अचानक एक दिन
हुई उसके बचपन की हत्या
विवाह की वेदी ने दिया
एक नया घर-आँगन
एक नया रोल
एक नया अभिनय
एक नया डर...
अचानक एक दिन
ख़त्म हुई नादानियां
दफन हुईं लापरवाहियां
स्याह हुए स्वप्न
भोथरा गईं कल्पनाएँ....
अचानक एक दिन
उठाना पडा भारी-भरकम
संस्कारों का पिटारा
जिम्मेदारियों का बोझ
मानसिक-शारीरिक तब्दीलियाँ
और शिथिल हुए स्नायु-तंत्र...
दीखता नही दूर-दूर तक
इस मायाजाल से…
Added by anwar suhail on January 6, 2014 at 11:40pm — 7 Comments
खुश हो जाते हैं वे
पाकर इत्ती सी खिचड़ी
तीन-चार घंटे भले ही
इसके लिए खडा रहना पड़े पंक्तिबद्ध ...
खुश हो जाते हैं वे
पाकर एक कमीज़ नई
जिसे पहनने का मौका उन्हें
मिलता कभी-कभी ही है
खुश हो जाते हैं वे
पाकर प्लास्टिक की चप्पलें
जिसे कीचड या नाला पार करते समय
बड़े जतन से उतारकर रखते बाजू में दबा...
ऐसे ही
एक बण्डल बीडी
खैनी-चून की पुडिया
या कि साहेब की इत्ती सी शाबाशी पाकर
फूले नही समाते…
Added by anwar suhail on January 4, 2014 at 9:33pm — 9 Comments
उन्हें विरासत में मिली है सीख
कि देश एक नक्शा है कागज़ का
चार फोल्ड कर लो
तो रुमाल बन कर जेब में आ जाये
देश का सारा खजाना
उनके बटुवे में है
तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब
इसीलिए वे करते घोषणाएं
कि हमने तुम पर
उन लोगों के ज़रिये
खूब लुटाये पैसे
मुठ्ठियाँ भर-भर के
विडम्बना ये कि अविवेकी हम
पहचान नही पाए असली दाता को
उन्हें नाज़ है कि
त्याग और बलिदान का
सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित…
Added by anwar suhail on December 10, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
सब कुछ वैसा ही हो जाये
जैसा हमने चाहा था
जैसा हमने सोचा था
जैसा सपना देखा था
सब कुछ वैसा ही हो जाये
लेकिन वैसा कब होता है
कुछ पाते हैं, कुछ खोता है
ठगा-ठगा निर्धन रोता है
थका-हारा, भूखा सोता है
तुम हम सबको बहलाते हो
नाहक सपने दिखलाते हो
अपने पीछे दौडाते हो
गुर्राते हो, धमकाते हो
और हमारे गिरवी दिल में
बात यही भरते रहते हो
सब कुछ वैसा हो जायेगा
जैसा हम सोचा करते हैं
जैसा हम…
Added by anwar suhail on December 8, 2013 at 9:00pm — 5 Comments
बताया जा रहा हमें
समझाया जा रहा हमें
कि हम हैं कितने महत्वपूर्ण
लोकतंत्र के इस महा-पर्व में
कितनी महती भूमिका है हमारी
ई वी एम के पटल पर
हमारी एक ऊँगली के
ज़रा से दबाव से
बदल सकती है उनकी किस्मत
कि हमें ही लिखनी है
किस्मत उनकी
इसका मतलब
हम भगवान् हो…
ContinueAdded by anwar suhail on November 13, 2013 at 8:00pm — 10 Comments
उन अधखुली
ख्वाबीदा आँखों ने
बेशुमार सपने बुने
सूखी भुरभरी रेत के
घरौंदे बनाए
चांदनी के रेशों से
परदे टाँगे
सूरज की सेंक से
पकाई रोटियाँ
आँखें खोल उसने
कभी देखना न चाहा
उसकी लोलुपता
उसकी ऐठन
उसकी भूख
शायद
वो चाहती नही थी
ख्वाब में मिलावट
उसे तसल्ली है
कि उसने ख्वाब तो पूरी
इमानदारी से देखा
बेशक
वो ख्वाब में डूबने के दिन थे
उसे ख़ुशी है
कि उन…
Added by anwar suhail on November 7, 2013 at 9:30pm — 8 Comments
वो मुझे याद करता है
वो मेरी सलामती की
दिन-रात दुआएं करता है
बिना कुछ पाने की लालसा पाले
वो सिर्फ सिर्फ देना ही जानता है
उसे खोने में सुकून मिलता है
और हद ये कि वो कोई फ़रिश्ता नही
बल्कि एक इंसान है
हसरतों, चाहतों, उम्मीदों से भरपूर...
