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Sushil Sarna's Blog (846)

इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )

इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )

कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी

आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें

शून्य हैं


अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल

शायद
इस घर से
इस घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बज़ुर्ग


सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 1:39pm — 14 Comments

बेपर्दा ....



बेपर्दा ....

तमाम शब्

अधूरी सी

इक नींद

ज़हन की

अंगड़ाई में

छुपाये रहती हूँ

इक *मौहूम सी

मुस्कान

लबों पे

थिरकती रहती है

सुर्ख रूख़सारों पे

ज़िंदा है

वो तारीकी की ओट में लिया

इक गर्म अहसास का

नर्म बोसा

डर लगता है

सहर की शरर

मेरी हया को

बेपर्दा न कर दे

जिसे छुपाया

अपनी साँसों से भी

कहीं ज़माने को

वो

ख़बर न कर…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 14, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

अब, क्या बोलूं मैं ...

अब ,क्या बोलूं मैं ...

अब

क्या बोलूं मैं



जब

मेरे स्वप्निल शब्दों ने

यथार्थ का

आकार लेना शुरू किया

तो भोर की

एक रशिम ने

मेरे अंतरंग पलों पर

प्रहार कर दिया

मैं अनमनी सी

सुधियों के शहर से

लौट आयी

यथार्थ की

कंकरीली ज़मीन पर

मेरी उम्मीदों की मीनारें

ध्वस्त हो कर

मेरी पलकों की मुट्ठी से

निःशब्द

गिरती रही

तिल-तिल जुड़ने की आस में

मैं रेशा-रेशा

उधड़ती…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 9, 2016 at 8:27pm — 6 Comments

तुम्हारी ज़िन्दगी में ....

तुम्हारी ज़िन्दगी में ....

चलो

तुम ही बताओ

आखिर

कहाँ हूँ

मैं

तुम्हारी ज़िन्दगी में

नसीमे सहर में

स्याह रात के सितारों में

बरसात की बूंदों में

झील के माहताब में

या

तुम्हारी बन्द पलकों के

ख्वाब में

आखिर

कहाँ हूँ

मैं

तुम्हारी ज़िन्दगी में

तेज़ पानी में

बहती कागज़ की

कश्तियों में

साहिलों के बाहुपाश में लिपटी

सागर की लहरों में …

Continue

Added by Sushil Sarna on November 6, 2016 at 3:30pm — 4 Comments

बस , यूँ ही ....

बस , यूँ ही ....

मुस्कुराई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

गुनगुनाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

शरमाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

बहार बन के

आई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

मुझ में समाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

मेरे लिए

रोयी थी

उस रात

क्या तुम

बस …

Continue

Added by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 4:30pm — 6 Comments

अंत के गर्भ में .....

अंत के गर्भ में .....

मैं
व्यस्त रही
अपने बिम्बों में
तुम्हारे बिम्ब को
तलाशते हुए

तुम
व्यस्त रहे
अपने
स्वप्न बिम्बों को
तराशने में

हम
व्यस्त रहे
इक दूसरे में
इक दुसरे को
ढूंढने में

पर
वक्त ने
वक्त न दिया
हम
ढूंढते ही रह गए
आरम्भ को
अंत के गर्भ में

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 2, 2016 at 10:11pm — 2 Comments

इक दिया ....

इक दिया ....

थे कुछ दिए

तेरे नाम के 
जो बुझ के भी
जलते रहे

थे कुछ दिए
मेरे नाम के भी
जो जले
मगर
बे नूर से

बस इक दिया
देर तक
जलता रहा
जो था
हमारे
अबोले

प्यार का

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 29, 2016 at 4:22pm — 8 Comments

नफरत न करना ..

नफरत न करना ..

प्यार

कितनी पावन

अनुभूति है

ये

पात्रानुसार

स्वयं को

हर रिश्ते

के चरित्र में

अपनी पावनता के साथ

ढाल लेता है

ये

आदि है

अनंत है

ये जीवन का

पावन बसंत है

प्यार

तर्क वितरक से

परे है

प्यार तो

हर किसी से

बेख़ौफ़

किया जा सकता है

मगर

नफ़रत !

