गौर से देखो रेगिस्तान को
मीलों दूर तक
बिखरा पडा है
अपनी सुन्दरता सँवारे हुये
कितनी सदियों से
आँधी तूफानों से
अनवरत लडा है
कई बार साजिशें हुयीं है
सहरा की धूल को
दूर उडा ले जाने की
इसके अस्तित्व को
हमेशा के लिये
मिटाने की
पानी के लिये
प्यासा ही जी रहा है
पानी ने भी कसर नहीं छोडी है
इसे बहाकर दूर ले जाने में
कई बार गुजरा है
इसके वक्ष स्थल से होकर
मगर रेगिस्तान का
स्वाभिमान तो…
Added by umesh katara on March 19, 2015 at 8:00am — 22 Comments
1222 1222 1222 1222
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जहाँ में वक्त के माफिक हवायें भी बदलती हैं
नजर पर मत भरोसा कर निगाहें भी बदलती हैं
..
बहारों से लगाकर दिल अभी पगला गया है तू
खिजाँ से दोस्ती करले फिजायें भी बदलती हैं
..
लगे जो आज अपना सा पता क्या कब मुकर जाये
नये जब यार मिल जायें , दुआयें भी बदलती हैं
..
कभी चाँदी ,कभी सोना ,कभी नोटों,के बिस्तर पर
मुहब्बत तड-फडाती है ,वफायें भी बदलती हैं…
Added by umesh katara on March 15, 2015 at 9:30am — 16 Comments
मैं तो प्रेम रस से
बादलों की तरह
भरा हुआ
बेचैन था
तुम पर बरसने को
मगर
तुमने पुकारा ही नहीं मुझको
सूखी
प्यासी
व्याकुल
दरकती हुयी जमीन बनकर
मेरा बरस जाना
जरूरी थी
क्योंकि
मैं भरा चुका था
अन्दर से
पूरी तरह
मेरी हदों से बाहर
निकला प्रेम रस
आँखों की कोरों से फूटकर
अश्रुधार बनकर
और बरसता रहा
उम्र भर
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on March 13, 2015 at 7:24am — 19 Comments
1222 1222 1222 1222
तेरी आँखों में डूबा था यही अपराध था मेरा
जरा सी बात पर तूने सजा-ए-मौत लिख डाली--1
ये बिखरी जुल्फ मैं तेरी ,सँवारू हाथ से अपने
मेरे जज्बात पर तूने सजा-ए- मौत लिख डाली--2
सिले हैं होठ क्यों तूने शिकायत की बजह क्या है
मिलन की रात पर तूने सजा-ए-मौत लिख डाली--3
तेरे होठों से होठों को जलाकर देख लेता मैं
मगर हर-बात पर तूने सजा-ए-मौत लिखडाली--4
बडी मुश्किल से गुजरा था खिजाओं से भरा मौसम …
Added by umesh katara on March 10, 2015 at 9:00pm — 14 Comments
जिन्दगी भर खुशी की कमी सी रही
इक परत सी गमों की जमी सी रही
....
ढोल बजते रहे शहर में हर तरफ
पर मेरे आशियाँ में गमी सी रही
....
चाहकर भी न भूला तेरे प्यार को
तू हमेशा ही मुझमें रमी सी रही
....
नींद आती भी आँखों में कैसे भला
आँखों में आसुओं की नमी सी रही
....
कोई दस्तक बजेगी मेरे द्वार पर
सोचकर साँस मेरी थमी सी रही
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on March 9, 2015 at 9:00am — 22 Comments
दुनिया हँसेगी
ये कैसा भय है
मात्र इस भय से
तुम उस रिश्ते पर
पूर्ण विराम लगाना चाहते हो
जिसका जन्म हुआ है
पावन भावनाओं के गर्भ से
क्या हँसी बाँटना पाप है
नहीं !
