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गुलाब और स्वतंत्रता

समतल उर्वर भूमि पर

उग आयी स्वतंत्रता

जंगली वृक्ष की भांति

आवृत कर लिया इसे

जहर बेल की लताओं ने

खो गयी इसकी मूल पहचान

अर्थहीन हो गए इसके होने के मायने .

..

गुलाब की पौध में,

नियमित काट छांट के आभाव में

निकल आती हैं जंगली शाख.

इनमे फूल नहीं खिलते

उगते हैं सिर्फ कांटे.

लोकतंत्र होता है गुलाब की तरह ...

… नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Neeraj Neer on October 22, 2013 at 7:30pm — 17 Comments

ज़िंदगी ग़ुज़र गई - (रवि प्रकाश)

न बिजलियाँ जगा सकीं,

न बदलियाँ रुला सकीं।

अड़ी रहीं उदासियाँ,

न लोरियाँ सुला सकीं।



न यवनिका ज़रा हिली,

न ज़ुल्फ की घटा खिली।

उठे न पैर लाज के,

न रूप की छटा मिली।



जतन किए हज़ार पर,

न चाँद भूमि पे रुका।

अटल रहे सभी शिखर,

न आस्मान ही झुका।



चँवर कभी डुला सके,

न ढाल ही उठा सके।

चढ़ा के देखते रहे,

न तीर ही चला सके।



वहीं कपाट बंद थे,

जहाँ सदा यकीन था।

जिसे कहा था हमसफ़र,

वही तमाशबीन…

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Added by Ravi Prakash on October 23, 2013 at 12:00pm — 37 Comments

दोहे : अरुन शर्मा 'अनन्त'

कोमल काया फूल सी, अति मनमोहक रूप ।

तेरे आगे चाँद भी, लगता मुझे कुरूप ।।



भोलापन अरु सादगी, नैना निश्छल झील ।

जो तेरा दीदार हो, धड़कन हो गतिशील ।।…



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Added by अरुन 'अनन्त' on October 23, 2013 at 6:00pm — 25 Comments

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

 

(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जीओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)

कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं ..…

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Added by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:30pm — 30 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सांत्वना (लघु कथा) : अरुण निगम

सांत्वना

अस्पताल से जाँच की रिपोर्ट लेकर घर लौटे द्वारिका दास जी अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर निढाल होकर लेट से गये. छत को ताकती हुई सूनी निगाहों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे . रिपोर्ट के बारे में बेटे को बताता हूँ तो वह परेशान हो जायेगा.यहाँ आने के लिये उतावला हो जायेगा. पता नहीं  उसे छुट्टियाँ  मिल पायेंगी या नहीं. बेटे के साथ ही बहू भी परेशान हो जायेगी. त्यौहार भी नजदीक ही है.…

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Added by अरुण कुमार निगम on October 7, 2013 at 12:30am — 25 Comments

भागीरथ के देश में ( लघुकथा )

प्राचार्य जी के साथ विद्यालय से निकल के कुछ दूर चले ही थे कि मुखिया जी ने पुकार लिया | बैठक में काफी लोग चर्चामग्न थे | बढती बेरोजगारी और आतंकवाद के परस्पर सम्बन्धों  से लेकर शिक्षित लोगों के ग्राम पलायन तक अनेक मुद्दों पर सार्थक विचार गंगा बह रही थी |कुछ देर बाद जब अधिकांश लोग उठकर चले गए तो मुखिया जी ने प्राचार्य जी से कहा –

“वो रामदीन के नवीं कक्षा वाले छोरे को पूरक क्यों दे दी ?”…

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Added by vandana on October 8, 2013 at 7:30am — 15 Comments

!!! सारांश !!!

!!! सारांश !!!

बह्र - 2 2 2



कर्म जले।

आंख मले।।



धर्म कहां?

पाप पले।



नर्म गजल,

कण्ठ फले।



राह तेरी ,

रोज छले।



हिम्मत को,

दाद भले।



गर्म हवा,

नीम तले।



जीवन क्या?

हाड़ गले।

आफत में,

बह्र खले।



प्रीत करों,

बन पगले।



विव्हल मन,

शब्द टले।



दृषिट मिली,

सांझ ढले।



गर मुफलिस,

बात…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 9, 2013 at 8:00pm — 34 Comments

ग़ज़ल - आज तू दर्द को ज़जा कहना । - पूनम शुक्ला

2122 1212 22

खत्म होती नहीं सजा कहना

बेरहम क्यों हुई रज़ा कहना



आशियाना सजा लिया हमने

तीरगी घेरती वज़ा कहना



आज फिर याद खूब आती है

मोतबर दर्द को मज़ा कहना



चाह कर भी सजा नहीं होगी

आज तू दर्द को ज़जा कहना



जान पर खेल कर कभी अपनी

जिन्दगी बाँटना क़जा़ कहना ।



दिन ब दिन बदलियाँ हटेंगी भी

जिन्दगी को न बेमज़ा कहना



कज़ा- ईश्वरीय आदेश

रज़ा - इच्छा

ज़जा - फल

मोतबर=जिसका एतबार किया… Continue

Added by Poonam Shukla on October 10, 2013 at 10:34am — 12 Comments

दहकता सूरज भी /अंतिम छोर नहीं है.... ब्रह्माण्ड का ....

