मिथ्या अगर जगत ये होता ,क्यूँ कर इसमें आते हम
देवों को भी जो दुर्लभ है ,वह मानुष जन्म क्यों पाते हम
ज्ञानी जन बस यही बताते ,मिथ्या जग के सुख दुःख सारे
पर इस जग में आ कर ही तो ,मोती ज्ञान के पाए सारे
ईश्वर की अद्भुत रचना ये सृष्टि ,नहीं जानता कोई कुछ भी
फिर भी ज्ञान सभी जन बाटें ,मानो स्रषटा हैं बस वे ही
जगत सत्य है या है मिथ्या ,क्यूंकर इसपर करें बहस
ईश्वर प्रदत्त अमूल्य जीवन को ,जिएँ सभी हम जी भरकर
उस अद्भुत कारीगर की ,रचना…
ContinueAdded by Veena Gupta on November 19, 2021 at 4:43am — 3 Comments
.
मेरी ज़ीस्त की कड़ी धूप ने मुझे रख दिया है निचोड़ कर,
अभी शाम ढलने ही वाली थी कोई चल दिया मुझे छोड़ कर.
.
मैं था मुब्तिला किसी ख़ाब में किसी मोड़ पर ज़रा छाँव थी
उसे ये भी रास न आ सका सो जगा गया वो झंझोड़ कर.
.
मेरे दिल में अक्स उन्हीं का था उन्हें ऐतबार मगर न था
कभी देखते रहे तोड़ कर कभी दिल की किरचों को जोड़ कर.
.
जो किताब ए ज़ीस्त में शक्ल थी वो जो नाम था मुझे याद है
वो जो पेज फिर न मैं पढ़ सका जो रखा था मैने ही मोड़ कर. …
Added by Nilesh Shevgaonkar on November 18, 2021 at 5:00pm — 8 Comments
22-22-22-22-22-2
तुम कोई पैग़ाम कभी तो भिजवाओ।
वरना मेरे कबूतर वापिस दे जाओ।
जिसको तुमने अपने दिल से भुलाया है,
क्या ये वाजिब है खुद उसको याद आओ ?
मैने कहा जब,तुमने दिल को ज़ख़्म दिया,
वो बोले, कितना गहरा है, दिखलाओ।
जब से तुम बिछड़े हो, खुद से दूर हूं मैं,
प्लीज़ किसी दिन मुझ को मुझ से मिलवाओ।
आंखों में हैं ख्वाब भरे, पर नींद उड़ी,
गर ये प्यार नहीं तो क्या है, समझाओ।
'वो' कब के…
ContinueAdded by Gurpreet Singh jammu on November 15, 2021 at 11:30am — 6 Comments
2122-1212-22/112
अब तो इंसाफ भी करें साहिब
हक़ मिरा मुझको दे भी दें साहिब (1)
ऊँचे पेड़ों ने फिर से की साजिश
लोग सब धूप में रहें साहिब (2)
आप सब क्यों उड़े हवाओं में
हम ज़मीं पर ही क्यों चलें साहिब (3)
काग़ज़ों पर लिखा तो पढ़ते हैं
पीठ पर भी कभी लिखें साहिब (4)
न ज़मीं है न आसमाँ अपना
ये बता दो कहाँ रहें साहिब (5)
इतना अफ़सोस है अगर फिर तो
शर्म से डूब कर मरें साहिब (6)
आप सुनते नहीं…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on November 13, 2021 at 9:54pm — 10 Comments
2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2
बचपन की याद हमको दिलाती हैं बेटियाँ|
उंगली पकड़ के जब भी घुमाती हैं बेटियाँ|
हाथों से अपने जब भी खिलाती हैं देखिये
दादी की याद हमको दिलाती हैं बेटियाँ|
बेटा बसा है देखिये जब से विदेश में
इस घर के सारे बोझ उठाती हैं बेटियाँ |
जर्जर शरीर में जो न आती है नींद तो
दे दे के थपकियाँ भी सुलाती हैं बेटियाँ|
बेटी की शान में मैं भला और क्या कहूँ,
बेटे से बढ़ के…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 11, 2021 at 9:00pm — 3 Comments
यूँ जो दिल खोलकर मिल रही हो तुम
लगता है के अब मैं तुमको बिल्कुल याद नही
ऐसा होता है निकाह के बाद अक्सर
ऐसा होने मे कोइ गलत बात नही
अब मेरे खयालों से आज़ाद हो तुम
किसी और के साथ आबाद हो…
ContinueAdded by AMAN SINHA on November 11, 2021 at 11:00am — No Comments
बन्धनहीन जीवन :......
क्यों हम
अपने दु :ख को
विभक्त नहीं कर सकते ?
क्यों हम
कामनाओं की झील में
स्वयं को लीन कर
जीवित रहना चाहते हैं ?
