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अहसास की ग़ज़ल -मनोज अहसास

221  2121  1221  212



मंजिल भी थी, चराग भी थे ,हौसला न था ।

अब सबसे कह रहा हूं ,उधर रास्ता न था ।

यह किसकी दस्तरस में धुँआ है मेरी सहर,

कल शब तो इस मकां में दिया भी जला न था।

लेकर चला रकीब मुझे तेरी राह पर,

इक शख्स बस वही था जो मुझसे खफा न था।

मुद्दत के बाद भी तेरी तस्वीर दिल में है,

तेरा फरेब तेरे करम से बड़ा न था ।

उसके जवाब में थे कई उंगलियों के रंग,

लगता है उसने खत मेरा पूरा पढ़ा न था…

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Added by मनोज अहसास on January 9, 2020 at 11:39pm — No Comments

नियति-निर्माण

नियति-निर्माण

नियति मेरी, पूछूँ एक सवाल 

इतना तो बता दो मुझको

वास्तव में यह हिंसक नहीं है क्या

घोर अन्याय नहीं है क्या ...

कि हाथों में तुम्हारे रही है हमेशा

मेरे भविष्य की डोर

और मैं ...

ज़िन्दगी की इमारत की

किसी भी मंज़िल पर पहुँचा तो जाना

जागते सोचते हर धूलभरे कमरे में पाया

उदासीन खालीपन

और मेरी छाती में रहीं गिरफ़्तार

कितने अधबने अनबुने नामहीन

सनातन…

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Added by vijay nikore on January 9, 2020 at 9:30pm — 4 Comments

हम पंछी भारत के

जो हैं भूखे यहाँ ठहर जाएँ

शेष सब संग संग उड़ जाएँ

कमी नहीं यहाँ पे दानों क़ी

हो जो बरसात मेरे घर आएँ

पेट भरता है चंद दानों से

फ़िर क्यूँ सहरा में घूमने जाएँ

लोग भारत के बहुत अच्छे हैं

ख़ुद से पहिले हमें हैं खिलवाएँ

मार कंकर भगाते हैं बच्चे

फिर वही प्यार से हैं बुलावाएँ

प्रचंड गर्मी में जब तडपते हैं

पानी हमको यहीं हैं पिलवाएँ

खेत खलिहान सौंधी सी ख़ुशबू

छोड़ मिट्टी क़ो 'दीप' क्यूँ…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 9, 2020 at 5:30pm — 3 Comments

तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पर्दा सलीके से बहुत मकसद पे डाल कर

वो लाये सबको देखिए घर से निकाल कर।१।

कितना किया अहित है यूँ अपने ही देश का

लोगों ने उसके नाम  पर  पत्थर उछाल कर।२।

वंशज  उन्हीं  के  कर  रहे  जर्जर  इसे यहाँ

रखना जो कह गये थे ये कश्ती सँभाल कर।३।

कर्तब तेरे  किसी  को  यूँ  आते  समझ  नहीं

तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर।४।

कर  ली  है  पाँच   साल  यूँ   नेतागरी  बहुत

बच्चों सरीखा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2020 at 4:26pm — 11 Comments

अहसास

क्या तुम्हें याद है प्रिय

जब मैं औऱ तुम बस यूँ ही

नदी के किनारे चलते चलते

एक छोर से दूसरे छोर तलक

एक दूजे का हाथो में लेकर हाथ

टहलते रहते थे नंगे पाँव!

 

तुम जल्दी ही थक जाती थीं

औऱ बैठ जाया करती थीं

बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर

और टिका देती थीं सर बेंच पर

औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था

सिगरेट के कशों  के साथ !

 

हम दोनों घंटो निहारते रहते थे

एक दूसरे के चेहरे क़ो अपलक

कभी विस्तृत नीले…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 8, 2020 at 12:00pm — 6 Comments

दिल की बात .... एक प्रयास ...

दिल की बात .... एक प्रयास ...

कैसे बोलूँ मैं भला, अपने मन की बात।

ताने देंगे सब मुझे, जब होगी प्रभात।।

नैनों की ये सुर्खियाँ, बिखरे-बिखरे बाल।

कह देंगे सब बेशरम,कैसी बीती रात।।

नैनों के संवाद में, दिल ने मानी हार।

बेकाबू फिर हो गए, अंतस के जज़्बात।।

प्रणय पलों में अंततः, हारे सब स्वीकार।

अवगुंठन में रैन के, खूब हुए उत्पात।।

अंग -अंग में रच गयी प्रथम प्रीत की गंध।

श्वास-श्वास में बस गई, वो मधुर…

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Added by Sushil Sarna on January 7, 2020 at 9:09pm — 8 Comments

एहतियातन( लघुकथा)

मेमना और भेड़िया फिर उसी नाले के पास टकरा गये। भेड़िये को देखकर मेमना मिमियाने लगा।