तो फिर दुनिया के हँसने से
क्या परहेज है तुम्हें
हँसने से
ईश्वर प्रसन्न होता है
आत्मा प्रसन्न होती है
अगर तुम्हारे और मेरे मिलन से
दुनिया हँसती है
तो इससे भली बात क्या होगी
तुम्हारे और मेरे लिये
आओ हम मिल जाते हैं
हमेशा के लिये
और दुनिया को हँसा देते…
Added by umesh katara on March 8, 2015 at 4:08pm — 16 Comments
मेरी बन्द मुट्ठी में
कसमसाता हुआ आसमान
मुझे छोड दो
बाकी आसमान तुम्हारा है
तलवों से ढ़की धरती
मुझे छोड दो
बाकी धरती तुम्हारी है
मेरे माथे की तीनों लकीरें
तुम्हारे झुँझलाते हुये उन प्रश्नों
का उत्तर हैं
जो किये थे तुमने
मेरे हारते समय
बर्षों से बन्द मेरी जुबान
शायद गल चुकी है
अब इसे तनिक भी हिलाया
तो टूट जायेगी
तुम्हारे नाम के सिवाय
इसे कुछ बोलना नहीं था
मगर तुमने इसकी
इजाजत न दी
तो…
Added by umesh katara on March 3, 2015 at 9:00pm — 6 Comments
मैं हिला तक नहीं हूँ
उस जगह से
जहाँ तुमने छोडा था कभी
तुम लौट आये हो
कौनसा रास्ता आया है
लौटकर मुझ तक
खैर ! तुम्हारा कोई दोष नहीं है
तुम्हारे लौट आने में
ये रास्ते ही ऐसे हैं
घूम फिर कर
फिर आ पहुँचते हैं वहीं
जहाँ से चले थे कभी
राह से भटके हुये
ये भटकते हुये रास्ते
तुम लौट ही आये हो
तो कुछ देर आराम करलो
निकल जाना सुबह होते होते
फिर किसी भटकते हुये रास्ते के साथ
रोज कई रास्ते निकलते…
Added by umesh katara on March 1, 2015 at 5:00pm — 23 Comments
मैं एक कवि हूँ
मुझे प्रेम है
पहाडों से
नदी से
सागर में उठती हुयी लहरों से
गिरते हुये झरनों से
सुन्दर सुन्दर फूलों
की महक से
मीठी मीठी
पंछियों की चहक से
मैं एक कवि हूँ
मुझे प्रेम है
बंजड हुये उस पेड से
जिसने कभी छाया दी थी
फल दिये
मुझे प्रेम है
उन तेज नुकीले काँटे से
जिसने खुद को सुखाकर
फूल को खिलाया
मुझे जितना सुख से प्रेम है
उतना ही प्रेम दुख से है
तुम कहती हो
मैं…
Added by umesh katara on February 27, 2015 at 7:30am — 18 Comments
एक स्त्री हो तुम
पत्नि नाम है तुम्हारा
लेकिन कभी कभी
खुद से अधिक
मेरी चिन्ता में डूब जाती हो
तुम्हारा इतना चिन्तित होना
मेरे अन्तर्मन में भ्रम पैदा करता है
कि तुम मेरी अर्धांगिनी होकर
माँ जैसा व्यवहार करती हो
कैसा बिचित्र संयोजन हो तुम
ईश्वर का
जीवन के उस समय में
जब कोई नहीं था सहारे के लिये
दूर दूर तक
तब एक भाई की तरह
मेरे साथ खडे होकर
भाई बन गयी थीं तुम
उस दिन मुझे आश्चर्य हुआ था
कि स्त्री होकर भी…
Added by umesh katara on February 26, 2015 at 10:16am — 17 Comments
तुम्हारा मुझसे मिलना
मिलते ही धूप का ठण्डा हो जाना
ये बडा ही अनौखा विज्ञान था मेरे लिये
जिसे मैं आज तक नहीं समझा हूँ
.
काँटों से भरे रास्तों पर
तुम्हारे साथ साथ दूर तक चले जाना
तलवों में बने काँटों के निशान
एक असीम आनन्द देते थे
ये कैसा विज्ञान था पता नहीं
.
क्या तुम्हें याद है
जब साथ साथ की थी हमने नदी की सैर
छेद हुयी टूटी नौका में बैठकर
और लिया था डूबने का आनन्द
ये कैसे सम्भव हुआ था
इस विज्ञान से भी…
Added by umesh katara on February 24, 2015 at 6:00am — 10 Comments
212 212 212 212
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जिन्दगी थी बहुत ही सुहानी मेरी
मौज मस्ती कभी थी निशानी मेरी
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एक ज़लसा हुआ था मेरे गाँव में
मिल गयी उसमें परियों की रानी मेरी
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सिलसिला चल पडा फिर मुलाकात का
मुझको लगने लगी जिन्दगानी मेरी
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बात अबकी नहीं है मेरे दोस्तो
ये कहानी बहुत ही पुरानी मेरी
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एक साज़िश रची थी रक़ीबों ने फिर
और साज़िश में शामिल दिवानी मेरी
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मैं तो मरने लगा…
Added by umesh katara on February 22, 2015 at 10:30am — 16 Comments
क्या तुम्हें मालूम है
मुझे हरवक्त तुम्हें ,मेरे साथ होने का
अहसास रहता है
कि कहीं दूर से ही तुम मुझे कोई सहारा दे रही हो
मगर अबकी बार तुमसे मिलकर
मेरा वह अहसासों भरा विश्वास टूटता नजर आया
क्या तुम खुदको मुझसे दूर ले जाना चाहती हो
या दूर ले जा चुकी हो
बहुत दूर
मुझे तुम्हारी हर राहे मुकाम पर
जरूरत होगी
उस वक्त एक सूनापन
मेरे चेतन को अवचेतन करेगा
मेरे सोचने की शक्ति क्षीण हो जायेगी
मेरा शरीर सुन्न होने लगेगा
मेरी…
Added by umesh katara on February 14, 2015 at 7:30am — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
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ठसक तेरी मेरी गैरत के आपस में उलझने से
मुहब्बत लुट गयी अपनी दिलों में जह्र पलने से
..........