उसे मालूम है मैंने
बसा ली है एक अलग दुनिया
उसके बगैर जीने की मैंने
सीख ली है कला...
वो मुझमें घुला-मिला है इतना
कि उसका उजला रंग और…
ContinueAdded by anwar suhail on November 4, 2013 at 7:36pm — 6 Comments
तुमसे इश्क में भीगी बातें करनी थीं
लेकिन किसान का मायूस चेहरा
आता रहा बार-बार सामने
तुम्हारी घनी जुल्फों के साए में छुपना था
कि कार्तिक मास में
असमय छाये काले पनीले
मनहूस बादलों ने ग़मगीन किया मुझे
तुम्हारी खनकती हंसी सुननी थी
कि किसानो के आर्तनाद ने रोक लिया
तुम्हे मालूम है
कि…
Added by anwar suhail on October 28, 2013 at 7:29pm — 7 Comments
आकाश में छाये काले बादल
किसान के साथ-साथ
अब मुझे भी डराने लगे हैं...
ये काले बादलों का वक्त नही है
ये तेज़ धुप और गुलाबी हवाओं का समय है
कि खलिहान में आकर बालियों से धान अलग हो जाए
कि धान के दाने घर में पारा-पारी पहुँचने लगें
कि घर में समृद्धि के लक्षण दिखें
कि दीपावली में लक्ष्मी का स्वागत हो…
Added by anwar suhail on October 27, 2013 at 8:02pm — 2 Comments
छोड़ता नही मौका
उसे बेइज्ज़त करने का कोई
पहली डाले गए डोरे
उसे मान कर तितली
फिर फेंका गया जाल
उसे मान कर मछली
छींटा गया दाना
उसे मान कर चिड़िया
सदियों से विद्वानों ने
मनन कर बनाया था सूत्र
"स्त्री चरित्रं...पुरुषस्य भाग्यम..."
इसीलिए उसने खिसिया कर
सार्वजनिक रूप से
उछाला उसके चरित्र पर कीचड...…
Added by anwar suhail on October 26, 2013 at 8:30pm — 10 Comments
बड़े जतन से संजोई किताबें
हार्ड बाउंड किताबें
पेपरबैक किताबें
डिमाई और क्राउन साइज़ किताबे
मोटी किताबें, पतली किताबें
क्रम से रखी नामी पत्रिकाओं के अंक
घर में उपेक्षित हो रही हैं अब...
इन किताबों को कोई पलटना नही चाहता
खोजता हूँ कसबे में पुस्तकालय की संभावनाएं
समाज के कर्णधारों को बताता हूँ
स्वस्थ समाज के निर्माण में
पुस्तकालय की भूमिका के बारे में...
कि किताबें इंसान को अलग करती हैं हैवान से
कि मेरे पास रखी इन…
Added by anwar suhail on October 17, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
आजकल अक्सर
टीसती रहती हैं
माथे पर उभर आई नसें
मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें
चेहरे पर बरसती रहती है फटकार
पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ
खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें
दिमाग में ख्यालों का अकाल
दिल में कल्पनाओं के टोटे...
सब तरफ एक सन्नाटा...
कोई आहट...न कोई…
Added by anwar suhail on October 14, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
जुग की मांग
समय की डिमांड
बात मेरी मान
बन जाएँ थेथर श्रीमान....
सलीकेदार लोगों को
जीने नही देगा समाज
भले से अच्छा था विगत
लेकिन बहुत क्रूर है आज
जीने की ये कला
जिसे सीखने में सबका भला
वरना रह जाओगे तरसते
आपका हिस्सा ये थेथर
झटक लेंगे हँसते-हस्ते...
हम जिस समय में जी रहे हैं
उसमे बदतमीज़,…
Added by anwar suhail on October 8, 2013 at 10:05pm — 8 Comments
दर्द रह-रह के बढ़ता है
और दिल डूबा जाता है
नब्ज़ थम-थम के चलती है
दिल ज़ोरों से धड़कता है
बीमारी बढती जाती है
फ़िक्र है खाए जाती है
सलाहें खूब मिलती हैं
दवाएं बदलती जाती हैं
दुआएं काम नही आतीं
करें क्या ऐसे में हमदम
कहाँ से चारागर पायें
मत्था किस दर पर टेंकें
कहाँ से तावीजें लायें
तुम्हे मालुम है फिर भी
छुपा कर रक्खे हो नुस्खे
न लो अब और इम्तेहाँ
चले आओ जहां हो तुम
तुम्हारे आते ही हमदम …
Added by anwar suhail on October 5, 2013 at 9:30pm — 12 Comments
हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न !
इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के…
Added by anwar suhail on October 4, 2013 at 8:00pm — 9 Comments
मैं कैसे बताऊँ बिटिया
हमारे ज़माने में माँ कैसी होती थी
तब अब्बू किसी तानाशाह के ओहदे पर बैठते थे
तब अब्बू के नाम से कांपते थे बच्चे
और माएं बारहा अब्बू की मार-डांट से हमें बचाती थीं
हमारी छोटी-मोटी गलतियां अब्बू से छिपा लेती थीं
हमारे बचपन की सबसे सुरक्षित दोस्त हुआ करती थीं माँ
हमारी राजदार हुआ करती थीं वो
इधर-उधर से बचाकर रखती थीं पैसे
और गुपचुप देती थी पैसे सिनेमा, सर्कस के लिए
अब्बू से हम सीधे कोई…
ContinueAdded by anwar suhail on September 29, 2013 at 9:30pm — 5 Comments
एक धमाका
फिर कई धमाके
भय और भगदड़....
इंसानी जिस्मों के बिखरे चीथड़े
टीवी चैनलों के ओबी वैन
संवाददाता, कैमरे, लाइव अपडेट्स
मंत्रियों के बयान
कायराना हरकत की निंदा
मृतकों और घायलों के लिए अनुदान की घोषणाएं
इस बीच किसी आतंकवादी संगठन द्वारा
धमाके में लिप्त होने की स्वीकारोक्ति
पाक के नापाक साजिशों का ब्यौरा
सीसीटीवी कैमरे की जांच
मीडिया में हल्ला, हंगामा, बहसें
गृहमंत्री, प्रधानमन्त्री से स्तीफे…
Added by anwar suhail on September 28, 2013 at 8:00pm — 6 Comments
ये क्या हो रहा है
ये क्यों हो रहा है
नकली चीज़ें बिक रही हैं
नकली लोग पूजे जा रहे हैं...
नकली सवाल खड़े हो रहे हैं
नकली जवाब तलाशे जा रहे हैं
नकली समस्याएं जगह पा रही हैं
नकली आन्दोलन हो रहे हैं
अरे कोई तो आओ...
आओ आगे बढ़कर
मेरे यार को समझाओ
उसे आवाज़ देकर बुलाओ...
वो मायूस है
इस क्रूर समय में
वो गमज़दा है निर्मम संसार में...
कोई नही आता भाई..
तो मेरी आवाज़ ही सुन लो
लौट आओ
यहाँ दुःख बाटने की परंपरा…
Added by anwar suhail on September 25, 2013 at 7:30pm — 7 Comments
इससे पहले कभी
कहा नही जाता था
तो बम के साथ हम
फट जाते थे कहीं भी
और उड़ा देते थे चीथड़े
इंसानी जिस्मों के...
अब कहा जा रहा है
मारे न जायें अपने आदमी
सो पूछ-पूछ कर
जवाब से मुतमइन होकर
मार रहे हैं हम...
बस समस्या भाषा की है
उन्हें समझ में नही आती
हमारी भाषा
हमें समझ में नही आती
उनकी बोली
हेल्लो हेल्लो
क्या करें हुज़ूर..
एक तरफ आपका फरमान
दूजे टारगेट की…
ContinueAdded by anwar suhail on September 24, 2013 at 6:30pm — 7 Comments
ऐसा नही है
कि रहता है वहाँ घुप्प अन्धेरा
ऐसा नही है
कि वहां सरसराते हैं सर्प
ऐसा नही है
कि वहाँ तेज़ धारदार कांटे ही कांटे हैं
ऐसा नही है
कि बजबजाते हैं कीड़े-मकोड़े
ऐसा भी नही है
कि मौत के खौफ का बसेरा है
फिर क्यों
वहाँ जाने से डरते हैं हम
फिर क्यों
वहाँ की बातें भी हम नहीं करना चाहते
फिर क्यों
अपने लोगों को
बचाने की जुगत लागाते हैं हम
फिर क्यों
उस आतंक को घूँट-घूँट पीते हैं…
Added by anwar suhail on September 20, 2013 at 7:00pm — 7 Comments
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