For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव's Blog (216)

महक

फूल महकते हैं

वे सिर्फ महकते नहीं

अपितु देते हैं एक संदेश

कि अपने भीतर

आप भी भर लें

इतनी महक

कि आपका अस्तित्व ही

बन जाए परिमल

और वह महकाये पूरे विश्व को

बिना किसी यात्रा या भ्रमण के

और खुद दुनिया भर से लोग

आयें तुम्हारे पास

तुम्हारे सुवास से आकर्षित होकर

तुम्हारे परिमल की

एक गंध पाने को

जैसा टूट पड़ते हैं  शलभ

किसी दिए पर

बिना किये अपने प्राणों की परवाह

पर तुम जलाना…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 17, 2019 at 8:00pm — 2 Comments

संकट

थक गया हूँ

चाहता हूँ

तनिक सा विश्राम ले लूँ

तोड़कर मैं अर्गला

नश्वर वपुष की

किन्तु संकट है विकट

ढूंढें नही मिलता मुझे 

इस ठौर पानी

एक चुल्लू साफ़

सिर्फ मरने के लिए

(मौलिक  अप्रकाशित) 

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 5, 2019 at 6:30pm — 7 Comments

प्रतीक्षा

एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद

हुआ होगा मेरा जन्म

फिर एक दीर्घ प्रतीक्षा

और हुई होगी

मेरे बड़े होने की

और मेरे बड़े हो जाने पर

हो गया होगा उनकी 

सारी प्रतीक्षाओं का अंत

जिन्होंने मन्नतें माँगी होंगी

दुआयें की होंगी

उपवास रखे होंगे

मेरे आने की प्रतीक्षा में I  

(मौलिक /अप्रकाशित )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2019 at 6:00pm — 8 Comments

उम्मीद का पेड़  (लघुकथा )

बूढ़े ने आँखें बंद किये-किये ही करवट ली I उसका ध्यान किचन से आती आवाज की ओर चला गया I

‘कैसा बना है ?’– बहू ने पूछा I

‘बहुत बढ़िया‘- बेटे ने कहा –‘थोड़ा चटनी और डालो I हाँ बस--बस I’

‘अच्छा लगा---? नमक ठीक पड़ा है न ?’

‘हाँ, बहुत मजेदार है I थोडा और कुरकुरा करो I’

‘जल जायेंगे ---‘

‘जलेंगे नहीं, बस थोड़ा लाल हो जाय I ‘- लडके ने उकसाया  I फिर जैसे उसे कुछ याद आया –‘पापा कहाँ हैं ?’

बूढ़े की आँखों में चमक आयी I कम से कम बेटे को तो उसकी फ़िक्र है I उसके…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 18, 2019 at 2:30pm — 7 Comments

बच्चा है तू (लघुकथा )

 न्याय के मंदिर की मेरी पहली परिक्रमा थी i कोर्ट के आदेश के अनुसार मुझे एक कर्मचारी की सैलरी कोर्ट में जमा करनी थी I मैं ठीक दस बजे चेक लेकर कोर्ट पहुंच गया I कैशियर साहब ग्यारह बजे आये और बोले –‘इसे स्टैंडिंग काउंसल से वेरीफाई करा के लाओ I’

स्टैंडिंग काउंसल ने डांट लगाई –‘हाउ यू डेयर कम डायरेक्टली टू मी I कम थ्रू माय आफिस I’  मैं आफिस गया I संबंधित बाबू सीट पर नहीं थे I वह एक घंटे बाद आये और आकर मोबाईल पर बतियाने लगे I दस मिनट बाद खाली हुए तो झुंझलाकर बोले- ‘क्या है…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2019 at 11:00pm — 4 Comments

कुम्भ स्नान (लघुकथा )

‘अरे राम-राम, संगम से इतनी दूर भी गंगा का किनारा साफ़ नहीं I सब ससुर किनारे में ही निपटान करत है i ऐसे में गंगा नहाय से का फायदा ? मगर हमरे घरैतिन के सिर पर तो कुम्भ सवार रहै I’- पंडित जी ने नाव वाले से कहा I नाव में कुछ और सवारियाँ भी थीं, परन्तु किसी का भी चेहरा धुंधलके और घने कुहरे के कारण साफ़ नजर नही आता था I

