ये नज़र किससे मेरी टकरा गई
पल में दिल को बारहा धडका गई
एक टक उसको लगे हम ताकने
शर्म थी आँखों में हमको भा गई
लब गुलाबों से बदन था संदली
खुशबू जिसकी दिल जिगर महका गई
कैद है या खूबसूरत ख्वाब-गाह
गेसुओं में इस कदर उलझा गई
पग जहाँ उसने रखे थे उस जगह
जर्रे जर्रे पे जवानी आ गई
“दीप” जो बुझने लगा था इश्क का
मुस्कुरा के उसको वो भड़का गई
संदीप पटेल…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on October 1, 2013 at 1:30pm — 14 Comments
कहकशाँ में उठ रही लहरों की बातें क्या करें
इस गुबारे-गर्द में सहरों की बातें क्या करें
हर कोई पहने मुखौटे फिर रहा है जब यहाँ
फिर बताओ हम भला चेहरों की बातें क्या करें
इस कदर मसरूफ हैं पाने को नाम औ शोहरतें
वक़्त इक पल का नहीं पहरों की बातें क्या करें
तुक मिलाने को समझ बैठा जो शाइर शाईरी
नासमझ से वजन औ बहरों की बातें क्या करें
नफरतें हैं वहशतें हैं दहशतें हैं राह में
हर घडी है गमजदा कहरों की…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on September 27, 2013 at 4:30pm — 28 Comments
शोहरतें पाने मचलता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये
हसरतों पे जीता मरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये
यूँ किसी की याद में जलने का मौसम गम भरा
फिर उसी को याद करता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये
चोट खाता है मुसलसल जिन्दगी की राह में
तब सनम जैसे सँवरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये
आईने से रू-ब-रू होने की हिम्मत है नहीं
हार के फिर आह भरता नादाँ दिल क्यूँ सोचिये
इल्म है उसको गली ये…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on September 24, 2013 at 4:39pm — 22 Comments
शर्म से हम आँख मीचे क्यूँ रहें
दौड़ है सोहरत की पीछे क्यूँ रहें
तब हुए पैदा जमीं पे अब मगर
हौसलों के पर हैं नीचे क्यूँ रहें
सच का लज्जत चख चुके हैं हम यहाँ
फिर बता दो हम भी तीखे क्यूँ रहें
जानते हैं फल में कीड़े कब लगे
इस कदर फिर हम भी मीठे क्यूँ रहें
जिन लकीरों ने कराई जंग है
“दीप” अब तक उनको खींचे क्यूँ रहें
संदीप कुमार पटेल “दीप”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 22, 2013 at 8:13pm — 32 Comments
सोये वीरों को जगाना चाहते हैं इसलिए
वीर रस के गीत गाना चाहते हैं इसलिए
माँ बहन बेटी की इज्ज़त से न खेले अब कोई
इक कड़ा कानून लाना चाहते हैं इसलिए
मर न जाए कोई भी आदम दवा बिन भूख से
हम गरीबी को हटाना चाहते हैं इसलिए
हम विरोधी पश्चिमी तहजीब के हरदम रहे
संस्कृति अपनी बचाना चाहते हैं इसलिए
रक्त की नदियाँ बहें ना देश में दंगों से अब
रक्त में अब हम नहाना चाहते हैं इसलिए
राह में…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on September 6, 2013 at 5:26pm — 20 Comments
की बोर्ड से चिपका
स्क्रीन की सुंदरता से मुग्ध
हर सवाल का जबाब
चेट्टिंग से चेट्टिंग तक
मोबाइल से चीटिंग करते
झूठ से भरमाते
फिर भी मुस्कुराते
आँखें कान नाक
सब अंधे
जिनसे हमेशा
रिसता है
ज़हरीला
फरेब
ऐसे रिश्ते
प्रेम की पराकाष्ठा है
आज का प्रेम
संदीप पटेल "दीप"
मौलिक व अप्रकाशित
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 17, 2013 at 3:09pm — 9 Comments
देश में कैसा बदलाव अब हो गया
नंगपन है रईसी ग़ज़ब हो गया
जबसे इंग्लिश मदरसे खुले, बाप और
माँ को आँखें दिखाना अदब हो गया
हाथ जोड़े थे जिसने कभी वोट को
आज कुर्सी पे बैठा तो रब हो गया
अब गधों की फ़तह, मात घोड़ों की हो
दौर दस्तूर कैसा अजब हो गया
