जिसका वो अंश है ……
कौन है ज़िंदा ?
वो मैं,जो सांसें लेता है
जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण में नज़र आता है
जो झूठे दम्भ के आवरण में जीवन जीता है
या
वो मैं जो अदृश्य हो कर भी सबमें समाया है
न जिसकी कोई काया है
न जिसका कोई साया है
कितना विचित्र विधि का विधान है
एक मैं, नश्वरता से नेह करता है
एक मैं, अमरत्व के लिए मरता है
मैं के परिधान में जो मैं ज़िंदा है
वही प्रभु का सच्चा परिंदा है …
Added by Sushil Sarna on May 31, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं ……
खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ
पल-पल ..तेरी राह निहारूं
एकांत पलों में तुझे पुकारूं
जीने की कोई आस बता दे
किस मूरत से .नेह लगाऊं
खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ
भोर व्यर्थ मेरी .साँझ व्यर्थ है
तुझ बिन मेरी प्यास व्यर्थ है
अंबर के घन .कुछ तो कह तू
कैसे नयन का ...नीर…
Added by Sushil Sarna on May 30, 2014 at 3:07pm — 12 Comments
आये अजल जिस गोद में ……
कितने निर्दयी हो तुम
दबे पाँव आते हो
मेरे खामोश लम्हों को
अपनी यादों से झंकृत कर जाते हो
झील की लहरों पे चाँद
लहर लहर मुस्कुराता है
मेरी बेबसी को गुनगुनाता है
सबा मेरे गेसुओं से लिपट
मेरी ख़्वाहिशों को बार बार ज़िंदा कर जाती है
तुम्हारे मुहब्बत में डूबे लम्स
मेरे लबों पे कसमसाते हैं
मगर तड़प के इन अहसासों को तुम न समझोगे
तुम क्यों नहीं समझते
मेरे तमाम…
Added by Sushil Sarna on May 29, 2014 at 1:00pm — 20 Comments
हर पतझड़ को ……
ज़िंदगी को ..हर मौसम की जरूरत होती है
उजालों को भी ...अंधेरों की जरूरत होती है
क्यों सिमटे नहीं सिमटते वो बेदर्द से लम्हे
चश्मे अश्क को .खल्वत की ज़रुरत होती है
रात के वाद-ऐ-फ़र्दा पे ..यकीं भला करूँ कैसे
यकीं को भी इक समर्पण की जरूरत होती है
मिट गयी सहर होते ही वो रूदाद-ऐ-मुहब्बत
रूहे- मुहब्बत को आगोश की जरूरत होती है
हिज़्र की सिसकियों से है नम रात का दामन
सोहबते -लब को…
Added by Sushil Sarna on May 20, 2014 at 1:00pm — 20 Comments
प्यार भी करते हो …
प्यार भी करते हो तो शर्तों पे करते हो
लगता है तुम शायद मुहब्बत के अंजाम से डरते हो
क्यों मुड़ मुड़ के अपने निशां तका करते हो
क्यों ज़माने के खौफ को दिल में रखा करते हो
कभी इकरार से तो कभी इंकार से डरते हो
न, न
ऐसे तो प्यार न हो पायेगा
पानी के बुलबुले सा ये प्यार
वक्त की लहरों में खो जाएगा
अहसास कभी शर्तों में समेटे नहीँ जाते
शर्त और सौदे तो बाज़ारों में हुआ करते हैं
समर्पण बाज़ारों में कहां हुआ करते हैँ
इससे…
Added by Sushil Sarna on May 15, 2014 at 4:00pm — 8 Comments
नैन समर्पण ....
नैन कटीले होठ रसीले
बाला ज्यों मधुशाला
कुंतल करें किलोल कपोल पर
लज्जित प्याले की हाला
अवगुंठन में गौर वर्ण से
तृषा चैन न पाये
चंचल पायल की रुनझुन से मन
भ्रमर हुआ मतवाला
प्रणय स्वरों की मौन अभिव्यक्ति
एकांत में करे उजाला
मधु पलों में नैन समर्पण
करें प्रेम श्रृंगार निराला
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 6, 2014 at 5:30pm — 18 Comments
किसका साया ……
किसका साया मुझे जीने कि सज़ा देता है
कफ़स में आरज़ू की .रूह को क़ज़ा देता है
पेशानी पे बहारों की .अलम लिखने वाली
कौन मेरी आँखों को नमी की क़बा देता है
थी जब तलक साथ तो ज़िंदगी हसीन थी
अब दर्दे हिज़्र मुझे .हर लम्हा रुला देता है
मेरे ख्वाबों के शबिस्तानों में ..रह्ने वाली
बेवफा लौ मेँ पतंगा .खुद को जला देता है
बेवजह मेरे अश्कों की ..वज़ह बनने वाली
कौन मुझे कफ़न मेँ साँसों की दुआ देता…
Added by Sushil Sarna on May 5, 2014 at 5:36pm — 14 Comments
मुहब्बतों की ज़मीन पर ....
