अपना मयंक....
ये दर्द था या
स्मृति का संदेश
मैं समझ ही न सका
बस जल भरे नयनों से
उस मयंक में
अपना मयंक ढूंढता रहा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on March 24, 2015 at 9:24pm — 8 Comments
चलते चलते ……
1.
एक कतरा
देर तक
बहते बहते
कपोल पर ही सो गया
शायद
अभी इंतज़ार बाकी था
2.
ये अलस्सुब्ह
किसकी नमी को छूकर
बादे सबा आई है
खुली पलक का
कोई ख़्वाब
सिसकता रह गया शायद
3.
तेरे हर वादे पे
यकीं करता रहा
पर तुझे यकीं न आया
मैं हर लम्हा तुझपे
सौ सौ बार मरता रहा
मेरी मौत को भी तूने
मेरी नींद समझा
नज़र भर के भी तूने
न देखा मुझको …
Added by Sushil Sarna on March 23, 2015 at 12:30pm — 28 Comments
सीप में बंद मोती .....
दूर उस क्षितिज पर
रोज इक सुबह होती है
रोज सागर की सूरज से
जीवन के आदि और अंत की बात होती है
जब थक जाता है सूरज
तो सागर के सीने पर
अपना सर रख देता है
और रख देता है
अपने दिन भर के
सफ़र की थकान को
अपने हर सांसारिक
अरमान को
बिखेर देता है
अपनी सुनहरी किरणों की
अद्वितीय छटा को
सागर की शांत लहरों पर
फिर अपने अस्तित्व को
धीरे-धीरे निशा में बदलती
सुरमई सांझ के आलिंगन में…
Added by Sushil Sarna on February 26, 2015 at 1:07pm — 18 Comments
प्रेम अगन है प्रेम लगन हैं.....
प्रेम अगन है प्रेम लगन हैं
प्रेम धरा है प्रेम गगन है
प्रेम मिलन है प्रेम विरह है
श्वास श्वास का प्रेम बंधन है
प्रेम ईश है प्रेम है पूजा
स्मृति घाट का प्रेम मधुबन है
पावन गंगा सा प्रेम समेटे
लिप्त बूंदों में प्रेम नयन है
मौन अधरों में गुन गुन करता
प्रेम में डूबा प्रेम कम्पन है
आत्मसात का भाव समेटे
प्रेम हकीकत प्रेम स्वप्न है
प्रेम अलौकिक अपरिभाषित
हृदय नयन का प्रेम अंजन…
Added by Sushil Sarna on February 23, 2015 at 7:30pm — 16 Comments
कौन पी गया जल मेघों का …..
कौन पी गया जल मेघों का …..
और किसने नीर बहाये //
क्योँ बसंत में आखिर …
पुष्प बगिया के मुरझाये //
प्रेम ऋतु में नयन देहरी पर …
क्योँ अश्रु कण मुस्काये //
विरह का वो निर्मम क्षण ….
धड़कन से बतियाये //
वायु वेग से वातायन के ….
पट क्योँ शोर मचाये //
छलिया छवि उस निर्मोही की …
तम के घूंघट से मुस्काये //
वो छुअन एकान्त की ….
देह विस्मृत न कर पाये //
तृषातुर अधरों से विरह की ….
तपिश सही न जाए…
Added by Sushil Sarna on February 17, 2015 at 7:42pm — 26 Comments
मेरी पलकों को......एक रचना
मेरी पलकों को अपने ख़्वाबों की वजह दे दो
अपनी साँसों में मेरे जज़्बातों को जगह दे दो
जिसकी नमी तुम ये दामन सजाये बैठी हो
उसके रूठे सवालों को जवाबों में जगह दे दो
बंद हुआ चाहती हैं अब थकी हुई पलकें मेरी
अपनी तन्हाई में रूहानी रातों को जगह दे दो
ये ज़िंदगी तो गुज़र जाएगी तेरे हिज्र के सहारे
इन हाथों में कुछ रूठे हुए वादों को जगह दे दो
कल का वादा न करो कि अब न…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 12, 2015 at 8:00pm — 24 Comments
मैं अपनी मुहब्बत को …एक रचना
मैं अपनी मुहब्बत को इक मोड़ पे छोड़ आया हूँ
इक ज़रा सी ख़ता पे मैं हर क़सम तोड़ आया हूँ
जाने कितने लम्हे मेरी साँसों की ज़िंदगी थे बने
मैं तमाम ख़्वाब उनकी पलकों में छोड़ आया हूँ
जिसकी मौजूदगी में खामोशी भी बतियाती थी
अब्र की चिलमन में वो माहताब छोड़ आया हूँ
बन के हयात वो हमसे क्यों बेवफाई .कर गए
उनकी दहलीज़ पे मैं हर आहट छोड़ आया हूँ
हिज्र का दर्द चश्मे सागर में न सिमट पायेगा…
Added by Sushil Sarna on February 6, 2015 at 12:02pm — 18 Comments
ऐ दिल ……
ऐ दिल तू क्यूँ व्यर्थ में परेशान होता है
हर किसी के आगे क्यूँ व्यर्थ में रोता है
कौन भला यहां तेरा दर्द समझ पायेगा
हर अरमान यहां अश्क के साथ सोता है
ऐ दिल तू क्यूँ व्यर्थ में परेशान होता है ……
ये सांझ नहीं अपितु सांझ का आभास है
पल पल क्षरण होते रिश्तों का आगाज़ है
भावों की कन्दराओं में बोलता सन्नाटा है
पाषाणों में कहाँ प्यार का सृजन होता है
ऐ दिल तू क्यूँ व्यर्थ में परेशान होता है…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 1, 2015 at 2:00pm — 12 Comments
मानव का मान करो ….
