फूल महकते हैं
वे सिर्फ महकते नहीं
अपितु देते हैं एक संदेश
कि अपने भीतर
आप भी भर लें
इतनी महक
कि आपका अस्तित्व ही
बन जाए परिमल
और वह महकाये पूरे विश्व को
बिना किसी यात्रा या भ्रमण के
और खुद दुनिया भर से लोग
आयें तुम्हारे पास
तुम्हारे सुवास से आकर्षित होकर
तुम्हारे परिमल की
एक गंध पाने को
जैसा टूट पड़ते हैं शलभ
किसी दिए पर
बिना किये अपने प्राणों की परवाह
पर तुम जलाना…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 17, 2019 at 8:00pm — 2 Comments
थक गया हूँ
चाहता हूँ
तनिक सा विश्राम ले लूँ
तोड़कर मैं अर्गला
नश्वर वपुष की
किन्तु संकट है विकट
ढूंढें नही मिलता मुझे
इस ठौर पानी
एक चुल्लू साफ़
सिर्फ मरने के लिए
(मौलिक अप्रकाशित)
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 5, 2019 at 6:30pm — 7 Comments
एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद
हुआ होगा मेरा जन्म
फिर एक दीर्घ प्रतीक्षा
और हुई होगी
मेरे बड़े होने की
और मेरे बड़े हो जाने पर
हो गया होगा उनकी
सारी प्रतीक्षाओं का अंत
जिन्होंने मन्नतें माँगी होंगी
दुआयें की होंगी
उपवास रखे होंगे
मेरे आने की प्रतीक्षा में I
(मौलिक /अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2019 at 6:00pm — 8 Comments
बूढ़े ने आँखें बंद किये-किये ही करवट ली I उसका ध्यान किचन से आती आवाज की ओर चला गया I
‘कैसा बना है ?’– बहू ने पूछा I
‘बहुत बढ़िया‘- बेटे ने कहा –‘थोड़ा चटनी और डालो I हाँ बस--बस I’
‘अच्छा लगा---? नमक ठीक पड़ा है न ?’
‘हाँ, बहुत मजेदार है I थोडा और कुरकुरा करो I’
‘जल जायेंगे ---‘
‘जलेंगे नहीं, बस थोड़ा लाल हो जाय I ‘- लडके ने उकसाया I फिर जैसे उसे कुछ याद आया –‘पापा कहाँ हैं ?’
बूढ़े की आँखों में चमक आयी I कम से कम बेटे को तो उसकी फ़िक्र है I उसके…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 18, 2019 at 2:30pm — 7 Comments
न्याय के मंदिर की मेरी पहली परिक्रमा थी i कोर्ट के आदेश के अनुसार मुझे एक कर्मचारी की सैलरी कोर्ट में जमा करनी थी I मैं ठीक दस बजे चेक लेकर कोर्ट पहुंच गया I कैशियर साहब ग्यारह बजे आये और बोले –‘इसे स्टैंडिंग काउंसल से वेरीफाई करा के लाओ I’
स्टैंडिंग काउंसल ने डांट लगाई –‘हाउ यू डेयर कम डायरेक्टली टू मी I कम थ्रू माय आफिस I’ मैं आफिस गया I संबंधित बाबू सीट पर नहीं थे I वह एक घंटे बाद आये और आकर मोबाईल पर बतियाने लगे I दस मिनट बाद खाली हुए तो झुंझलाकर बोले- ‘क्या है…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2019 at 11:00pm — 4 Comments
‘अरे राम-राम, संगम से इतनी दूर भी गंगा का किनारा साफ़ नहीं I सब ससुर किनारे में ही निपटान करत है i ऐसे में गंगा नहाय से का फायदा ? मगर हमरे घरैतिन के सिर पर तो कुम्भ सवार रहै I’- पंडित जी ने नाव वाले से कहा I नाव में कुछ और सवारियाँ भी थीं, परन्तु किसी का भी चेहरा धुंधलके और घने कुहरे के कारण साफ़ नजर नही आता था I
मल्लाह ने स्वीकार की मुद्रा में धीरे से ‘हूँ------‘ कहा और नाव खेने में मशगूल हो गया I
‘इनका होश ही नाहीं i’– पंडिताइन ने ठंढी बयार से बचाने के लिए गोद में पड़े अपने…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 3, 2019 at 5:41pm — 3 Comments
लडकी ने साहस किया I एक दिन ट्रेन से उतरकर उसने लडके से कहा -‘आप को ऐतराज न हो तो हम साथ-साथ काफी पी सकते हैं…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 13, 2019 at 8:30pm — 5 Comments
समय की होती अद्भुत चाल I गया कुछ लेकर-देकर साल II
बिछाकर पलक पांवड़े द्वार I किया हमने जिसका सत्कार II
वर्ष नव यह आया अभिराम I लिए सुन्दर सपने अविराम II
पूर्ण होंगे संभावित कार्य I कृपा बरसाएंगे सब आर्य II
सभी को शुभ हो नूतन वर्ष I सभी का मंगल, हो उत्कर्ष II
सभी के सपने हों साकार I सभी का हुलसित हो संसार II
सभी का मुखरित हो उल्लास I सभी के अधरों पर हो हास II
वर्ष भर हो जय-जय का शोर I वर्ष भर हो आँगन में रोर II
वर्ष भर उत्सव रहे वदान्य I वर्ष भर पूरित हो…
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 1, 2019 at 4:56pm — 3 Comments
कैदी ! तुझसे कोई मिलने आया है I’ –जेल के सिपाही ने सूचना दी I अगले ही पल काले कोट में एक वकील प्रकट हुआ I
‘आपकी पत्नी ने मुझे आपका वकील एपॉइंट किया है I आप मुझे सच-सच बताइए कि आपने मैरिज-कोर्ट में अपने बेटे की हत्या क्यों की ? क्या आपकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी ?’