हर्फ के कुछ उजाले लुटा प्यार से
"दीप" खुर्शीद सा जाने कब हो गया
संदीप पटेल "दीप"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 16, 2013 at 4:01pm — 8 Comments
मिली हैं करवटें औ याद सहर से पहले
पिए हैं इश्क़ के प्याले जो जहर से पहले
जो दिल के खंडहर में अब बहें खारे झरने
यहाँ पे इश्क की बस्ती थी कहर से पहले
ग़ज़ब हैं लोग खुश हैं देख यहाँ का पानी
नदी बहती थी जहाँ एक नहर से पहले
कहाँ उलझा हुआ है गाफ़ अलिफ में अब तक
रदीफ़ो काफिया संभाल बहर से पहले
नहीं आसां है उजालों का सफ़र भी इतना
जले है दीप सारी रात सहर से पहले
संदीप पटेल "दीप"…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 16, 2013 at 2:30pm — 6 Comments
ये भोर
काली रात के बाद
अब भी सिसकती है
यादों के ताजे निशाँ
सूखे ज़ख़्मों को
एक टक ताकती
उसे नहीं पता
आने वाली शाम और
रात कैसी होगी
पता है तो बस
बीता हुआ कल
वो बीता हुआ कल
जो निकला था
उसकी कसी हुई मुठ्ठी से
रेत की तरह
देखते देखते
रेत की तरह
भरी दोपहर में
तपते रेगिस्तान में
ज्यों छलती है रेत
मृग मारीचिका की तरह
मृग मारीचिका
जिससे भान होता है
पानी का
हाँ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2013 at 1:54pm — 9 Comments
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
बहे विशाल वृक्ष जो थे उंघते खड़े खड़े
बड़ी बड़ी शिलाओं के निशान आज मिट गये
न छत रही न घर रहा मचान आज मिट गये
हुआ प्रलय बड़ा विकट किसान आज मिट गये
सुने किसी की कौन के प्रधान आज मिट गये
पुजारियों के होश भी लगे हमें उड़े उड़े
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
मदद के नाम पे वो अपने कद महज बढ़ा रहे
खबर की सुर्ख़ियों का वो यूँ लुत्फ़ भी उड़ा रहे
वहीं घनेरे मेघ काले छा के फिर चिढ़ा…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2013 at 12:28pm — 9 Comments
भुन्सारे से संझा तक
घूरे की तरह
उदास
चन्दा घिरा है
काले बादलों में
भरी दोपहर में !!!
सारी रोशनी
खाए जा रहा है
पलकों का बह चुका
काला कलूटा काजल
काश तुम बोलते
ये मौन चिरैया की चुप्पी तोड़ते
गुस्सा लेते
कम से कम कारण तो पता चलता
आँखों से और इन अदाओं से
पता चलता है
प्यार और तकरार
प्यास और इंतज़ार
ईमानदार और मक्कार का
तमन्ना का नहीं
अब देखो न …
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 4:00pm — 7 Comments
सुख के झरने देख पराए दुख को लिए निकलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
मर्यादा में घोर निराशा
बाँध तोड़ती अहम पिपाशा
रस्मों और रिवाजों के पुल
लगते हैं बस एक तमाशा
तीव्र वेग से बहती है कब शिव से कहो सम्हलती है
इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है
अंतरमन का दीप बुझाती
प्रतिस्पर्धा को सुलगाती
होड़ लिए आगे बढ़ने की
लक्ष्य रोज ये नये बनाती
सुधा धैर्य की छोड़ विकल चिंता का गरल…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 3:00pm — 13 Comments
भारत की अस्मत लुटने तक क्यूँ सोते हो सत्ताधारी
भाषण में झूठे वादों से
अपने नापाक इरादों से
तुम ख्वाब दिखाके उड़ने के
खुद बैठे हो सैयादों से
बस नोट, सियासी इल्ली बन, तुम बोते हो सत्ताधारी
भारत की अस्मत लुटने तक क्यूँ सोते हो सत्ताधारी
हर ओर मुफलिसी फांके हों
यूँ रोज ही भले धमाके हों
कागज़ पे सुरक्षा अच्छी है
इस पर भी खूब ठहाके हों
पहले तो खेल सजाते हो फिर रोते हो सत्ताधारी
भारत की अस्मत लुटने तक…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 8, 2013 at 3:30pm — 7 Comments
कुछ झोपड़ों को रोंद के जो घर बना रहा