"  देखिये आपका पानी बिल्कुल जूठा नहीं कर रहा हूँ। मैं तो ... मैं तो...पानी पी ही नहीं रहा हूँ। घर से पीकर आया हूँ।" 
" और क्या क्या करता है तू घर में?" भेड़िया उसके पास आ गया।
"जी..जी पढ़ाई करता हूँ। बारवीं कर ली।"मेमना पीछे हटने लगा।
"अच्छाss और अब काॅलेज जायगा?" 
 "जी..जी.. जी हाँ।"…
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Added by pratibha pande on January 7, 2020 at 7:30pm — 8 Comments

भारत दर्शन (द्वितीय कड़ी) मत्त गयंद छंद

वैभव औ सुख साधन थे उनको पर चैन नही मिल पाया

कारण और निवारण का हर प्रश्न तथागत ने दुहराया

घोष हुआ दिवि घोष हुआ भ्रम का लघु बंधन भी अकुलाया

गौतम से फिर बुद्ध बने जग विप्लव शंशय पास न आया।।1

गौतम बुद्ध जहाँ तप से हिय दिव्य अलौकिक दीप जलाए

मध्यम मार्ग चुना अनुशीलन राह यहीं जग को बतलाये

रीति कुरीति सही न लगे यदि क्यों फिर मानव वो अपनाए

तर्क वितर्क करो निज से, धर जीवन संयम को समझाये।।2

गाँव जहाँ ब्रज गोकुल से हिय में अपने जन प्रेम…

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Added by नाथ सोनांचली on January 7, 2020 at 5:30pm — 6 Comments

अमर प्रेम

इससे पहले के तुम दर्पण निहारों

मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ

 

लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने

तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ

 

समीरण रुक गई है बहते बहते

कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ

 

पवन से वेग की इच्छा अगर है

कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ

 

सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे

बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ

 

घटा आकाश में छाने को व्याकुल

कहो तो नयनों में तुमको बिठा…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 7, 2020 at 1:30pm — 6 Comments

आया है जनवरी (ग़ज़ल)

(221 2121 1221 212)

(बहर मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़)

अब के अजीब रंग में आया है जनवरी

ग़म सब पुराने साथ में लाया है जनवरी

बे-नूर सुब्ह-ओ-शाम हैं वीरां हैं रास्ते

तू भी किसी के ग़म का सताया है जनवरी

ना दिन में आफ़्ताब न महताब रात में

मत पूछिये कि कैसे निभाया है जनवरी

क़हर-ओ-सितम है ठंड का जारी उसी तरह

कोहरा-ओ-धुंद और भी लाया है जनवरी

शादाब ना शजर हों तो क्या लुत्फ़-ए-ज़िन्दगी

तुझको सितम…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on January 7, 2020 at 11:41am — 6 Comments

स्वप्न-मिलन

स्वप्न-मिलन

रात ... कल रात

कटने-पिटने के बावजूद

बड़ी देर तक उपस्थित रही

नींद के धुँधलके एकान्त में

पिघलते मोम-सा

कोई परिचित सलोना सपना बना…

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Added by vijay nikore on January 7, 2020 at 6:30am — 8 Comments

माग रहे हैं तोड़ के घर को -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



छोड़ गये थे केवट जिन को तूफानी मझधारों पर

साहिल वालो उनसे पूछो क्या बीती दुखियारों पर।१।



हम  जैसों  की  मजबूरी  थी  हालातों  के  मारे थे

कहने वाले खुदा स्वयम् को नाचे खूब इशारों पर।२।



आग जलाकर मजहब की नित सबने जो तैयार किये

सच  में  हर  पल  देश  हमारा  बैठा  उन  अंगारों पर।३।



माग रहे हैं तोड़ के घर को नित…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 5, 2020 at 4:55am — 10 Comments

अहसास की ग़ज़ल -मनोज अहसास

12122×4

समझ नहीं आ रही है हमको ज़माने वाले तेरी पहेली,

शिकन से माथा भी भर दिया है लकीरों से जब भरी हथेली.

उदास बच्चे ने माँ के आंचल से अपनी आंखों को ढक लिया है,

गुज़र ही जाएगी रात काली जो चांद तारों की ओट लेली.



इक ऐसा गम है मैं जिससे यारों नजर चुरा के ही जी रहा हूँ,

ज़रा सा उसके करीब जाऊं बिखरने लगती है जां अकेली.