ये प्यार सी

पावन नहीं होती

ये वो अगन है

जो ख़ुद…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 26, 2016 at 8:30pm — 4 Comments

उपहार.....

उपहार.....

मौसम बदलेगा
तो
कुछ तो नया होगा

गुलों के झुरमट में
मैं तुम्हें
छुप छुप के
निहारता होऊंगा

तुम भी होगी
कहीं
प्रकृति के शृंगार की
अप्रतिम नयी कोपल में
छिपी यौवन की
नयी आभा सी

क्या
दृष्टिभाव की
ये अनुभूति
बदले मौसम का
उपहार न होगी

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 26, 2016 at 1:21pm — 8 Comments

कल का जंगल ......

कल  का  जंगल  ...

खामोश चेहरा

जाने

कितने तूफ़ानों की

हलचल

अपने ज़हन में समेटे है

दिल के निहां खाने में

आज भी

एक अजब सा

कोलाहल है

एक अरसा हो गया

इस सभ्य मानव को

जंगल छोड़े

फिर भी

उसके मन की

गहन कंदराओं में

एक जंगल

आज भी जीवित है

जीवन जीता है

मगर

कल ,आज और कल के

टुकड़ों में

एक बिखरी

इंसानी फितरत के साथ

मूक जंगल का

वहशीपन…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 25, 2016 at 3:04pm — 8 Comments

माँ ...

माँ ...

दर्द का
मंथन हुआ तो
एक सागर
बूँद बन
लहद पर
ऐसा गिरा
कि
गर्म लावे से पिघल

माँ
लहद से बाहर
आ गयी
ले के दर्द बेटे का
फिर
लहद में
समा गयी

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 19, 2016 at 1:00pm — 4 Comments

लम्हा ...

लम्हा ...

ख़ामोश था
मैं जब तलक
हर तरफ़
इक शोर था

खोली जुबाँ
जो मैंने ज़रा
तो
हर शोर
ख़ामोश हो गया

इक लम्हा
ज़लज़ले में सो गया
इक लम्हा
ज़लज़ला हो गया

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 18, 2016 at 1:44pm — 4 Comments

अनबोले लम्स ....

अनबोले लम्स ....

आज मेरे

दिल के आईने में

मुझे

तुम नज़र आये थे

तन्हाई थी

मैं थी

और

तुम थे

अपने लम्स के साथ

मेरे ज़िस्म पर

बे-आवाज़

हौले हौले

रेंगते हुए

मेरी

हर

न को

तुम कुचलते रहे

खामोशियाँ

सरगोशियां करती रहीं

लौ भी

कहीं तारीक में

खो गयी

बस

शेष रही

मैं

और

मेरे ज़िस्म के

हर मोड़ पर

तुम्हारे…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 17, 2016 at 7:51pm — 2 Comments

हार ...

हार ...

ये इश्क-ओ-मुहब्बत के
बड़े अज़ब नज़ारे हैं
उनके दिए दर्दों से
हमने
तन्हा लम्हे सँवारे हैं
लोग
डरते होंगे ज़ख्मों से
मगर
सच कहते हैं
ये ज़ख्म
हमें बहुत प्यारे हैं
रिस्ते ज़ख्मों की
हर टीस पे
हमने सनम पुकारे हैं
अंगार बन के उठती हैं
यादें उनकी
तन्हाई में
कैसे बताएं ज़माने को
हम क्या जीते
क्या हारे हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 12, 2016 at 1:13pm — 6 Comments

विष - एक क्षणिका

विष  - एक क्षणिका :

मानव
तुम तो
सभ्य हो
फिर
विषधर का विष
कहां से
पाया तुमने
क्या
सभ्य वेश में
विषधर भी
रहने लगे

सुशील सरना

मौलिक एवम अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on October 10, 2016 at 8:59pm — 8 Comments

प्रेमाभिव्यक्ति ......