कैदी कुछ नहीं बोला I उसने मुँह फेर लिया I वकील असमंजस में पड़ गया I कुछ देर चुप रहकर वह बोला –‘ देखिये अगर आप ही सहयोग नहीं करेंगे तो मैं आपकी मदद कैसे कर पाऊंगा ?’
‘वकील साहब, आप अपना समय बर्बाद कर रहे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 20, 2018 at 6:24pm — 4 Comments
‘बाबू जी, ग्यारह महीने हो गए, मगर अब तक मुझे पेंशन, बीमा, ग्रेच्युटी, अवकाश नकदीकरण कुछ भी नहीं मिला I
‘मिलेगा कैसे अभी स्वीकृत ही कहाँ हुआ ?’
‘पर काहे नहीं हुआ ? हमने तो रिटायर होने के छः माह पहले ही सारे प्रपत्र भर कर दे दिए थे I’
‘ज्यादा भोले मत बनो, तुमने भी साठ साल की उम्र तक नौकरी की है I तुम्हें नहीं पता सरकारी काम–काज कैसे होता है ?’
‘पता है बाबू जी, इसीलिये मैंने आपको पैसे पहले ही दे दिए थे I ‘
‘हां, तो तुम्हे फंड तो मिल गया न…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 12, 2018 at 8:55pm — 7 Comments
भिखारी सोचता रहा. आधी रात लगभग बीत चुकी थी . लेकिन उसकी आँखों में नींद कहाँ ? पिछले एक सप्ताह से वह ज्वर में तप रहा था. इस अवधि में गरमागरम चाय और नमकीन बिस्किट की कौन कहे, उसे ढंग की दवा तक नसीब नहीं हुयी . वह तो भला हो उस ‘लंगड़े’ का जो किसी तरह ‘अजूबी’ की कुछ टिकिया ले आया था. पर उससे क्या ? आज तो भिखारी के शरीर में इतनी भी ताब न थी कि वह घड़े में रखे कई दिनों के बासी और सड़े–गले पानी को मिट्टी के प्याले में ढालकर अपनी प्यास बुझा पाता . उसने पथराई आँखों से अँधेरी झोंपड़ी में चारों ओर देखा .…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2018 at 12:48pm — 6 Comments
जायस के ऊसर में खानकाह बने कई माह बीत चुके थे I किछौछा से आये हजरत खवाजा मखदूम जहाँगीर किसी परिचय के मोहताज नही थे I बहुत जल्द ही उनके पास मुरीदों और मन्नतियों की भीड़ आने लगी i मुहम्मद यद्यपि छोटा था पर वह अक्सर वहाँ जाने लगा i वह बुजुर्ग पीर के छोटे-मोटे काम कर देता I पीर तो उसका भविष्य जान ही चुके थे I वह भी उसे अपने पोते की तरह मानने लगे I
एक दिन पीर सफ़ेद भेड़ की उन का लम्बा चोगा पहने अपनी पसंदीदा खानकाह में बैठे थे I उनके चेले और कुछ मजहबपरस्त लोग उन्हें घेरे हुए थे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 4, 2018 at 8:57pm — 5 Comments
चौदहवीं की रात I निशीथ का समय I चाँद अपने पूरे शबाब पर I जायस के कजियाना मोहल्ले में एक छोटे से घर की छत पर गोंदरी बिछाए वही लम्बी सी पतली लडकी लेटी थी I उसकी सपनीली आँखों से नींद आज गायब थी I उसकी आँखों के सामने मुहम्मद का भोला किंतु खूबसूरत चेहरा बार-बार घूम जाता I कभी-कभी ऐसी नाटकीय घटनायें हो जाती हैं कि हम बेक़सूर होकर भी दूसरे की निगाहों में कसूरवार हो जाते हैं I उस लड़के ने मुझे उस हंगामे से बचाया I मेरा हाथ थामा I मुझे पानी से निकाला I हाथ थामने के मुहावरे का अर्थ सोचकर उसे उस सन्नाटे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 29, 2018 at 10:02pm — 2 Comments
पास इतना जो मन के वे आते नहीं
स्यात नयनों से यूं दूर होते नहीं
मिल के सपनों के दुनिया बसाते न जो
काँच के ये महल चूर होते नहीं
अब तो बर्बाद हूँ लुट गया हूँ सनम
अर्धविक्षिप्त हूँ और बेहाल हूँ
सोहनी-सोहनी रट रहा हूँ मगर
गम का मारा हुआ एक महिवाल हूँ
कोई गहरी अगर चोट खाते न जो
इस कदर दिल से मजबूर होते नही
पास इतना...
