"बारहमासा"
"चैत्र" मे चित चिंतित, चंचल चहु चकोर।
प्रिया बिन सब सूना लगे, ना सुझे कौर॥
"वैशाख" वैरी विष समान, वल्लरी बन विलगाय।
दोबारा फूल खिलेंगे तभी, अनुकूल रितु को पाय॥…
Added by आचार्य शीलक राम on November 30, 2022 at 9:00pm — 4 Comments
2122/2122/212
*
हर तरफ झण्डे गढ़े हैं नाम के
पर नहीं हैं आदमी वो काम के।1।
*
वोट खातिर पैर पकड़े जिसने भी
वो हुए ना एक पल भी आम के।2।
*
नाम पर उन के मचाते लूट सब
कौन चलता है यहाँ पथ राम के।3।
*
लोक ने अनमोल आँका था जिन्हें
आज देखो वो बिके बिन दाम के।4।
*
क्या पता भटका हुआ लौटे कोई
दीप कोई तो जलाये शाम के।5।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 30, 2022 at 8:12am — 6 Comments
२१२/२१२/२१२/२१२
*
राह में शूल अब तो बिछाने लगे
हाथ दुश्मन से साथी मिलाने लगे।१।
*
जो अघाते न थे कह सहारे हमी
गाल वो भी दुखों में बजाने लगे।२।
*
दुश्मनों की जरूरत हमें अब कहाँ
जब स्वयं को स्वयं ही मिटाने लगे।३।
*
हाथ सबका ही तोड़े यहाँ फूल को
सोच माली भी काँटे उगाने लगे।४।
*
बात उसको बता कर्म की साथिया
सेज सपनों की जो भी सजाने लगे।५।
*
वोट पाने की खातिर कभी रोये…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 28, 2022 at 11:30pm — 6 Comments
जा रे-जा रे कारे कागा मेरे छत पर आना ना
आना है तो आजा पर छत पर शोर मचाना ना
तू आएगा छत पर मेरे कांव-कांव चिल्लाएगा
ना जाने किस अतिथि को मेरे घर बुलाएगा
उल्टी पड़ी पतीली मेरी और चूल्हे में आंच नहीं
थाल सजाऊँ कैसे मैं घर में…
ContinueAdded by AMAN SINHA on November 28, 2022 at 4:44pm — 4 Comments
सपनों में भावों के ताने-बाने बुन-बुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
बोलो यदि ऐसा होता तो फिर क्या होता ?... और मौन हो जाता था मैं !
उसकी एक हँसी पर जैसे
अपने दोनों पंख पसारे,
ढेरों हंस उड़ा करते थे
बहती निर्मल नदी किनारे,
सतरंगी आँखों में बाँधे पूरा फाल्गुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
अगर न मिल पाते हम-तुम तो फिर क्या होता ?... और कहीं खो जाता था मैं !
मन-जीवन की सारी उलझन
यहाँ-वहाँ की अनगिन…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 28, 2022 at 2:30am — 7 Comments
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
बह्र - 212 212 212 212
गीत बुलबुल सुनाती रही रात भर
दिलरुबा को रिझाती रही रात भर
भाव ही नींद खाती रही रात भर
उसको मैं बस मनाती रही रात भर
ज़िंदगी से सुना गीत जो सारा दिन
उसको मैं गुनगुनाती रही रात भर
उनकी दिलकश अदा और दीवानगी
सोच मैं मुस्कुराती रही रात भर
तेरी पहली छुअन याद करके सनम
मन ही मन मैं लजाती रही रात भर
चाँद तकने दिया भूख ने कब…
ContinueAdded by Rakhee jain on November 27, 2022 at 3:00pm — 5 Comments
2122 2122 2122 212
पीर को,अनुराग को, पछतावे को, संताप को।
छोड़कर कैसे चलूँ, मुश्किल में,अपने आप को।
मन घिरा है वासना में,और मर्यादा में तन,
अर छुपाना भी कठिन है,उबले जल की भाप को
अब यहाँ से वापसी का रास्ता कोई नहीं,
मुश्किलों से पँहुचे हो,समझाओ अपने आपको।
