न बिजलियाँ जगा सकीं,
न बदलियाँ रुला सकीं।
अड़ी रहीं उदासियाँ,
न लोरियाँ सुला सकीं।
न यवनिका ज़रा हिली,
न ज़ुल्फ की घटा खिली।
उठे न पैर लाज के,
न रूप की छटा मिली।
जतन किए हज़ार पर,
न चाँद भूमि पे रुका।
अटल रहे सभी शिखर,
न आस्मान ही झुका।
चँवर कभी डुला सके,
न ढाल ही उठा सके।
चढ़ा के देखते रहे,
न तीर ही चला सके।
वहीं कपाट बंद थे,
जहाँ सदा यकीन था।
जिसे कहा था हमसफ़र,
वही तमाशबीन…
Added by Ravi Prakash on October 23, 2013 at 12:00pm — 37 Comments
कोमल काया फूल सी, अति मनमोहक रूप ।
तेरे आगे चाँद भी, लगता मुझे कुरूप ।।
भोलापन अरु सादगी, नैना निश्छल झील ।
जो तेरा दीदार हो, धड़कन हो गतिशील ।।…
Added by अरुन 'अनन्त' on October 23, 2013 at 6:00pm — 25 Comments
मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२
(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जी" ओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)
कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं ..…
ContinueAdded by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:30pm — 30 Comments
सांत्वना
अस्पताल से जाँच की रिपोर्ट लेकर घर लौटे द्वारिका दास जी अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर निढाल होकर लेट से गये. छत को ताकती हुई सूनी निगाहों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे . रिपोर्ट के बारे में बेटे को बताता हूँ तो वह परेशान हो जायेगा.यहाँ आने के लिये उतावला हो जायेगा. पता नहीं उसे छुट्टियाँ मिल पायेंगी या नहीं. बेटे के साथ ही बहू भी परेशान हो जायेगी. त्यौहार भी नजदीक ही है.…
ContinueAdded by अरुण कुमार निगम on October 7, 2013 at 12:30am — 25 Comments
प्राचार्य जी के साथ विद्यालय से निकल के कुछ दूर चले ही थे कि मुखिया जी ने पुकार लिया | बैठक में काफी लोग चर्चामग्न थे | बढती बेरोजगारी और आतंकवाद के परस्पर सम्बन्धों से लेकर शिक्षित लोगों के ग्राम पलायन तक अनेक मुद्दों पर सार्थक विचार गंगा बह रही थी |कुछ देर बाद जब अधिकांश लोग उठकर चले गए तो मुखिया जी ने प्राचार्य जी से कहा –
“वो रामदीन के नवीं कक्षा वाले छोरे को पूरक क्यों दे दी ?”…
ContinueAdded by vandana on October 8, 2013 at 7:30am — 15 Comments
!!! सारांश !!!
बह्र - 2 2 2
कर्म जले।
आंख मले।।
धर्म कहां?
पाप पले।
नर्म गजल,
कण्ठ फले।
राह तेरी ,
रोज छले।
हिम्मत को,
दाद भले।
गर्म हवा,
नीम तले।
जीवन क्या?
हाड़ गले।
आफत में,
बह्र खले।
प्रीत करों,
बन पगले।
विव्हल मन,
शब्द टले।
दृषिट मिली,
सांझ ढले।
गर मुफलिस,
बात…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 9, 2013 at 8:00pm — 34 Comments
Added by Poonam Shukla on October 10, 2013 at 10:34am — 12 Comments
एक आसमान को छूता
पहाड़ सा / दरक जाता है
मेरे भीतर कहीं ..
घाटियों में भारी भरकम चट्टानें
पलक झपकते
मेरे संपूर्ण अस्तित्व को
कुचल कर
गोफन से छूटे / पत्थर की तरह
गूँज जाती हैं.
संज्ञाहीन / संवेदनाहीन
मेरे कंठ को चीर कर
निकलती मेरी चीखें
मेरे खुद के कान / सुन नहीं पाते
मैं देखता हूँ
मेरे भीतर खौलता हुआ लावा
मेरे खून को / जमा देता है
जब तुम न्याय के सिंहासन पर बैठ कर
सच की गर्दन मरोड़कर
देखते देखते निगल…
Added by dr lalit mohan pant on October 10, 2013 at 11:00am — 16 Comments
चिड़िया के दो बच्चों को
पंजों में दबाकर उड़ गया है एक बाज
उबलने लगी हैं सड़कें
वातानुकूलित बहुमंजिली इमारतें सो रही हैं
छोटी छोटी अधबनी इमारतें
गरीबी रेखा को मिटाने का स्वप्न देख रही हैं
पच्चीस मंजिल की एक अधबनी इमारत हँस रही है
कीचड़ भरी सड़क पर
कभी साइकिल हाथी को ओवरटेक करती है
कभी हाथी साइकिल को
साइकिल के टायर पर खून का निशान है
जनता और प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं हैं
कि…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2013 at 7:43pm — 25 Comments
कैकई के मोह को
पुष्ट करता
मंथरा की
कुटिल चाटुकारिता का पोषण
आसक्ति में कमजोर होते दशरथ
फिर विवश हैं
मर्यादा के निर्वासन को
बल के दंभ में आतुर
ताड़का नष्ट करती है
जीवन-तप
सुरसा निगलना चाहती है
श्रम-साधना
एक बार फिर
धन-शक्ति के मद में चूर
रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं
आसुरी प्रवृत्तियाँ
प्रजननशील हैं
समय हतप्रभ
धर्म ठगा सा…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on October 10, 2013 at 11:30pm — 26 Comments
2122. 1212. 22
कब वो खाली शराब पीता है
हुस्ने ताजा शबाब पीता है
कैसे खिलती वहाँ कली अबतर
वो तो खूने हिजाब पीता है
इतनी भोली खला कि क्या जाने
फिर वो अर्के गुलाब पीता है
ऐसी तदबीर जानता है वो
दिल में उठते हुबाब पीता है
जाने तसतीर भी नहीं उसकी
तब भी सारे खिताब पीता है
ऐसी तौक़ीर दूरतक जानिब
सबकी खाली किताब पीता है
पीना फितरत बना लिया उसने
बैठे ही लाजवाब पीता है
हिजाब -…
Added by Poonam Shukla on October 13, 2013 at 12:00pm — 9 Comments
5+7+5+7……..+5+7+7 वर्ण
जीवन कैसा
एक चिटका शीशा
देह मिली है
बस पाप भरी है
भ्रम की छाया
यह मोह व माया
अहं का फंदा
मन दंभ से गन्दा
शब्द हैं झूठे
सब अर्थ हैं छूटे
तृप्ति कहीं न
सुख-चैन मिले न
फाँस चुभी है
एक पीर बसी है
प्यास बढ़ी जो
अब आस छुटी जो
किसे पुकारें
अब कौन उबारे
एक सहारा
माँ यह तेरा द्वारा
हे जगदम्बे!
शरणागत तेरे
आरती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on October 13, 2013 at 1:00pm — 33 Comments
बह्र: 221/2121/1221/212
_____________________________
दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया
हमने कभी जमीर को रुसवा नहीं किया
हमराह मेरे सब ही बलंदी पे हैं खड़े
पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया
जाने न कितनी रात मेरी आंख में कटी…
Added by शकील समर on October 14, 2013 at 9:00pm — 16 Comments
1 २ १ २ २ / १ २ १ २ २/ १ २ १ २ २ /१ २ १ २ २
चलो चलें अब यहाँ से यारो, रहा न अपना यहाँ ठिकाना,
नहीं रहा अब, जो हम से रूठे, किसे भला है हमें मनाना.
***
था इश्क़ हमको, था इश्क़ तुमको, मगर बगावत न कर सकें हम,
न तुम ने छोड़ा, न बेवफ़ा हम, न तुम ने समझा, न हम ने जाना.
***
शराब छोड़ी, नशा बुरा था, नज़र से पी ली, नज़र मिलाकर,
नज़र नज़र में नशा चढ़ा यूँ, वो भूल बैठा मुझे पिलाना.
***
न फेरियें मुंह, अभी से साहिब, अभी सफ़र ये शुरू हुआ है,
कत’आ करो…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2013 at 1:00pm — 21 Comments
आज फिर एक सफ़र में हूँ...
आज फिर किसी मंज़िल की तलाश में,
किसी का पता ढूँढने,
किसी का पता लेने निकला हूँ,
आज फिर...
सब कुछ वही है...
वही सुस्त रास्ते जो
भोर की लालिमा के साथ रंग बदलते हैं,
वही भीड़
जो धीरे-धीरे व्यस्त होते रास्तों के साथ
व्यस्त हो जाती है,
वही लाल बत्तियाँ
जो घंटों इंतज़ार करवाती हैं,
वही पीली गाड़ियाँ
जो रुक-रुक कर चलती हैं,
कभी हवा से बात करती हैं,
तो कभी साथ चलती अपनी सहेलियों से…
Added by Manoshi Chatterjee on October 16, 2013 at 8:33am — 14 Comments
Added by DEEPAK PANDEY on October 16, 2013 at 12:45pm — 11 Comments
Added by Admin on October 5, 2013 at 12:00pm — 17 Comments
सेमीनार में “कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न” विषय पर अपना भाषण देकर जब प्रिंसीपल साहिब स्टेज से उतरे तो सभी ओर तालियों की गड़गड़ाहट व वाहवाही गूंज रही थी, सभी लोग बारी-बारी प्रिंसीपल साहिब को बधाईयां दे रहे थे। इसी क्रम में जब एक जूनियर अध्यापिका ने प्रिंसीपल साहिब को बधाई दी तो उन्हे लगा जैसे किसी ने सरे-बाजार उन्हे नंगा कर दिया हो।
- मौलिक व अप्रकाशित
Added by Ravi Prabhakar on October 3, 2013 at 4:00pm — 34 Comments
Added by Kapish Chandra Shrivastava on October 4, 2013 at 9:30am — 24 Comments
राजकुमार तोते को दबोच लाया और सबके सामने उसकी गर्दन मरोड़ दी... “तोते के साथ राक्षस भी मर गया” इस विश्वास के साथ प्रजा जय जयकार करती हुई सहर्ष अपने अपने कामों में लग गई।
उधर दरबार में ठहाकों का दौर तारीं था... हंसी के बीच एक कद्दावर, आत्मविश्वास भरी गंभीर आवाज़ गूंजी... “युवराज! लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि हमने अपनी ‘जान’ तोते में से निकाल कर अन्यत्र छुपा दी है... प्रजा की प्रतिक्रिया से प्रतीत होता है कि आपकी युक्ति काम आ गई... राक्षस के मारे जाने के उत्साह और उत्सव के बीच…
Added by Sanjay Mishra 'Habib' on October 4, 2013 at 9:36am — 22 Comments
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