वो जागती होगी
यही सोच हम तमाम शब सोये नहीं
चुरा न ले सबा नमीं कहीं
हम एक पल को भी रोये नहीं
वो रुख़्सत के लम्हात,वो अधूरे से जज़्बात
बंद पलकों की कफ़स में कैद वो बेबाक से ख्वाब
क्या वो सब झूठ था
क्यों पल पल के वादे हकीकत की धूप में
हरे होने से पहले ही बेदम हो कर झरने लगे
अटूट बंधन के समीकरण बदलने लगे
खबर न थी कि हमारी खुद्दारी
हमें इस…
Added by Sushil Sarna on May 1, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
जमघट था हर ओर वहां
हर ओर अजब सा शोर था
छल्ले धुऐं के थे कहीं
और कहीं वाद विवाद का जोर था
एक अजनबी से बने
एक मूक दर्शक की तरह
हम कुर्सी की तलाश में
भीड़ से हट कर
एक कोनें में खडे
बार बार अपना
चश्मा साफ़ कर
इधर उधर
बार बार झाँक कर
पलकों के भीतर
आँखों की पुतलियों को
डिस्को करवा रहे थे
तभी एक कुर्सी खाली हुई
ओर हमने तुरत फुरत में
एक लाटरी की तरह
उसे झपट लिया
और एक गहरी सांस के साथ बैठ गये…
Added by Sushil Sarna on April 26, 2014 at 4:00pm — 14 Comments
अश्क आँखों में …
अश्क आँखों में हमारी ......हैं निशानी आपकी
जान ले ले न हमारी .......ये बेज़ुबानी आपकी
आपकी खामोशियों का ......शोर अब होने लगा
हो न जाए आम ये .....दिल की कहानी आपकी
लाख चाहा अब न देखें ...आपके ख़्वाबों को हम
क्या करें कम्बख़्त नीदें भी ...हैं दिवानी आपकी
आप मुज़मिर हैं हमारी ...रातों की तन्हाईयों में
बिस्तर की सलवटों में हैं ...यादें सुहानी आपकी
जीने के वास्ते जिस्म से ..सांसें ज़ेहद…
ContinueAdded by Sushil Sarna on April 19, 2014 at 3:26pm — 2 Comments
वो गयी न ज़बीं से …
आबाद हैं तन्हाईयाँ ..तेरी यादों की महक से
वो गयी न ज़बीं से .मैंने देखा बहुत बहक के
कब तलक रोकें भला बेशर्मी बहते अश्कों की
छुप सके न तीरगी में अक्स उनकी महक के
सुर्ख आँखें कह रही हैं ....बेकरारी इंतज़ार की
लो आरिज़ों पे रुक गए ..छुपे दर्द यूँ पलक के
ज़िंदा हैं हम अब तलक..... आप ही के वास्ते
रूह वरना जानती है ......सब रास्ते फलक के
बस गया है नफ़स में ....अहसास वो आपका
देखा न एक…
Added by Sushil Sarna on April 17, 2014 at 5:13pm — 10 Comments
हिज्र में भी उसकी याद ……
आज वो रहगुज़र ..हमें बेगानी सी लगती है
उनके वादों पे यकीं इक नादानी सी लगती है
इक वाद-ऐ-फ़र्दा के साथ उनका यूँ ज़ुदा होना
फिर इंतज़ार उनका इक कहानी सी लगती है
जिनकी आमद से ख़ल्वत जलवत हो जाती थी
दीद-ओ-दिल में वही मूरत .पुरानी सी लगती है
दम भरती थी जो सदा जन्नत तक साथ देने का
तसव्वुर में उसकी तस्वीर .अंजानी सी लगती है
आज मेरे ख्वाब में वो इक शरर बनके चमकी है
हिज्र में भी…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2014 at 4:34pm — 10 Comments
वो पलकों की चिलमन …
वो पलकों की चिलमन उठा के गिराना
वो आँचल के कोने को मुंह में दबाना
ज़हन में है ज़िंदा वो मंज़र मिलन का
भला कैसे भूलूं मैं उसका मनाना
मुहब्बत की रूदाद क्यूँ अश्कों में भीगी
क्यूँ होता है मुहब्बत का दुश्मन ज़माना
गुजरती है करवट में तमाम शब हमारी
सलवटों में सिसकता है दिल का फ़साना
रंज होता है क्या ये न जाने थे अब…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 4, 2014 at 7:30pm — 15 Comments
वक्त की आंधी में ....