इस दौर में वो सख्स ही मंजिल को पा रहा
जितना नहीं है पास में उतना लुटा रहा
कितना अमीर है ग़मों में मुस्कुरा रहा
अपनी ही गलतियों के हैं कांटे चुभे हमें
वरना सफर तो जिन्दगी का गुलनुमा रहा
कहने का शौक औ जुनूं उसका न पूछिए
बेबह्र भी कही ग़ज़ल वो गुनगुना रहा
शायद शहद झड़े है उसकी बात से यहाँ
इक झुण्ड मक्खियों सा क्यूँ ये भिनभिना रहा
जब मुल्क में…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on July 3, 2013 at 5:46pm — 7 Comments
ग़मों में आपका यूँ मुस्कुराना अच्छा है
हंसी लबों पे रक्खे गम छुपाना अच्छा है
कोई कभी जो पूछे है सबब यूँ हंसने का
छुपा के चश्मेतर तो खिलखिलाना अच्छा है
मुझे तो हर घडी ये गलतियाँ बताता रहा
कोई कहे बुरा चाहे ज़माना अच्छा है
ग़ज़ब हैं खेल ये तकदीर के किसे क्या कहें
खुद अपने आप से ही हार जाना अच्छा है
वो जिसकी चोट से दिल जार जार रोया था
उसी की राह से पत्थर उठाना अच्छा है
महल न…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on July 1, 2013 at 6:17pm — 17 Comments
वेदियों सा तप्त मन अपने लिए
कर रहा सारे हवन अपने लिए
अपनेपन को छोड़ मतलब साधते
दोस्त का होता चयन अपने लिए
मूढ़ मन में मैल ले गंगा नहा
कर रहा है आचमन अपने लिए
तितलियों को हांक कर भंवरे कहें
फूल कलियाँ हैं चमन अपने लिए
देश की है फ़िक्र किस इंसान को
हर कहीं चिंतन मनन अपने लिए
हिंदियों की नाक ऊँची कर रहा
पश्चिमी का ला चलन अपने लिए
आँख दिखलाता है वो माँ बाप को
संस्कृति का कर हनन अपने लिए…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 30, 2013 at 10:30am — 6 Comments
दोहन करते प्रकृति का, बड़े बड़े विद्वान्
चला चला बस योजना, बनते खूब महान
बनते खूब महान , हरे जंगल कटवाते
दूषित कर परिवेश, कारखाने बनवाते
धरा बचाने आज, नहीं आने मनमोहन
अब तो कर दो बंद, लोगो प्रकृति का दोहन
संदीप पटेल “दीप”
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2013 at 5:55pm — 13 Comments
आओ ज़रा शहर निहारें
चमचमाती सड़कों पर
चमचमाती कारें
ऊँचे ऊँचे दीप्ति खंभ
अँधेरे को पीते
बड़े बड़े लट्टू
रग रग में संचरित होता दंभ
सुन्दर बाग़
ये महल अटारी
मशीन भारी भारी
और कुछ बड़ी बीमारी
सब तन रहा है
गाँव गाँव
अब शहर जो बन रहा है
बढ़ रहा है
धीरे धीरे
अटारी पर अटारी
तानी जा रही हैं
जो प्रगति की निशानी
मानी जा रही है
बेशुध हुआ सा आदम
भागा जा रहा है
अरमानों के…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2013 at 1:00pm — 6 Comments
एक अँधेरी गली
सुनसान
वीरान
पथिक व्यथित
हलाकान
न कोई
हलचल
न कोई
आवाज
न साज
पथिक व्यथित
उदास
गहन अँधेरा
कालिमा का बसेरा
ह्रदय के स्पंदन
स्वर में बदल रहे हैं
चीत्कार
स्वयं की
बस स्वयं की
वर्षों सुनसान
गली में
चलते चलते
स्वयं से
परिचर्चा करते करते
कभी थाम लेता था
हाथ
स्वयं का दिलासा…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on June 2, 2013 at 12:00pm — 21 Comments
========ग्रीष्म=========
सूर्य गरजता गगन से, गिरा गर्म अंगार
धधके धूं धूं कर धरा, सूखी सरिता धार
मचले मनु मन मार, मगर मिलता क्या पानी
ठूंठ ठूंठ हर ठौर, ग्रीष्म की गज़ब कहानी
उड़ा उड़ा के धूल, लपट लू आंधी चलती
बंजर होते खेत, आह आँखें है भरती
रिक्त हुए अब कूप भी, ताल गए सब हार
सूर्य गरजता गगन से, गिरा गर्म अंगार
पेड़ पौध परजीव , पथिक पक्षी पशु प्यासे
मृग मरीचिका देख, मचल पड़ते मनु…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on May 31, 2013 at 7:30pm — 19 Comments
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