मल्लाह ने स्वीकार की मुद्रा में धीरे से ‘हूँ------‘ कहा और नाव खेने में मशगूल हो गया I    

‘इनका होश ही नाहीं i’– पंडिताइन ने ठंढी बयार से बचाने के लिए गोद में पड़े अपने…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 3, 2019 at 5:41pm — 3 Comments

फर्स्ट-साईट-लव (लघुकथा )

दोनों सर्विस में थे I दोनों एक ही मंजिल के दैनिक रेल यात्री थे I दोनों के बीच आँखों-आँखों में प्यार का व्यापार कुछ माह चला I प्लेटफार्म में, ट्रेन के कम्पार्टमेंट में दोनों एक दूसरे को ढूंढते I लडकी सोचती कि पहले लडका पहल करे, पर लडका नैन- सुधारस पान कर ही संतुष्ट था I एक दिन लडकी की सहेलियों ने कहा –‘ मि० शील-संकोच से तुझे ही बात करनी पड़ेगी i’

            लडकी ने साहस किया I एक दिन ट्रेन से उतरकर उसने लडके से कहा -‘आप को ऐतराज न हो तो हम साथ-साथ काफी पी सकते हैं…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 13, 2019 at 8:30pm — 5 Comments

नव् वर्ष

समय की होती अद्भुत चाल I गया कुछ लेकर-देकर साल II

बिछाकर पलक पांवड़े द्वार I किया हमने जिसका सत्कार II

वर्ष नव यह आया अभिराम I लिए सुन्दर सपने अविराम II

पूर्ण होंगे संभावित कार्य I कृपा बरसाएंगे सब आर्य II

सभी को शुभ हो नूतन वर्ष I सभी का मंगल, हो उत्कर्ष II

सभी के सपने हों साकार I सभी का हुलसित हो संसार II

सभी का मुखरित हो उल्लास I सभी के अधरों पर हो हास II

वर्ष भर हो जय-जय का शोर I वर्ष भर हो आँगन में रोर II

वर्ष भर उत्सव रहे वदान्य I वर्ष भर पूरित हो…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 1, 2019 at 4:56pm — 3 Comments

रगों में बहता खून  (लघुकथा )

 कैदी ! तुझसे कोई  मिलने आया है I’ –जेल के सिपाही ने सूचना दी  I अगले ही पल काले कोट में एक वकील प्रकट हुआ I

‘आपकी पत्नी ने मुझे आपका वकील एपॉइंट किया है I आप मुझे सच-सच बताइए कि आपने मैरिज-कोर्ट में अपने बेटे की हत्या क्यों की ? क्या आपकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी ?’

     कैदी कुछ नहीं बोला I उसने मुँह फेर लिया I वकील असमंजस में पड़ गया I कुछ देर चुप रहकर वह बोला –‘ देखिये अगर आप ही सहयोग नहीं करेंगे तो मैं आपकी मदद कैसे कर पाऊंगा ?’

‘वकील साहब, आप अपना समय बर्बाद कर रहे…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 20, 2018 at 6:24pm — 4 Comments

खामियाजा ( लघु कथा )

‘बाबू जी, ग्यारह महीने हो गए, मगर अब तक मुझे  पेंशन, बीमा, ग्रेच्युटी, अवकाश नकदीकरण कुछ भी नहीं मिला I

‘मिलेगा कैसे अभी स्वीकृत ही कहाँ हुआ ?’

‘पर काहे नहीं हुआ ? हमने तो रिटायर होने के छः माह पहले ही सारे प्रपत्र भर कर दे दिए थे I’

‘ज्यादा भोले मत बनो, तुमने भी साठ साल की उम्र तक नौकरी की है I तुम्हें  नहीं पता सरकारी काम–काज कैसे होता है ?’