सिर से नख तक
मैं कांप गया
ऐसा लगा जैसे
अश्रु जल से
मेरे दृग ही गीले नहीं हैं
बल्कि शरीर का रोआं रोआं
मेरे अंतर के कांपते अहसासों,
मेरी अनुभूतियों के दर पे
अपनी फरियाद से
दस्तक दे रहे थे
दस्तक एक अनहोनी की
एक नृशंस कृत्य की
एक रिश्ते की हत्या की
दस्तक उन चीखों की
जिन्हें अंधेरों ने
अपनी गहराई में
ममत्व देकर छुपा लिया
मैं असमर्थ था
अखबार का हर अक्षर
मेरी आँखों की नमी से
कांप रहा…
Added by Sushil Sarna on January 28, 2015 at 3:03pm — 22 Comments
तूने व्यर्थ नयन छलकाये हैं…
राही प्रेम पगडंडी पर
क्योँ तूने कदम बढाये हैं
हर कदम पर देते धोखे
छलिया हुस्न के साये हैं
तेरे निश्छल भाव को समझें
किसके पास ये फुर्सत है
पल भर में ये अपने हैं
अगले ही पल पराये हैं
व्यर्थ है बादल भटकन तेरी
प्रेम विहीन ये मरुस्थल है
तुझे पुकारें तुझसे लिपटें
कहाँ वो व्याकुल बाहें हैं
हर और लगा बाजार यहाँ
हर और मुस्कानों के मेले हैं
छद्म वेश में करती घायल
बे-बाण यहाँ…
Added by Sushil Sarna on January 24, 2015 at 12:30pm — 20 Comments
प्रिय ! इस जीवन का तुम बसंत हो ....
तुम ही आदि हो तुम ही अनन्त हो
प्रिय ! इस जीवन का तुम बसंत हो
नयन आँगन का तुम मधुमास हो
रक्ताभ अधरों की तुम ही प्यास हो
तुम ही सुधि हो मेरे मधु क्षणों की
मेरे एकांत का तुम ही अवसाद हो
नयन पनघट का मिलन पंथ हो
तुम ही आदि हो तुम ही अनन्त हो
प्रिय ! इस जीवन का तुम बसंत हो
इस जीवन की तुम हो परिभाषा
मिलन- ऋतु की तुम अभिलाषा
भ्रमर आसक्ति का मधु पुष्प हो…
Added by Sushil Sarna on January 23, 2015 at 1:06pm — 19 Comments
सांस है मुसाफिर.......(एक रचना )
सांस है मुसाफिर इसको राह में ठहर जाना है
जिस्म के पैराहन को जल के बिखर जाना है
दुनिया को मयखाना समझ नशे में ज़िंदा रहे
होश आया तो समझे कि ख़ुदा के घर जाना है
याद किसकी सो गयी बन के अश्क आँख में
धड़कनें समझी न ये जिस्म को मर जाना है
ज़िंदगी समझे जिसे दरहक़ीक़त वो ख़्वाब थी
सहर होते ही जिसे बस रेत सा बिखर जाना है
कतरा-कतरा प्यार में जिस के हम मरते रहे …
Added by Sushil Sarna on January 22, 2015 at 3:30pm — 18 Comments
प्यार का समन्दर हो .....