प्रेमाभिव्यक्ति ......

प्रेम आस है

प्रेम श्वास है

प्रेम जीवन की अमिट प्यास है

प्रेम आदि है

प्रेम अन्त है

प्रेम जीवन का अमिट बसंत है

प्रेम चुभन है

प्रेम लग्न है

प्रेम जीवन की अमिट अगन है

प्रेम चंदन है

प्रेम बंधन है

प्रेम जीवन की अमिट गुंजन है

प्रेम रीत है

प्रेम जीत है

प्रेम जीवन की अमिट प्रीत है

प्रेम नीर है

प्रेम पीर है

प्रेम जीवन की प्रेम हीर…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 7, 2016 at 1:15pm — 2 Comments

वादा .....

वादा .....

मेरे ग़मगुसार ने

इक वादा किया था

कि वो हर लम्हा

मेरा ज़िस्म होगा

मेरा हर ग़म

उस पे आशकार होगा

फ़ना की तारीक वादियों में भी

वो मेरे साथ होगा

क्या सच में उसने

इस जहां से

उस जहां तक

साथ निभाने का

वादा किया था

लम्हा दर लम्हा

दूरी का अज़ाब बढ़ता गया

अकेलेपन की शाखाओं पे

यादों का शबाब

बढ़ता गया



साये गुफ़्तगू करने लगे

मेरी अफ़सुर्दा निगाहें

जाने ख़ला में…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 6, 2016 at 2:02pm — 10 Comments

खामोश मौसम ....

खामोश मौसम ....

अपनी ही आवाज़ों के साथ

बैसाखियाँ

आग में जलने लगी

समय

और सुईयों की रफ़्तार

अपनी बेख़ौफ़ चाल के साथ

ज़िन्दा होने का

सबूत देती रही

जज़्बात

हड्डियों की बैसाखियों पर

खामोशियों के लिबास पहने

खुद को ढोते रहे

एक बैसाखी दिल की

किसी शरर की उम्मीद में

तारीकियों से लिपटी

पल पल जलती हुई

ज़ख्मों की तलाशी लेती रही

जलते हुए ख़्वाब

शायद अपनी बैसाखियाँ…

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Added by Sushil Sarna on October 1, 2016 at 8:54pm — 14 Comments

ख़्वाबों की लहद ....

ख़्वाबों की लहद ....

ये आंखें

न जाने कितने चेहरे

हर पल जीती हैं

हर चेहरे के

हज़ारों ग़म पीती हैं

मुस्कुराती हैं तो

ख़बर नहीं होती

मगर बरस कर

ये सफर को अंजाम

दे जाती हैं

ज़हन की मिट्टी को

किसी दर्द का

पैग़ाम दे जाती हैं

मेरी तन्हाईयों को

नापते -नापते

न जाने कितने आफ़ताब लौट गए

मेरी तारीकियों में

हर शरर ने

अपना वज़ूद खोया है

हर लम्हा

किसी न किसी लम्हे के लिए

वक्त की चौखट से…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 30, 2016 at 3:24pm — 14 Comments

पुरानी किताबें ....

पुरानी किताबें ........

पुरानी किताबें

कुछ भी तो नहीं

सिवाय पुरानी कब्रों के

जिनमें दफ़्न हैं

चंद सूखे गुलाब

कुछ सिसकते हुए

मुहब्बत के ख़ुश्क से हर्फ़

कुछ पुराने पीले

टुकड़े टुकड़े से

अधूरे प्रेम के

प्रेम पत्र

पुरानी किताबें

जिनमें सो गयी

जीने की आस लिए

कई आकांक्षाएं

घुटी हुई सांसें

मोटी सी ज़िल्द की

अलमारी में

कैदियों से जीते

मौन कई अफ़साने

जंज़ीरों में…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 28, 2016 at 3:00pm — 12 Comments

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