से, कुछ अदाएं ढूंढ़ लाया हूँ,
आज अपनी खातिर, सजाएं ढूंढ़ लाया हूँ.....…
Added by अरुन 'अनन्त' on July 27, 2012 at 4:25pm — 10 Comments
"पल्लू"
मुख
मलीन हो रहा है
तेज नष्ट भ्रष्ट
मुझे छोड़ दिया न
तुमने
गोरी के पल्लू ने
धीरे से कानों में कहा
देखो सब घूर रहे हैं…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 27, 2012 at 3:56pm — 6 Comments
"किताबें "
किताबें
खटखटा रही हैं
दरवाजे दिमाग के
लायी हैं कुछ
सवाल कुछ जबाब
छू रहीं है
दिल को…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 27, 2012 at 3:13pm — 5 Comments
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