कुछ तुमने बढ़ा ली दूरियां
कुछ हम मज़बूर हो गए
अपने अपने दायरों में
इक दूजे से दूर हो गये
चंद लम्हों की मुलाक़ात में
जन्मों के वादे कर लिए
चंद कदम चल भी न पाये
और रास्ते कहीं खो गये
वक्त की आंधी में सारे
स्वप्न गर्द में खो गये
कर न पाये शिकवा कोई
हम दो किनारे हो गये
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 28, 2014 at 5:00pm — 24 Comments
जीवन दर्शन पर ३ मुक्तक :
1.है पानी का बुलबुला ....
है पानी का बुलबुला ....ये जीवन तेरा जीव
बड़े भाग से मानव का ...मिला तुझे शरीर
आती जाती साँसों का ...नहीं कोई विश्वास
आत्म सुख के वास्ते हर ले किसी की पीर
2.मूर्ख मानव काया पे …
मूर्ख मानव काया पे ....तू काहे करे गुमान
नश्वर इस संसार में .....व्यर्थ है अभिमान
जान के भी अंजाम को क्योँ बनता अंजान
तू माया की…
Added by Sushil Sarna on January 23, 2014 at 5:30pm — 13 Comments
मुहब्बतों के पैगाम .....
ये मुहब्बत भी
अजब शै है ज़माने में
उम्र गुज़र जाती है
समझने और समझाने में
कब हो जाती हैं सांसें चोरी
खबर ही नहीं होती
बरसों नहीं आती नींद
उनके इक बार मुस्कुराने में
डूबे रहते हैं पहरों
इक दूसरे के ख्यालों में
जाने गुज़र जाती शब् कैसे
इक दूसरे से बतियाने में
शब् जाती है तो
सहर आ जाती है
सहर क्या आती है…
Added by Sushil Sarna on January 20, 2014 at 1:00pm — 17 Comments
उसका रुमाल …..
टप,टप
टप,टप
अंधेरी रात का
गहरा सन्नाटा
बारिश के बाद
पेड़ों से गिरती बूंदों के
जमीन पर गिरने की आवाजें
सन्नाटे को तोड़ने का
अनवरत प्रयास कर रही थीं
और साथ ही प्रयास कर रही थी वो
अनगिनित बारिशों में
भीगी रातों की भीगी यादें
कहर ढाती बारिश का
तूफ़ान तो रुक जाता है
लेकिन तबाही का मंजर
दूर तक साथ जाता है
जाने सावन…
Added by Sushil Sarna on January 4, 2014 at 12:30pm — 28 Comments
मेरी रचना ऐसी हो
मेरी रचना वैसी हो
घूंघट में है रचना मेरी
न जाने वो कैसी हो
शृंगार करूँ मैं सदा कलम का
नित्य हृदय के भावों से
उस पलक द्वार पर देगी दस्तक
जो मेरी रचना की अभिलाषी हो
मौन अधर हों
मौन नयन हों
मौन प्रेम का
हर बंधन हो
बिन बोले जो
कह दे सब कुछ
मेरी रचना ऐसी हो,
हाँ ,मेरी रचना ऐसी हो…….
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 28, 2013 at 4:30pm — 12 Comments
क्यूँ
हाँ क्यूँ
मेरा मन
मेरा कहा नहीं मानता
क्यूँ मेरा तन
मेरे बस में नहीं
न जाने इस पंथ का अंत क्या हो
किस इच्छा के वशीभूत हो
मेरे पाँव
अनजान उजाले की ओर आकर्षित हो
निरंतर धुल धूसरित राह पे
बढ़ते ही जा रहे हैं
ये तन
उस मन के वशीभूत है
जो स्थूल रूप में है ही नहीं
न जाने मैं इस राह पे
क्या ढूढने निकला हूँ
क्या वो
जो मैं पीछे छोड़ आया
या वो
जो मेरे मन की
गहरी कंदराओं में…
Added by Sushil Sarna on December 27, 2013 at 8:00pm — 24 Comments
तीर चलते हैं मगर तरकश नजर नहीं आता
चाहत में निगाहों को सफर नजर नहीं आता
अंजाम जान के भी पलकों में घर बनाते हैं
क्यूँ दिल टूटने का उन्हें हश्र नजर नहीं आता
आसमान को छूने की तमन्ना करने वालो
क्यों ज़मीं पर तुम्हें टूटा पंख नजर नहीं आता
लगा दिया इल्जाम बेवफाई का उनके सर
क्यूँ आँख से गिरा अश्क नजर नहीं आता
जिस तकिये पे मिल कर गुजारी थी रातें
उस भीगे तकिये का दर्द नजर नहीं आता
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on December 25, 2013 at 12:30pm — 14 Comments
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