एक आसमान को छूता

पहाड़ सा / दरक जाता है

मेरे भीतर कहीं ..

घाटियों में भारी भरकम चट्टानें

पलक झपकते

मेरे संपूर्ण अस्तित्व को

कुचल कर

गोफन से छूटे / पत्थर की तरह

गूँज जाती हैं.

संज्ञाहीन / संवेदनाहीन

मेरे कंठ को चीर कर

निकलती मेरी चीखें

मेरे खुद के कान / सुन नहीं पाते

मैं देखता हूँ

मेरे भीतर खौलता हुआ लावा

मेरे खून को / जमा देता है

जब तुम न्याय के सिंहासन पर बैठ कर

सच की गर्दन मरोड़कर

देखते देखते निगल…

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Added by dr lalit mohan pant on October 10, 2013 at 11:00am — 16 Comments

कविता : नोएडा

चिड़िया के दो बच्चों को

पंजों में दबाकर उड़ गया है एक बाज

 

उबलने लगी हैं सड़कें

वातानुकूलित बहुमंजिली इमारतें सो रही हैं

 

छोटी छोटी अधबनी इमारतें

गरीबी रेखा को मिटाने का स्वप्न देख रही हैं

पच्चीस मंजिल की एक अधबनी इमारत हँस रही है

 

कीचड़ भरी सड़क पर

कभी साइकिल हाथी को ओवरटेक करती है

कभी हाथी साइकिल को

 

साइकिल के टायर पर खून का निशान है

जनता और प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं हैं

कि…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2013 at 7:43pm — 25 Comments

राम! कहाँ हो!

कैकई के मोह को

पुष्ट करता

मंथरा की

कुटिल चाटुकारिता का पोषण

 

आसक्ति में कमजोर होते दशरथ

फिर विवश हैं

मर्यादा के निर्वासन को

 

बल के दंभ में आतुर

ताड़का नष्ट करती है

जीवन-तप  

सुरसा निगलना चाहती है

श्रम-साधना

एक बार फिर

 

धन-शक्ति के मद में चूर

रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं 

 

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं

 

समय हतप्रभ

धर्म ठगा सा…

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Added by बृजेश नीरज on October 10, 2013 at 11:30pm — 26 Comments

ग़ज़ल - वो तो खूने हिजाब पीता है - पूनम शुक्ला

2122. 1212. 22



कब वो खाली शराब पीता है

हुस्ने ताजा शबाब पीता है



कैसे खिलती वहाँ कली अबतर

वो तो खूने हिजाब पीता है



इतनी भोली खला कि क्या जाने

फिर वो अर्के गुलाब पीता है



ऐसी तदबीर जानता है वो

दिल में उठते हुबाब पीता है



जाने तसतीर भी नहीं उसकी

तब भी सारे खिताब पीता है



ऐसी तौक़ीर दूरतक जानिब

सबकी खाली किताब पीता है



पीना फितरत बना लिया उसने

बैठे ही लाजवाब पीता है



हिजाब -…

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Added by Poonam Shukla on October 13, 2013 at 12:00pm — 9 Comments

चोका/ हे जगदम्बे!

5+7+5+7……..+5+7+7 वर्ण

 

जीवन कैसा

एक चिटका शीशा

देह मिली है

बस पाप भरी है

भ्रम की छाया

यह मोह व माया

अहं का फंदा

मन दंभ से गन्दा

शब्द हैं झूठे

सब अर्थ हैं छूटे

तृप्ति कहीं न

सुख-चैन मिले न

फाँस चुभी है

एक पीर बसी है 

प्यास बढ़ी जो

अब आस छुटी जो

किसे पुकारें

अब कौन उबारे

एक सहारा

माँ यह तेरा द्वारा

हे जगदम्बे!