मेघ ऐसे घिर गए हैं सूर्य धूमिल हो गया,
कामनाओं की नदी पर चाहती है ताप को।
हमको खुद को दर्द देने के बहाने चाहिए,
सौ सबब*…
Added by मनोज अहसास on November 25, 2022 at 5:14pm — 6 Comments
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on November 24, 2022 at 6:30pm — 4 Comments
२१२२/२१२२/२१२२
*
मत कहो अब मन खँगाला जा रहा है
इस वतन से बस उजाला जा रहा है ।१।
*
फिर दिखेगा मौत का मन्जर वृहद ही
कह सुधा नित विष उबाला जा रहा है।२।
*
आसमाँ को बाँटने की हो न साजिस
जो भी नारा अब उछाला जा रहा है।३।
*
हस्र क्या होगा उन्हें भी ज्ञात होगा
जानकर जब साँप पाला जा रहा है।४।
*
बँट रहा नित किन्तु सब के पेट खाली
पास किस के फिर निवाला जा रहा है।५।
*
मान मर्दन के…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 23, 2022 at 9:33pm — 4 Comments
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222/1222/1222/1222
कहीं भी जाइए रूस्वाइयाँ आवाज़ देती हैं
बुरे कर्मों की सब परछाइयाँ आवाज़ देती हैं
कभी चिड़िया कभी गुड़िया कभी लख़्त-ए-जिगर कहकर
मुझे रस्मों की सब मजबूरियाँ आवाज़ देती हैं
बुलंदी पर पहुँचता है जो कोई अपनी मिहनत से
जहाँ भर की उसे शाबाशियाँ आवाज़ देती हैं
भले ही आज होती हैं समानधिकार की बातें
लगी सदियों की सब पाबंदियाँ आवाज़ देती…
ContinueAdded by Rakhee jain on November 20, 2022 at 5:00pm — 4 Comments
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on November 19, 2022 at 7:00pm — 8 Comments
अंतरराष्ट्रीय_पुरुष_दिवस
पुरूष क्यूँ
रो नहीं सकता?
भाव विभोर हो नहीं सकता
किसने उससे
नर होने का अधिकार छिन लिया?
कहो भला
उसने पुरुष के साथ ऐसा क्यूँ किया?
क्या उसका मन आहत नहीं होता?
क्या उसका तन
तानों से घायल नहीं होता?
झेल जाता है सब कुछ
बस अपने नर होने की आर में
पर उसे रोने का अधिकार नहीं है
रोएगा तो कमज़ोर माना जायेगा
औरों से उसे
कमतर आँका जायेगा
समाज में फिर तिरस्कार होता है
अपनों के हीं सभा…
Added by AMAN SINHA on November 19, 2022 at 6:00pm — No Comments
122 122 122 122
अभी दुश्मनी में वो शिद्दत नहीं है
हवा को चराग़ों से दिक़्क़त नहीं है
सभी को यहाँ मैं ख़फ़ा कर चुका हूँ
मुझे सच छुपाने की आदत नहीं है
मुझे है बहुत कुछ बताने की चाहत
मगर बात करने की मोहलत नहीं है
किसी से तुझे क्यों मिलेगी मुहब्बत
तुझे जब तुझी से मुहब्बत नहीं है
हक़ीक़त कहूँ तो मैं हूँ ख़ैरियत से
मगर ख़ैरियत में हक़ीक़त नहीं है
मिरे दिल पे तेरी हुक़ूमत है…
ContinueAdded by Zaif on November 19, 2022 at 12:07am — 4 Comments
(आ. समर सर जी की इस्लाह के बाद)
(22 22 22 22)
सोचा कुछ तो होगा उसने
हमको मुड़कर देखा उसने
कौन वफ़ा करता है ऐसी
सारी उम्र सताया उसने
जुड़ता कैसे ये टूटा दिल
टुकड़े करके छोड़ा उसने
जब-जब ज़िक्र-ए-उल्फ़त छेड़ा
तब-तब मुझको टोका उसने
उसको कौन समझ सकता था
बदला रोज़ मुखौटा उसने
जिसको सबसे बढ़कर चाहा
छोड़ा मुझको तन्हा उसने
जाकर वापस…
ContinueAdded by Zaif on November 18, 2022 at 7:32pm — 6 Comments