अजब है दुनिया का ये बगीचा ,अजब है इसका हठीला माली

तमाम…

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Added by मनोज अहसास on January 5, 2020 at 1:53am — No Comments

गीत

बात बर्फ सी जमी हुई है, शब्दों में है लेकिन आग ।

देखो चमन न बँटने पाये, निकले हैं जहरीले नाग ।।

                                 

                             

बाढ़ आ गई आगजनी की,तोड़-फोड़ होती अविराम ।

भाईचारा है सूली पर, लोकतंत्र के चक्के जाम ।।

राष्ट्र संपदा की बलि देकर, दुश्मन खेल रहा है फाग ।

देखो चमन न बँटने पाये , निकले हैं जहरीले नाग ।।

                             

हिंसा भीड़ तमाशे का जो,…

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Added by Anamika singh Ana on January 4, 2020 at 3:30pm — 5 Comments

त्रिशंकु (लघुकथा)

त्रिवेदी जी अपने समय के ख्याति प्राप्त व्यापारी, समाज सेवक, राज नेता, मंत्री और ना जाने किस किस पद को शोभायमान कर चुके थे।

आज वृद्धावस्था के कारण जर्जर शरीर को लेकर  अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में मरणासन्न स्थिति में पड़े थे। दवाओं का शरीर पर कोई अनुकूल प्रभाव नहीं हो रहा था। लेकिन अस्पताल वाले अति आशावादी  होने का नाटक कर रहे थे। वहाँ के डॉक्टरों का दावा था कि वे पूर्व में मृत प्रायः लोगों में भी जान डाल चुके हैं| वे इतनी मोटी मुर्गी को तबियत से हलाल करना चाहते थे।यमदूत बार बार आकर…

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Added by TEJ VEER SINGH on January 4, 2020 at 11:00am — 8 Comments

पधार गए हो नए साल जो

पधार गए हो नए साल जो

खुश रहो औ ख़ुश रहने दो

आओ जीमो मौज मनाओ

जो जमा हुआ वो बहने दो

पथ भी रहें पंथी भी रहें

राहें भी दुश्वार न हों

सुरों मे गीत रहें न रहें…

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Added by amita tiwari on January 4, 2020 at 4:00am — 4 Comments

अहसास की ग़ज़ल -मनोज अहसास

1222   1222   1222   1222

हमारे सारे मिसरे मुख्तलिफ अर्थों में लिपटे हैं,

तुझे अब याद भी करते हैं तो डर कर ही करते हैं.

बहुत मुमकिन है इसमें फिर तुम्हारा ज़िक्र आ जाए,

नज़र में आज लेकिन दर्द सब दुनिया जहां के हैं.

जरा सा ध्यान से आ जाते हैं छोटे से मिसरे में,

मुहब्बत के सभी अफसाने रेशम के दुपट्टे हैं.

कई खुदगर्ज मछुआरों ने कब्जा कर लिया उस पर,

वह दरिया जिसमें अपनी नेकियां हम डाल आते हैं.

जहाँ से…

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Added by मनोज अहसास on January 4, 2020 at 12:30am — 4 Comments

भारत दर्शन (प्रथम कड़ी) मत्त गयंद छंद

जन्म लिया जिस देश धरा पर वो हमको लगता अति प्यारा

वैर न आपस में रखते वसुधैव कुटुम्ब लगे जग सारा

पूजन कीर्तन साथ जहाँ सम मन्दिर मस्जिद या गुरुद्वारा

लोग निरोग रहे जग में नित पावन सा इक ध्येय हमारा।।1

पूरब में जिसके नित बारिश, हो हर दृश्य मनोरम वाला

लेकर व्योम चले रथ को रवि वो अरुणाचल राज्य निराला

गूढ़ रहस्य अनन्त छिपा पहने उर पादप औषधि माला

जो मकरन्द बहे घन पुष्पित कानन को कर दे मधुशाला।।2

उत्तर में जिसके प्रहरी सम पर्वत राज हिमालय…

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Added by नाथ सोनांचली on January 3, 2020 at 5:00pm — 9 Comments

"तुम्हारे लिए"

तुम यूँ ही बीच राह में

रोज़ तरूवर क़ी छाँव में

मुझे यूँ ही रोक लेते हो 

और मैं भी रुक जाती हूँ

क्यों कि मैं भी रहती हूँ अधीर

तुमसे मिलकर बातें करने को!

 

तुम्हारा यूँ एकटक निहारना

मेरे दिल को भाता है बहोत*

मैं भी देखने लगती हूँ तुम्हें

सीधी कभी तिरछी नज़रों से

तुम मुस्कुरा देते हो शरारत से

मैं शर्माकर कुरेदती हूँ ज़मीन  

 

पर ये सब भी कब तलक

जब ये कुहासा नहीं होगा

बढ़…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 3, 2020 at 12:43pm — 2 Comments

रखकर वतन को आपने काँटों की सेज पर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

२२१/२१२१/२२२/१२१२



मिट्टी को जिसने देश की चन्दन बना लिया

जीवन को उसने हर तरह पावन बना लिया।१।



करते नमन हैं  उस को  नित छोटा भले सही

जिसने भी अपना सन्त सा यौवन बना लिया।२।



कहते  हैं  राह रच  के  ही  रहजन  हुए  मगर

अब तो वही है जिसने पथ भटकन बना लिया।३।



साधन हो साध्य से अधिक पावन ये रीत थी

पर अब फरेब  झूठ  को  साधन बना लिया।४।



जो उम्र पढ़ने लिखने की पत्थर हैं हाथ में

कैसा सुलगता देश का बचपन बना…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 3, 2020 at 6:32am — 4 Comments

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