‘पता है बाबू जी, इसीलिये मैंने आपको पैसे पहले ही दे दिए थे I ‘

‘हां, तो तुम्हे फंड तो मिल गया न…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 12, 2018 at 8:55pm — 7 Comments

सारे जहाँ से अच्छा (कहानी )

 भिखारी सोचता रहा. आधी रात लगभग बीत चुकी थी . लेकिन उसकी आँखों में नींद कहाँ ? पिछले एक सप्ताह से वह ज्वर में तप रहा था. इस अवधि में गरमागरम चाय और नमकीन बिस्किट की कौन कहे, उसे ढंग की दवा तक नसीब नहीं हुयी . वह तो भला हो उस ‘लंगड़े’ का जो किसी तरह ‘अजूबी’ की कुछ टिकिया ले आया था. पर उससे क्या ? आज तो भिखारी के शरीर में इतनी भी ताब न थी कि वह घड़े में रखे कई दिनों के बासी और सड़े–गले पानी को मिट्टी के प्याले में ढालकर अपनी प्यास बुझा पाता . उसने पथराई आँखों से अँधेरी झोंपड़ी में चारों ओर देखा .…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2018 at 12:48pm — 6 Comments

हौं पंडितन केर पछलगा -उपन्यास का एक अंश

 जायस के ऊसर में खानकाह बने कई माह बीत चुके थे I किछौछा से आये हजरत खवाजा मखदूम जहाँगीर किसी परिचय के मोहताज नही थे I बहुत जल्द ही उनके पास मुरीदों और मन्नतियों की भीड़ आने लगी i मुहम्मद यद्यपि छोटा था पर वह अक्सर वहाँ जाने लगा i वह बुजुर्ग पीर के छोटे-मोटे काम कर देता I पीर तो उसका भविष्य जान ही चुके थे I  वह भी उसे अपने पोते की तरह मानने लगे I

 एक दिन पीर सफ़ेद भेड़ की उन का लम्बा चोगा पहने अपनी पसंदीदा खानकाह में बैठे थे I उनके चेले और कुछ मजहबपरस्त लोग उन्हें घेरे हुए थे…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 4, 2018 at 8:57pm — 5 Comments

हौं पंडितन केर पछलगा *उपन्यास का एक अंश )

चौदहवीं की रात I निशीथ का समय I चाँद अपने पूरे शबाब पर I जायस के कजियाना मोहल्ले में एक छोटे से घर की छत पर गोंदरी बिछाए वही लम्बी सी पतली लडकी लेटी थी I उसकी सपनीली आँखों से नींद आज गायब थी I उसकी आँखों के सामने मुहम्मद का भोला किंतु खूबसूरत चेहरा बार-बार घूम जाता I कभी-कभी ऐसी नाटकीय घटनायें हो जाती हैं कि हम बेक़सूर होकर भी दूसरे की निगाहों में कसूरवार हो जाते हैं I उस लड़के ने मुझे उस हंगामे से बचाया I मेरा हाथ थामा I मुझे पानी से निकाला I हाथ थामने के मुहावरे का अर्थ सोचकर उसे उस सन्नाटे…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 29, 2018 at 10:02pm — 2 Comments

गीत (212 X 4)

पास इतना जो मन के वे आते नहीं

स्यात नयनों से यूं दूर होते नहीं

मिल के सपनों के दुनिया बसाते न जो

काँच के ये महल चूर होते नहीं 

 

अब तो बर्बाद हूँ लुट गया हूँ सनम 

अर्धविक्षिप्त हूँ और बेहाल हूँ 

सोहनी-सोहनी रट रहा हूँ मगर

गम का मारा हुआ एक महिवाल हूँ

 

कोई गहरी अगर चोट खाते न जो 

इस कदर दिल से मजबूर होते नही

पास इतना...

 

हमने वादा किया साथ मरने का था

क्योंकि जीना हमें रास आया…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 20, 2018 at 12:30pm — 4 Comments

हौं पंडितन केर पछलगा (उपन्यास का एक अंश )

 

         बैसाख की दुपहरी में कंचाना खुर्द मोहल्ला बड़ा शांत था I गर्मी के कारण औरतें घरों में दुबकी थीं और मर्द घर के बाहर अधिकांशतः नीम या किसी अन्य पेड़ के नीचे आराम फरमा रहे थे I फ़कीर इस मोहल्ले में बड़े कुंए की तलाश करता-करता एक बड़े से उत्तरमुख घर के पास पहुँचा, जिसकी चार दीवारी के अन्दर आम, नीम व बरगद एवं पाकड़ आदि के कुछ पेड़ थे I घर का मालिक एक अधेड़ सा व्यक्ति बरगद के नीचे बड़े से तख़्त पर नीली लुंगी और सफ़ेद बनियाइन पहने लेटा था I…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2018 at 5:25pm — 3 Comments

दो अक्टूबर

क्लास के

सबसे होनहार बच्चे से

मैंने कहा

कल दो अक्टूबर है

और है

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की

जयंती   

तुम लिखो, एक निबंध

देश के राष्ट्र-पिता पर

और मुझको  दिखाओ

  • *     *

एक घंटे बाद

आया वह होनहार

लिखकर लाया था वह एक निबंध

जैसा मैंने कहा था  

  • *     *

 

उसने लिखा था

कल दो अक्टूबर है

और है

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की

जयंती…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 2, 2018 at 6:56am — 7 Comments

विश्व मित्रता दिवस पर

(पद-पादाकुलक छंद)

मित्रता कहाँ जब परिभाषा अपने हित में आंकी जाये

कालिमा सदा अन्यत्र किसी की ग्रीवा पर झांकी जाये

थोड़ी सी ठेस न निभ पाए विश्वास घना यह दावा हो

तो दंभ मित्रता का कैसा फिर तुम भी एक छलावा हो



मित्रता शोभती है उसको जो प्रिय हित में कुछ त्याग सके

निज स्वार्थ छोड़कर, हो तटस्थ संबंधो को अनुराग सके

विश्वास-नीव भी अविचल हो कुछ धैर्य-शक्ति हो सहने की

हो निर्विकार मानस जिसका हिम्मत भी हो सच कहने की



मित्रों पर मान किया मैंने , अवलम्ब… Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2018 at 7:11pm — 3 Comments

कुछ मुक्तक

प्यार का सारांश कोई  छान कर लाये वहाँ से

पारदर्शी प्यार के सन्दर्भ   दिखते हों जहां से 

कृष्ण केवल राधिका का है दिवाना मान लूं तो

मोर का फिर पंख तेरी सेज पर आया कहाँ से 

  ( 2122 2122 2122  2122 )

जो सहारों के सहारे हैं,  सरसते वे नही

फाड़ देते जो धरा को हैं तरसते वे नही 

चापलूसों की हकीकत है मुझे बेशक पता 

जानता हूँ जो गरजते हैं,  बरसते वे नही

 …

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2018 at 3:30pm — 7 Comments

ला-इलाज कैंसर की तरह

वक्त आता है

चला जाता है

हमे नही लगता कि

वक्त के आने और जाने से

कुछ फर्क पड़ता है

क्योंकि हम

अपने निकम्मेपन की धुन में

ही मग्न रहते है और

बीतती जाती है उम्र

फिर एक दिन जब दर्पण

हमे चेतावनी देता है

हम रह जाते हैं

अवाक् 

और भय से देखते है

अपने उजले हो चुके बाल

धंसी हई आँखें  

पोपला मुख

और सारे चेहरे पर

अनगिनत वक्त के निशान   

तब हम जान पाते हैं…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 3, 2018 at 11:26am — 9 Comments

समझ गया हूँ

मैं
आज से नहीं कहूँगा
तुम्हे साथी, मीत या हमनवां
क्योंकि अब
मैं जान गया हूँ कि
ये शब्द
बौना कर देते है
उन संबंधो
और अहसासों को
जो हमें देते रहे
जाने कब से ?
वे अज्ञात एवं रहस्यमय
अनगिन स्पंदन
जिनमें मैंने पाया
जीवन
और जीवन का अर्थ.

(मौलिक / अप्रकाशित )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 12, 2018 at 6:00am — 3 Comments

Monthly Archives

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service