क्यों
यथार्थ के शूल
हमारे पाँव को नहीं सुहाते ?
शायद
हम स्वप्न लोक के यथार्थ से
अनभिज्ञ रहना चाहते हैं ।
एक आदत सी हो गई है
मुदित नयन में
जीने की ।
अन्धकार की चकाचौंध को
अपनी सोच की हाला में
मिला कर पीने की…
Added by Sushil Sarna on November 10, 2021 at 1:54pm — 4 Comments
क्या ही तुझ में ऐब निकालूँ क्या ही तुझ पर वार करूँ
ये तो न होगा फेर में तेरे अपनी ज़ुबाँ को ख़ार करूँ.
.
हर्फ़ों से क्या नेज़े बनाऊँ क्या ही कलम तलवार करूँ
बेहतर है मैं ख़ुद को अपनी ग़ज़लों से सरशार करूँ.
.
ग़ालिब ही के जैसे सब को इश्क़ निकम्मा करता है
लेकिन मैं भी बाज़ न आऊँ जब भी करूँ दो चार करूँ.
.
चन्दन हूँ तो अक्सर मुझ से काले नाग लिपटते हैं
मैं भी शिव सा भोला भाला सब को गले का हार करूँ.
.
सब से उलझना तेरी फ़ितरत और मैं इक आज़ाद मनक…
Added by Nilesh Shevgaonkar on November 9, 2021 at 3:30pm — 10 Comments
ज़ुल्म सहना छोड़ कर इन्कार करना सीख ले
है अगर ज़िन्दा पलटकर वार करना सीख ले.
.
एक नुस्ख़ा जो घटा देता है हर दुःख की मियाद
सच है जैसा वैसा ही स्वीकार करना सीख ले.
.
मज़हबों के खेल में होगी ये दुनिया और ख़राब
अपने रब का दिल ही में दीदार करना सीख से.
.
तन है इक शापित अहिल्या चेतना के मार्ग पर
राम सी ठोकर लगा.. उद्धार करना सीख ले.
.
नफ़रतों की बलि न चढ़ जाए तेरी मासूमियत
मान इन्सानों को इन्सां प्यार करना सीख ले.
.
लग न…
Added by Nilesh Shevgaonkar on November 7, 2021 at 7:30pm — 15 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 7, 2021 at 4:00pm — 8 Comments
2122 2122 2122 2
ज़िन्दगी में हर कदम तेरा सहारा हूँ
नाव हो मझधार तो तेरा किनारा हूँ
तुम भटक जाओ अगर अनजान राहों में
पथ दिखाने को तुम्हें रौशन सितारा हूँ
ज़िन्दगी का खेल खेलो तुम निडरता से
हर सफलता के लिए मैं ही इशारा हूँ
राह जीने की सही तुमको दिखाऊंगा
ज़िन्दगी के सब अनुभवों का पिटारा हूँ
साथ क्यों दूं मैं तुम्हारा सोच मत ऐसा
अंश तुम मेरे पिता मैं ही तुम्हारा हूँ
- दयाराम मेठानी…
Added by Dayaram Methani on November 6, 2021 at 10:00pm — 6 Comments
हाँ में हाँ मिलाइये
वर्ना चोट खाइए.
.
हम नया अगर करें
तुहमतें लगाइए.
.
छन्द है ये कौन सा
अपना सर खुजाइये
.
मीर जी ख़ुदा नहीं
आप मान जाइए.
.
कुछ नये मुहावरे
सिन्फ़ में मिलाइये.
.
कोई तो दलील दें
यूँ सितम न ढाइए.
.
हम नये नयों को अब
यूँ न बर्गलाइये.
.
नूर है वो नूर है
उस से जगमगाइए. .
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Added by Nilesh Shevgaonkar on November 5, 2021 at 8:32pm — 9 Comments
जहाँ दिखे अँधियार वहीं पर दीप जलाना
छाये खुशी अपार वहीं पर दीप जलाना
अपने मन के भीतर का जो पापी तम है
'अयं निजः' का भाव जहाँ पलता हरदम है
'वसुधा ही परिवार' जहाँ अंधेरे में है
सबसे पहले यार वहीं पर दीप जलाना
जहाँ दिखे अँधियार………………..