शरणागत तेरे

आरती…

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Added by बृजेश नीरज on October 13, 2013 at 1:00pm — 33 Comments

गजल: दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया//शकील जमशेदपुरी//

बह्र: 221/2121/1221/212

_____________________________

दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया

हमने कभी जमीर को रुसवा नहीं किया

हमराह मेरे सब ही बलंदी पे हैं खड़े

पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया

जाने न कितनी रात मेरी आंख में कटी…

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Added by शकील समर on October 14, 2013 at 9:00pm — 16 Comments

ग़ज़ल.. निलेश 'नूर' --चलो चलें अब यहाँ से यारो, रहा न अपना यहाँ ठिकाना

1 २ १ २ २ / १ २ १ २ २/ १ २ १ २ २ /१ २ १ २ २

चलो चलें अब यहाँ से यारो, रहा न अपना यहाँ ठिकाना,

नहीं रहा अब, जो हम से रूठे, किसे भला है हमें मनाना.

***

था इश्क़ हमको, था इश्क़ तुमको, मगर बगावत न कर सकें हम,

न तुम ने छोड़ा, न बेवफ़ा हम, न तुम ने समझा, न हम ने जाना.

***

शराब छोड़ी, नशा बुरा था, नज़र से पी ली, नज़र मिलाकर,

नज़र नज़र में नशा चढ़ा यूँ, वो भूल बैठा मुझे पिलाना.

***

न फेरियें मुंह, अभी से साहिब, अभी सफ़र ये शुरू हुआ है,

कत’आ करो…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2013 at 1:00pm — 21 Comments

आज फिर...वही...

आज फिर एक सफ़र में हूँ...

आज फिर किसी मंज़िल की तलाश में,

किसी का पता ढूँढने,

किसी का पता लेने निकला हूँ,

आज फिर...

सब कुछ वही है...

वही सुस्त रास्ते जो

भोर की लालिमा के साथ रंग बदलते हैं,

वही भीड़

जो धीरे-धीरे व्यस्त होते रास्तों के साथ

व्यस्त हो जाती है,

वही लाल बत्तियाँ

जो घंटों इंतज़ार करवाती हैं,

वही पीली गाड़ियाँ

जो रुक-रुक कर चलती हैं,

कभी हवा से बात करती हैं,

तो कभी साथ चलती अपनी सहेलियों से…

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Added by Manoshi Chatterjee on October 16, 2013 at 8:33am — 14 Comments

आख़िरी पड़ाव:दीपक पांडेय

तिमिर में जो दीप्ति अवलोकित अंतिम वही ठिकाना

पथ खोजने पड़ेंगे खुद को, नही चलेगा कोई बहाना

कलेवर की पीर भूलकर लक्ष्य प्राप्ति की करों कामना

कर्म को तुम समझो गुरुवर, वेदनाओं को पाहूना



अंगीकार हो जहाँ पर सुख कहलाए वो आशियाना

मानव की काया नश्वर चरित्र ही असली गहना

रण की सफलता दिखलाए हर अराति को आईना

विजय प्राप्त मैं करता जाऊं सभी की यही तमन्ना



थकी भुजाएँ, लक्ष्य ओझल फिर भी अदम्य पराक्रम

अंकुश रहे चित्त पर यद्यपि प्रदर्शित धैर्य व… Continue

Added by DEEPAK PANDEY on October 16, 2013 at 12:45pm — 11 Comments

बधाई (लघु कथा )

सेमीनार में “कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न” विषय पर अपना भाषण देकर जब प्रिंसीपल साहिब स्टेज से उतरे तो सभी ओर तालियों की गड़गड़ाहट व वाहवाही गूंज रही थी,  सभी लोग बारी-बारी प्रिंसीपल साहिब को बधाईयां दे रहे थे। इसी क्रम में जब एक जूनियर अध्यापिका ने प्रिंसीपल साहिब को बधाई दी तो उन्हे लगा जैसे किसी ने सरे-बाजार उन्हे नंगा कर दिया हो।

- मौलिक व अप्रकाशित

Added by Ravi Prabhakar on October 3, 2013 at 4:00pm — 34 Comments

जीवन संघर्ष - एक कहानी

                              और एक दिन  रामदीन  सचमुच  मर गया । आदर्श  कालोनी  में किसी के भी चेहरे पर दुःख का कोई भाव नहीं था । होता भी क्यों ? रामदीन था ही कौन जिसके  मर जाने पर उन्हें दुःख होता  । रामदीन तो इस कालोनी में रहते हुए भी इस कालोनी का नहीं था । सबके साथ रहते हुए भी  वो और उसका छोटा सा परिवार  अपनी  झोपड़ी में सबसे तनहा रहा करते थे । उसकी मौत से  यदि कोई दुखी थे ,  तो वो थी  फागो - रामदीन की घरवाली ,  उसका  एक  बच्चा टिल्लू, टिल्लू के बगल में बैठा मरियल कुत्ता मोती और टूटे…
Continue

Added by Kapish Chandra Shrivastava on October 4, 2013 at 9:30am — 24 Comments

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