सियाह शब की रिदा पार कर गया सूरज
जो सुब्ह आई तो उम्मीद भर गया सूरज
बड़ा ग़ुरूर तमाज़त पे था इसे लेकिन
तपिश हयात की देखी तो डर गया सूरज
हमारे साथ भी रौनक हमेशा चलती है
कि जैसे नूर उधर है जिधर गया सूरज
ग्रहण लगा के जहाँ ने मिटाना चाहा मगर
मेरे वजूद का फिर भी संँवर गया सूरज
ज़मीं से दूर बहुत दूर जब ये रहता है
तो कैसे दरिया के दिल में उतर गया सूरज
यतीम बच्चों ने वालिद की मौत पर सोचा
किसी…
Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on November 17, 2022 at 11:45pm — 4 Comments
दोहा त्रयी :मैं क्या जानूं
मैं क्या जानूं आज का, कल क्या होगा रूप ।
सुख की होगी छाँव या , दुख की होगी धूप ।।
मैं क्या जानूं भोर का, होगा क्या अंजाम।
दिन बीतेगा किस तरह , कैसी होगी शाम ।।
मैं क्या जानूं जिन्दगी, क्या खेलेगी खेल ।
उड़ जाए कब तोड़ कर , पंछी तन की जेल ।।
सुशील सरना / 17-11-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 17, 2022 at 12:00pm — 6 Comments
मैना बैठी सोच रही है
पिंजरे के दिल में
मिल जाता है दाना पानी
जीवन जीने में आसानी
सुनती सबकी बात सयानी
फिर भी होती है हैरानी
मुझसे ज्यादा ख़ुश तो
चूहा है अपने बिल में
जब तक बोले मीठा-मीठा
सबको लगती है ये सीता
जैसे ही कहती कुछ अपना
सब कहते बस चुप ही रहना
अच्छी चिड़िया नहीं बोलती
ऐसे महफ़िल में
बहुत सलाखों से टकराई
पर पिंजरे से निकल न पाई
चला न…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 16, 2022 at 11:30am — 4 Comments
बालदिवस पर चन्द दोहे :. . . .
बाल दिवस का बचपना, क्या जाने अब अर्थ ।
अर्थ चक्र में पीसते, बचपन चन्द समर्थ ।।
बाल दिवस से बेखबर, भोलेपन से दूर ।
बना रहे कुछ भेड़िये , बच्चों को मजदूर ।।
भाषण में शिक्षा मिले, भाषण ही दे प्यार ।
बालदिवस पर बाँटते, नेता प्यार -दुलार ।।
फुटपाथों पर देखिए, बच्चों का संसार ।
दो रोटी की चाह में , झोली रहे पसार ।।
गाली की लोरी मिले, लातों के उपहार ।
इनका बचपन खा गया, अर्थ लिप्त संसार ।।
बाल दिवस पर दीजिए,…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 14, 2022 at 3:30pm — 2 Comments
सावन सूखा बीत रहा है, एक बूंद की प्यास में
रूह बदन में कैद है अब भी, तुझ से मिलने की आस में
जैसे दरिया के लहरों, में कश्ती गोते खाते है
हम तेरी यादों में हर दिन, वैसे हीं डूबे जाते है…
ContinueAdded by AMAN SINHA on November 14, 2022 at 9:47am — No Comments
दोहे बाल दिवस पर
***
लेता फिर सुधि कौन है, दिवस मना हर साल।
वन्चित बच्चे जानते, बस बच्चों का हाल।।
*
कितने बच्चे चोरते, निसिदिन शातिर चोर।
लेकिन मचता है नहीं, तनिक देश में शोर।।
*
भूखा बच्चा रोकता, अनजाने की राह।
बासी रोटी फेंक मत, तेरे पास अथाह।।
*
नेता करते देह का, धन के बल आखेट।
कितने बच्चे सो रहे, निसदिन भूखे पेट।।
*
बच्चे हर धनवान के, हैं सुख से भरपूर।
निर्धन के सुख खोजने, बन जाते…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 12, 2022 at 10:11pm — 2 Comments
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