किसको लिखता
और क्या लिखता
भीड़ थी अपनों की
पर कहीं अपनापन न था
एक दूसरे को देखकर
बस मुस्कुरा भर देना
हाथों से हाथ मिला लेना ही
शायद अपनेपन की सीमा थी
खोखले रिश्ते
बस पल भर के लिए खिल जाते हैं
इन रिश्तों की दिल में
तड़प नहीं होती
यादों का बवण्डर नहीं होता
बस एक खालीपन होता है
न मिलने की चाह होती है
न बिछुड़ने का ग़म होता है
इसलिए ट्रेन छूटने के बाद
मैंने उसे देने के लिए
हाथ में…
Added by Sushil Sarna on January 19, 2015 at 3:55pm — 17 Comments
ग़म मौत के ......(.एक रचना )
ग़म मौत के कहाँ जिन्दगी भर साथ चलते हैं
चराग़ भी कुछ देर ही किसी के लिए जलते हैं
इतने अपनों में कोई अपना नज़र नहीं आता
अब तो रिश्ते स्वार्थ की कड़वाहट में पलते हैं
दोस्ती राहों की अब राह में ही दम तोड़ देती है
अब किसी के लिए कहाँ दर्द आंसुओं में ढलते हैं
मिट जाते हैं गीली रेत पे मुहब्बत भरे निशाँ
फिर भी क्यूँ लोग गीली रेत पे साथ चलते हैं
सच को छुपा कर लोग…
Added by Sushil Sarna on January 15, 2015 at 4:10pm — 10 Comments
युग्मों का गुलदस्ता …
एक पाँव पे छाँव है तो एक पाँव पे धूप
वर्तमान में बदल गया है हर रिश्ते का रूप
अब मानव के रक्त का लाल नहीं है रंग
मौत को सांसें मिल गयी जीवन हारा जंग
निश्छल प्रेम अभिव्यक्ति के बिखर गए हैं पुष्प
अब गुलों के गुलशन से मौसम भी हैं रुष्ट
तिमिर संग प्रकाश का अब हो गया है मेल
शाश्वत प्रेम अब बन गया है शह मात का खेल
नयन तटों पर अश्रु संग काजल…
Added by Sushil Sarna on January 9, 2015 at 12:30pm — 20 Comments
ये किसकी हया को .... (एक रचना)
ये किसकी हया को छूकर आज बादे सबा आयी है
दिल की हसीन वादियों में ये किसकी सदा आयी है
होने लगी है सिहरन क्यूँ अचानक से इस जिस्म में
किसकी पलक ने अल-सुबह ही आज ली अंगड़ाई है
छोड़ा था इक ख़तूत जो कभी हमने उस दहलीज़ पे
छू के उसकी आग़ोश को ये सुर्ख़ हवा आज आयी है
बिन पिये ही मयख़ानों से क्यूँ रिन्द सब जाने लगे
किसने अपने रुख़्सार से चिलमन आज हटायी है
हमारी तरह बेताबियाँ…
ContinueAdded by Sushil Sarna on January 6, 2015 at 8:28pm — 10 Comments
नव वर्ष कहलायेगा.......
ऐ भानु
तुम न जाने
कितनी सदियों को
अपने साथ लिए फिरते हो
सृजन और संहार को
अपने अंतःस्थल में समेटे
खामोशी से
न जाने किस लक्ष्य की प्राप्ति में
प्रतिदिन स्वयं की आहुति देते हो
आश्चर्य है
धरा के संताप हरने को
अपने सर पर ताप लिए फिरते हो
आदिकाल से
प्रतिदिन अपनी केंचुली बदलते हो
हर आज को काल के गर्भ में सुलाते हो
फिर नए कल के लिए
नए स्वप्न लिए भोर बन के आते हो…
Added by Sushil Sarna on January 2, 2015 at 1:00pm — 14 Comments
साथ मेरे ज़िंदगी की …(एक रचना )
साथ मेरे ज़िंदगी की रूठी किताब रख देना
जलते चरागों में बुझे वो लम्हात रख देना
रात भर सोती रही शबनम जिस आगोश में
रूठी बहारों में वो सूखा इक गुलाब रख देना
कहते कहते रह गए जो थरथराते से ये लब
साथ मेरी धड़कनों के वो जज़्बात रख देना
आज तक न दे सके जवाब जिन सवालों का
साथ मेरे वो सिसकते कुछ जवाब रख देना
मिट गयी थी दूरियां भीगी हुई जिस रात में
एक मुट्ठी…
Added by Sushil Sarna on January 1, 2015 at 1:22pm — 18 Comments
करके घायल ......
करके घायल नयन बाण से
मंद-मंद मुस्काते हो
दिल को देकर घाव प्यार के
क्योँ ओझल हो जाते हो
प्यार जताने कभी स्वप्न में
दबे पाँव आ जाते हो
कुछ न कहते अधरों से
बस नयनों से बतियाते हो
क्षण भर के आलिंगन को
तुम बरस कई लगाते हो
फिर आना का वादा करके
विछोह वेदना दे जाते हो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 29, 2014 at 3:26pm — 14 Comments
अपने वज़ूद की ख़बर इस तरह हम देते हैं
मुट्ठी में रेत उठाकर हम हवा में उड़ा देते हैं
क्या हुआ जो इस उम्र में हम बे-समर हो गए
ये शज़र आज भी गुज़री बहारों की हवा देते हैं
अब हंसी भी लबों पे पैबंद सी नज़र आती हैं
जाने लोग आँखों में कैसे नमी को छुपा लेते हैं
रुख से चिलमन उठते ही नज़रें भी बहकने लगी
हम भी बेजुबानों की तरह पैमाने को उठा लेते हैं
जागते रहे तमाम शब् हम उसके इंतज़ार में
बार बार चरागों…
Added by Sushil Sarna on December 21, 2014 at 7:00pm — 16 Comments
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