दगाबाजी से अच्छा तो अलग होना मुनासिब था
बफाओं के बिना क्या है सफर में साथ चलने से
...........
मेरा घर अपने हाथों से कभी मैंने जलाया था
नहीं लगता मुझे अब डर किसी का घर भी जलने से
----------
तू पत्थर है मुझे हरबार चकनाचूर करता है
मैं सीसा हूँ मुझे अफसोस क्या होगा बिखरने…
Added by umesh katara on February 12, 2015 at 10:48am — 16 Comments
तेरी बेव़फाई मेरी बेव़फाई
कहानी समझ में अभी तक न आई
..........
मेरे इश्क़ में तू उधर ज़ल रहा है
इधर मैंने ज़ल कर मुहब्बत निभाई
..........
बहाने बनाकर ज़ुदा हो गये हम
यूँ दोनों ने मिलके ही दुनिया हँसाई
..........
तुझे मैंने मारा क़भी खंजरों से
क़भी सेज काँटों की तूने बिछाई
..........
जलाये जो तूने मेरे प्यार के ख़त
तो तस्वीर तेरी भी मैंने ज़लाई
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on February 8, 2015 at 9:05am — 22 Comments
212 212 212 212
मेरे हँसने हँसाने पे शक़ है उसे
बेव़जह मुस्कुराने पे शक़ है उसे
.................
अलव़िदा कह गया जाता-जाता मग़र
आज़तक भूलपाने पे शक़ है उसे
....................
हर किसी से करूँ ज़िक्र मैं यार का
पर व़फायें निभाने पे शक़ है उसे
...................
कब से तनहाई दुल्हन बनी है मेरी
पर तुझे भूल जाने पे शक़ है उसे
.................
आँसुओं से समन्दर भी मैंने भरा
मेरे आँसू बहाने पे शक़ है उसे
उमेश…
ContinueAdded by umesh katara on January 29, 2015 at 9:19am — 27 Comments
मुहब्बत को निभा दे तू
ज़हर आकर पिला दे तू
....
नज़र से उठ नहीं पाऊँ
मुझे ऐसा गिरा दे तू
....
व़फायें जानता हूँ मैं
नया कुछ तो सिख़ा दे तू
....
मुझे मँझाधार मैं लाकर
मेरी कश्ती हिला दे तू
....
कभी सोचा न हो मैंने
मुझे ऐसा सिला दे तू
....
क़यी मुद्दत से तन्हा हूँ
मुझे मुझसे मिला दे तू
..
..
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on January 27, 2015 at 10:00am — 29 Comments
नहीं राजी हुआ कोई ,मेरा किरदार करने को
बिना क़श्ती के निकला हूँ ,समन्दर पार करने को
..
कोई सोये कहीं भूख़ा ,ज़लाये मुल्क़ भी कोई
इन्हें बस वोट लेने हैं, मज़े सरक़ार करने को
..
कोई मौजूद था मेरा ,मेरे दुश्मन की महफ़िल में
रची साजि़श उसी ने थी, मुझे गद्दार करने को
..
तुम्हारे इक इशारे पर , मेरी ये ज़ान जानीं है
मग़र ज़िन्दा जो रक़्खा हैं,गुनाह स्वीकार करने को
..
चली आयी तसव्वुर में , तेरी तस्वीर धुँधली सी
मेरी ये जान बाक़ी है ,फ़क़त दीदार…
Added by umesh katara on January 15, 2015 at 8:58am — 18 Comments
तेरा कुछ भी मुझ पर बक़ाया नहीं है
मुझे मार कर क़्यों ज़लाया नहीं है
..
सज़ा बे-बज़ह ही मिली है क़सम से
क़िसी को भी मैंने सताया नहीं है
..
गया तू नज़र से,मेरी ज़ान लेक़र
मग़र जहर क्यों कर पिलाया नहीं है
..
मोहब्बत में कर दूँ ज़रा भी मिलावट
व़फा ने ये मुझको सिख़ाया नहीं है
..
मुझे कह रही हैं मुसलसल ये हिचकी
अभी तक भी तूने भुलाया नहीं है
मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Added by umesh katara on January 11, 2015 at 7:30pm — 27 Comments
1222 1222 1222 1222
डसेगी मुझको तनहाई ,कटेगा ये सफ़र कैसे
तेरा घर है मेरे दिल में, जलाऊँगा वो घर कैसे
किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसां
तू कहता है भुलादूँ मैं ,बता तू ही मगर कैसै
मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया
मुहब्बत में लगा दिख़ने बगाव़त का असर कैसे
चला है बेव़फा होकर बसाने घर रक़ीबों का
किसी दिन लौट भी आया ,मिलायेगा नज़र कैसे
बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के संग संग
मज़ा-ए- इश्क़…
Added by umesh katara on January 6, 2015 at 11:00pm — 9 Comments
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