हमने वादा किया साथ मरने का था
क्योंकि जीना हमें रास आया…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 20, 2018 at 12:30pm — 4 Comments
बैसाख की दुपहरी में कंचाना खुर्द मोहल्ला बड़ा शांत था I गर्मी के कारण औरतें घरों में दुबकी थीं और मर्द घर के बाहर अधिकांशतः नीम या किसी अन्य पेड़ के नीचे आराम फरमा रहे थे I फ़कीर इस मोहल्ले में बड़े कुंए की तलाश करता-करता एक बड़े से उत्तरमुख घर के पास पहुँचा, जिसकी चार दीवारी के अन्दर आम, नीम व बरगद एवं पाकड़ आदि के कुछ पेड़ थे I घर का मालिक एक अधेड़ सा व्यक्ति बरगद के नीचे बड़े से तख़्त पर नीली लुंगी और सफ़ेद बनियाइन पहने लेटा था I…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2018 at 5:25pm — 3 Comments
क्लास के
सबसे होनहार बच्चे से
मैंने कहा
कल दो अक्टूबर है
और है
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की
जयंती
तुम लिखो, एक निबंध
देश के राष्ट्र-पिता पर
और मुझको दिखाओ
एक घंटे बाद
आया वह होनहार
लिखकर लाया था वह एक निबंध
जैसा मैंने कहा था
उसने लिखा था
कल दो अक्टूबर है
और है
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की
जयंती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 2, 2018 at 6:56am — 7 Comments
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2018 at 7:11pm — 3 Comments
प्यार का सारांश कोई छान कर लाये वहाँ से
पारदर्शी प्यार के सन्दर्भ दिखते हों जहां से
कृष्ण केवल राधिका का है दिवाना मान लूं तो
मोर का फिर पंख तेरी सेज पर आया कहाँ से
( 2122 2122 2122 2122 )
जो सहारों के सहारे हैं, सरसते वे नही
फाड़ देते जो धरा को हैं तरसते वे नही
चापलूसों की हकीकत है मुझे बेशक पता
जानता हूँ जो गरजते हैं, बरसते वे नही
…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2018 at 3:30pm — 7 Comments
वक्त आता है
चला जाता है
हमे नही लगता कि
वक्त के आने और जाने से
कुछ फर्क पड़ता है
क्योंकि हम
अपने निकम्मेपन की धुन में
ही मग्न रहते है और
बीतती जाती है उम्र
फिर एक दिन जब दर्पण
हमे चेतावनी देता है
हम रह जाते हैं
अवाक्
और भय से देखते है
अपने उजले हो चुके बाल
धंसी हई आँखें
पोपला मुख
और सारे चेहरे पर
अनगिनत वक्त के निशान
तब हम जान पाते हैं…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 3, 2018 at 11:26am — 9 Comments
मैं
आज से नहीं कहूँगा
तुम्हे साथी, मीत या हमनवां
क्योंकि अब
मैं जान गया हूँ कि
ये शब्द
बौना कर देते है
उन संबंधो
और अहसासों को
जो हमें देते रहे
जाने कब से ?
वे अज्ञात एवं रहस्यमय
अनगिन स्पंदन
जिनमें मैंने पाया
जीवन
और जीवन का अर्थ.
(मौलिक / अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 12, 2018 at 6:00am — 3 Comments
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