मुरझाए से होठों पर मुस्कान बिछाने
छोटी-छोटी खुशियों को सम्मान दिलाने
जिन दर दीप नहीं पहुँचे हैं उन तक जाकर
रोशन करना द्वार वहीं पर दीप जलाना
जहाँ दिखे…
ContinueAdded by आशीष यादव on November 4, 2021 at 2:30pm — 6 Comments
वज़्न -2122 1122 1122 22/112
क्यों इसे आब दिया सोच के दरिया टूटा
जब समुंदर के किनारे कोई तिश्ना टूटा
एक साबित क़दम इंसान यूँ तन्हा टूटा
देख कर उसको न टूटे कोई ऐसा टूटा
वस्ल की जिस पे मुकद्दर ने लिखी थी तहरीर
वक़्त की शाख़ से वो क़ीमती लम्हा टूटा
तेरे बिन ज़ीस्त मेरी तुझ-सी ही मुश्किल गुज़री
हिज्र में मुझ पे भी तो ग़म का हिमाला टूटा
कुछ न टूटा मेरे हालात की आँधी में बस
जिसमें तुम थे वही ख़्वाबों…
Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on November 3, 2021 at 11:22am — 4 Comments
सब धर्मों का सार जो
वह तो केवल एक
बाह्य रूप दिखता अलग
परम चेतना एक
फैलाते भ्रम व्यर्थ ही
जो विवेक से शून्य
वे मतिभ्रष्ट, विवेकहीन
उन्हे चढ़ा अहमन्य
हुए विषमता से परे
जिन्हे सत्य का बोध
गुण-अवगुण से हो विलग
नित्य बसे मन मोद
प्रकृति और चैतन्य का
आपस का संयोग
उस दर्पण में फलीभूत
हो ज्ञानी का योग
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on November 3, 2021 at 6:44am — 3 Comments
ग़ज़लों का आनन्द समझ में आ जाए
काश तुन्हें यह छन्द समझ में आ जाए.
.
संस्कृत से फ़ारस का नाता जान सको
लफ्ज़ अगर गुलकन्द समझ में आ जाए.
.
रस की ला-महदूदी को पहचानों गर
फूलों का मकरन्द समझ में आ जाए.
.
दिल में जन्नत की हसरत जो जाग उठे
हों कितना पाबन्द समझ में आ जाए.
.
भीषण द्वंद्व मैं बाहर का भी जीत ही लूँ
पहले अन्तर-द्वन्द समझ में आ जाए.
.
मन्द बुद्धि का मन्द समझ में आता है
अक्ल-मन्द का मन्द समझ में आ जाए.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on November 1, 2021 at 6:00pm — 8 Comments
122 122 122 122
किसी और की अब जरूरत नहीं है
मगर तुम न कहना मुहब्बत नहीं है
हुई जब से शादी तो फुर्सत नहीं है
रहूंँ मायके में इज़ाज़त नहीं है
मैं मदहोश उनकी ही यादों में रहता
मुझे भूलने की तो आदत नहीं है
सरे आम होते यहां ज़ुर्म रहते
उसे रोकने की भी हिम्मत नहीं है
तुम्हें गर न देखें थमी सांस रहती
अगर मर गया भी तो हैरत नहीं है
फ़कत इश्क़ में अब दिखावा ही दिखता
नये शोहदों में…
Added by Deepanjali Dubey on November 1, 2021 at 3:00pm — 3 Comments
2122 2122 2122 212
1
जब भी छाए अब्र मुश्किल के वतन की आन पर
खेले हैं तब तब हमारे तिफ़्ल अपनी जान पर
2
आज़मा ले लाख अपना रौब रुतबा शान पर
हो न पाएगा कभी हावी तू हिन्दुस्तान पर
3
हम नहीं होते परेशाँ धर्म से या ज़ात से
ख़ूँ जले अपना तो झूठे और बेईमान पर
4
माना हैं मतभेद भाषा वेष भूषा धर्म में
फ़ख़्र करते हैं प सब भारत के बढ़ते मान पर
5
एक दिन ऐसा भी "निर्मल" देखना तुम…
ContinueAdded by Rachna Bhatia on November 1, 2021 at 11:00am — 5 Comments
रद्दी - लघुकथा -
"अरे, ये क्या, सारी की सारी पुस्तकें वापस लेकर आ गये।"
"क्या करूं पुष्पा, तुम ही बताओ? पूरा दिन बाजार में घूमता रहा इतना भारी इतनी कीमती पुस्तकों का बैग लेकर, लेकिन कोई दुकानदार…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 30, 2021 at 7:05pm — 8 Comments
संगदिल फिर ज़िन्दगी है उससे टकराना भी क्या !
फोड़कर सर अपना यारो रोना-चिल्लाना भी क्या !!
कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम,
बंद दरवाजों के आगे सर को टकराना भी क्या !
कर खुदा की बन्दगी और एहतराम उसका कर ले,
लोग ही क़मज़र्फ हों गर उनको जतलाना भी क्या !
बढ़ रही तन्हाईयाँ है उम्र के बढ़ने के साथ,
खाली-खाली जीस्त है गर वो सर खुजलाना भी क्या !
नौंचनी हैं उनको लाशें क़ौम भी तो बाँटनी,
शहर सौदागर आये उनको…
Added by Chetan Prakash on October 29, 2021 at 6:30am — No Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |