ग़ज़ल- 8 + 8 + 8 (रोला मात्रिक)
किस सागर में जान मिलेगी धार समय की
कौन पकड़ पाया जग में रफ़्तार समय की
मोल समय का उससे जाकर पूछो माधो
नासमझी में जिसने झेली मार समय की
जीवन नैया पार हुई बस उस केवट से
कसकर थामी जिसने भी पतवार समय की
आलस छोड़ो साहस धारो कर्म करो तुम
उठ जाओ अब सुनकर तुम फटकार समय की
कद्र तुम्हारी ये संसार करेगा उस दिन
कद्र करोगे जिस दिन बरखुर्दार…
ContinueAdded by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 3:30pm — 19 Comments
अतुकान्त कविता : पगली
विवाहिता या परित्यक्तता
अबला या सबला
नही पता .......
पता है तो बस इतना कि
वो एक नारी है ।
साथ में लिए थे फेरे
फेरों के साथ
वचन निभाने के वादे
किन्तु .......
उन्हे निभाना है राष्ट्र धर्म
और इसे ……
नारी धर्म
पगली !!
उनकी सफलता के लिए
व्रत, उपवास, मनौती
मंदिरों के चौखटों पर
पटकती माथा
और खुश हो…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 26, 2014 at 10:30am — 48 Comments
मेरे पास,
थोडे से बीज हैं
जिन्हे मै छींट आता हूं,
कई कई जगहों पे
जैसे,
इन पत्थरों पे,
जहां जानता हूं
कोई बीज न अंकुआयेगा
फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज
इस उम्मीद से, शायद
इन पत्थरों की दरारों से
नमी और मिटटी लेकर
कभी तो कोई बीज अंकुआएगा
और बनजायेगा बटबृक्ष
इन पत्थरों के बीच
कुछ बीज छींट आया हूं
उस धरती पे,
जहां काई किसान हल नही चलाता
और अंकुआए पौधों को
बिजूका गाड़ कर
परिंदो से…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 20, 2014 at 3:00pm — 14 Comments
बंद खिडकियों से
झांकता
प्रकाश
चारो ओर स्याह-स्याह
मुट्ठी भर
उजास
टूटी हुयी
गर्दन लिए
बल्ब रहे झाँक
ट्यूब लाईट
अपना महत्त्व
रहे आंक
सर्र से
गुजर जाते
चौपहिया वाहन
सन्नाटा
विस्तार में
करता अवगाहन
तारकोली
सड़क सूनी
रिक्त चौराहे
सर्पीली…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2014 at 12:00pm — 8 Comments
परिमूढ़ प्रस्ताव
अखबारों में विलुप्त तहों में दबी पड़ी
पुरानी अप्रभावी खबरों-सी बासी हुई
ज़िन्दगी
पन्ने नहीं पलटती
हाशियों के बीच
आशंकित, आतंकित, विरक्त
साँसें
जीने से कतराती
सो नहीं पातीं
हर दूसरी साँस में जाने कितने
निष्प्राण निर्विवेक प्रस्तावों को तोलते
तोड़ते-मोड़ते
मुरझाए फूल-सा मुँह लटकाए
ज़िन्दगी...
निरर्थक बेवक्त
उथल-पुथल में लटक…
ContinueAdded by vijay nikore on November 24, 2014 at 8:30am — 22 Comments
Added by Poonam Shukla on November 24, 2014 at 2:00pm — 17 Comments
2122 12 12 22
बदला बदला सा घर नज़र आया।
जब कभी मैं कही से घर आया।
बस तुझे देखती रही आँखें।
हर तरफ तू ही तू नज़र आया।
छोड़ कर कश्तियाँ किनारे पर।
बीच दरिया में डूब कर आया।
यूँ हज़ारो हैं ऐब तुझमे भी।
याद मुझको तेरा हुनर आया।
नींद गहरी हुई फिर आज "कमाल"।
ख्वाब उसका ही रात भर आया।
मौलिक एवम अप्रकाशित
केतन "कमाल"
Added by Ketan Kamaal on November 24, 2014 at 5:15pm — 21 Comments
Added by ram shiromani pathak on November 27, 2014 at 8:55pm — 15 Comments
२११२ २१२२ १२२१ २२१२ २२
लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता
आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता
जह्र फैलाते हुए उम्र गुजरी भले बाद में उनकी
मैय्यत उठाने कोई यारों का कारवाँ तक नहीं होता
आज यहाँ की बदल गई आबो हवा देखिये कितनी
वृद्ध की माफ़िक झुका वो शजर जो जवाँ तक नहीं होता
मूक हैं लाचार हैं जानवर हैं यही जिंदगी इनकी
ढो रहे हैं बोझ पर दर्द इनका बयाँ तक नहीं होता
ख़्वाब सजाते…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 30, 2014 at 7:05pm — 23 Comments
किसी की सरफ़रोशी चीखती है
वतन की आज मिट्टी चीखती है
हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीखती है
हुकूमत कब तलक ग़ाफिल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीखती है
भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीखती है
बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आंगन में तितली चीखती है
गरीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीखती है
महज़ अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीखती…
Added by Samir Parimal on October 21, 2014 at 4:30pm — 13 Comments
२१२२ १२१२ २२
इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"
घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर
हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ?
गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?
अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !
मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !
अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?
चुप न…
Added by Saurabh Pandey on October 25, 2014 at 12:00pm — 40 Comments
कर दिया आम मिरे इश्क़ का चर्चा देखो
देखो ज़ालिम कि मुहब्बत का तरीक़ा देखो
याद करना कि मिरे दर्द कि शिद्दत क्या थी
खुद को ज़र्रों में कभी तुम जो बिखरता देखो
खूं तमन्ना का मुसलसल यहाँ बहता है अब
मेरी आँखों में है इक दर्द का दरिया देखो
यूँ सुना है कि वो नादिम है जफ़ा पे अपनी
उसके चेहरे पे जफाओं का पसीना देखो
अपने हाथों से सजाके में करूँगा रुखसत
कर लिया है मेने पत्थर का कलेजा देखो
ये हिना सुर्ख ज़रा…
ContinueAdded by Ayub Khan "BismiL" on October 23, 2014 at 3:00pm — 7 Comments
"अरे, बड़ा अजीब सा नाम लगा इस बंगले का, आस्तीन भी कोई नाम है !" शहर में नए आये व्यक्ति ने दोस्त से पूछा !
"जी, ये बंगला जिन्होंने बनवाया वो अब वृद्धाश्रम में रहते हैं !"
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by Neeles Sharma on October 16, 2014 at 7:00pm — 13 Comments
दीपक जलाओ
मैं जीवन रंगोली-रंगोली सजा लूँ
....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ
माटी बनूँ ! रूँध लो, गूँथ लो तुम
युति चाक मढ़ दो, नवल रूप दो तुम
स्वर्णिम अगन से
जले प्राण बाती-
मैं स्वप्निल सितारे लिये जगमगा लूँ
....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ
ओढूँ विभा सप्तरंगी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 19, 2014 at 12:00pm — 12 Comments
मैं गीतों को भी अब ग़ज़ल लिख रहा हूँ
हरेक फूल को मैं कँवल लिख रहा हूँ
कभी आज पर ही यकीं था मुझे भी
मगर आज को अब मैं कल लिख रहा हूँ
बहुत कीमती हैं ये आँसू तुम्हारे
तभी आँसुओं को मैं जल लिख रहा हूँ
लिखा है बहुत ही कठिन ज़िंदगी ने
तभी आजकल मैं सरल लिख रहा हूँ
समय चल रहा है मैं तन्हा खड़ा हूँ
सदियाँ गँवाकर मैं पल लिख रहा हूँ
मैं बदला हूँ इतना कि अब हर जगह पर
तू भी तो थोड़ा बदल लिख रहा हूँ
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Dr. Rakesh Joshi on October 19, 2014 at 5:30pm — 6 Comments
२१२२ २१२२ २1२२
जब भी सागर बनने इक दरिया चला है
पत्थरों को राह के हरदम खला है
जूझते दरिया पे जो कसते थे ताने
आज जलवे देख हाथों को मला है
यूं नहीं बढ़ता है कोई जिन्दगी में
बढ़ने वाला रात दिन हरदम चला है
अपने ही हाथों से रोका था हवा को
तब कहीं ये दीप आंधी में जला है
दोस्तों जिस को गले हमने लगाया
बस रहा अफ़सोस उसने ही छला है
मौलिक व…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2014 at 4:00pm — 14 Comments
आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन
****************************************
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
आदमी में जानवर भी जी रहा है फ़ित्रतन
आदमी में आदमी को देखना है इक चलन
साजिशें रचतीं रहीं हैं चुपके चुपके बदलियाँ
सूर्य को ढकना कभी मुमकिन हुआ क्या दफअतन ?
पर ज़रा तो खोलने का वक़्त दे, ऐ वक़्त तू
फिर मेरी परवाज़ होगी और ये नीला गगन
बाज, चुहिया खा …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 4:30pm — 28 Comments
मौत का सघन साया
अनुभूति बनकर आया
मेरे अंतिम क्षणों में I
*
यह आत्मीयता प्रदर्शन
करुणा का कलित क्रंदन
चीत्कार आर्त्त रोदन
या नाट्य अभिनय मंचन
.
इसे देख जी में आया
छोडूं न अभी काया
मेरे अंतिम क्षणों में I
*
सर्वांग व्यथित परिजन
सूने उदास से मन
इतना असीम कम्पन
तब था न जब था जीवन
.
यह मोह है या माया
कुछ कुछ समझ में आया
मेरे अंतिम क्षणों में…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 10, 2014 at 1:30pm — 23 Comments
आसमानी फ़ासले
बच्चों-सा स्वप्निल स्वाभाविक संवाद
हमारी बातों में मिठास की आभाएँ
ताज़े फूलों की खुशबू-सी निखरती
सुखद अनुभवों की छवियाँ ...
हो चुकीं इतिहास
समय-असमय अब अप्रभाषित
शून्य-सा मुझको लघु-अल्प बनाती
अस्तित्व को अनस्तित्व करती
निज अहं को आदतन संवारती
आलोचनाशील असंवेदनशीलता तुम्हारी
अब बातें हमारी टूटी कटी-कटी ...
बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार
मानवीय…
ContinueAdded by vijay nikore on September 7, 2014 at 2:00pm — 21 Comments
हैं अनेकों धर्म भाषा, ...एक हिंदुस्तान है l
मातृभाषा हिन्द की, हिंदी हमारी जान है ll
--
देश की संस्कृति रिवाजों पर हमें भी गर्व हो l
भारती की शान हिंदी, . विश्व में पहचान है ll
--
नृत्य शंभू ने किया, डमरू बजा, ॐ नाद का l
देववाणी के सृजन से ..विश्व का कल्यान है ll
--
पाणिनी ने दी व्यवस्था व्याकरण की विश्व को l
हम सनातन छंद रचते ...गीत लय मय गान है ll
--
सूर तुलसी जायसी, ......भूषण कवि केशव हुए l
चंद मीरा पन्त दिनकर, काव्य मय…
Added by harivallabh sharma on September 2, 2014 at 4:00pm — 12 Comments
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