समय का पहिया - लघुकथा -
सुशीला ने घर परिवार और समाज के विरोध के बावजूद एक राजपूत लड़के को अपना हमसफ़र बनाने का निर्णय किया। समूचा वैश्य समाज हतप्रभ था उसके इस फ़ैसले पर। लड़का राजपूत वह भी फ़ौज में अफ़सर। सारी बिरादरी लड़की के भाग्य को कोस रही थी। माँ ने तो रो रो कर घर आँसुओं से भर दिया था। उनकी एक ही चिंता थी कि एक बनिये की बेटी राजपूत परिवार में कैसे निभा…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on December 11, 2021 at 12:30pm — 6 Comments
1121 - 2122 - 1121 - 2122
जो भुला चुके हैं मुझको मेरी ज़िन्दगी बदल के
वो रगों में दौड़ते हैं ज़र-ए-सुर्ख़ से पिघल के
जिन्हें अपने सख़्त दिल पर बड़ा नाज़ था अभी तक
सुनी दास्ताँ हमारी तो उन्हीं के अश्क छलके
तेरी बेरुख़ी से निकले मेरी जान, जान मेरी
मुझे देखता है जब तू यूँ नज़र बदल-बदल के
जो नज़र से बच निकलते तेरी ज़ुल्फ़ें थाम लेतीं
चले कैसे जाते फिर हम तेरी क़ैद से निकल के
न मिटाओ…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 11:59am — 16 Comments
1222 - 1222 - 1222 - 1222
फ़क़त रिश्ते जताने को यहाँ मेरी ज़रूरत है
अज़ीज़ों को सिवा इसके कहाँ मेरी ज़रूरत है
मुझे ग़म देने वाले आज मेरी राह देखेंगे
मुझे मालूम है उन को जहाँ मेरी ज़रूरत है
मेरे अपने मेरे बनकर दग़ा देते रहे मुझको
सभी को ग़ैर से रग़्बत कहाँ मेरी ज़रूरत है
लिये उम्मीद बैठे हैं वो मेरी सादा-लौही पर
चला आता हूँ मैं अक्सर जहाँ मेरी ज़रूरत है
कभी इतराते हैं ख़ुद पर कभी सहमे…
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 10, 2021 at 6:54pm — 18 Comments
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ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते
तो आफ़ताब से बढ़कर चमक रहे होते.
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बदन की सिगड़ी के शोलों पे पक रहे होते
वो मेरे साथ अगर सुब्ह तक रहे होते.
.
तेरी शुआओं को पीकर बहक रहे होते
मेरी हवस को मेरे होंट बक रहे होते.
.
सुकून मिलता हमें काश जो ये हो जाता
कि हम भी यार के दिल की कसक रहे होते.
.
तेरी नज़र से उतरना भी एक नेमत है
वगर्न: आँखों में सब की खटक रहे होते.
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लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम
अगर जो…
Added by Nilesh Shevgaonkar on December 10, 2021 at 6:31pm — 20 Comments
122 122 122 122
कहो तो सुना दूँ फ़साना किसी का
वो इज़हार-ए-उल्फ़त जताना किसी का
सुधार
नज़र से महब्बत जताना किसी का
हँसाना किसी का रुलाना किसी का
भुलाओगे कैसे सताना किसी का
नहीं रोक पाई कभी चाहकर मैं
दबे पा ख़यालों में आना किसी का
है यह भी महब्बत का दस्तूर यारो
न दिल भूले जो दिल से जाना किसी का
बहुत कोशिशें कीं मनाने की फ़िर भी
न मुमकिन हुआ लौट आना किसी का
दिल ए…
ContinueAdded by Rachna Bhatia on December 9, 2021 at 11:30am — 19 Comments
१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
बजेगा भोर का इक दिन गजर आहिस्ता आहिस्ता
सियासत ये भी बदलेगी मगर आहिस्ता आहिस्ता/१
*
सघन बादल शिखर ऊँचे इन्हें घेरे हुए हैं पर
उगेगी घाटियों में भी सहर आहिस्ता आहिस्ता/२
*
हमें लगता है हर मन में अगन जलने लगी है अब
तपिस आने लगी है जो इधर आहिस्ता आहिस्ता/३
*
हमीं कम हौसले वाले पड़े हैं घाटियों में यूँ
चढ़े दिव्यांग वाले भी शिखर आहिस्ता आहिस्ता/४
*
अभी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2021 at 6:30am — 8 Comments
निर्णय तुम्हारा निर्मल
तुम जाना ...भले जाना
पर जब भी जाना
अकस्मात
पहेली बन कर न जाना
कुछ कहकर
बता कर जाना
जानती हो न, चला जाता…
ContinueAdded by vijay nikore on December 7, 2021 at 12:00pm — 3 Comments
दोहा त्रयी. . . . . .
ह्रदय सरोवर में भरा, इच्छाओं का नीर ।
जितना इसमें डूबते, उतनी बढ़ती पीर ।।
मन्दिर -मन्दिर घूमिये , मिले न मन को चैन ।
मन के मन्दिर को लगें, अच्छे मन के बैन ।।
झूठे भी सच्चे लगें, स्वार्थ नीर में चित्र ।
मतलब के संसार में, थोड़े सच्चे मित्र ।।
सुशील सरना / 6-12-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 6, 2021 at 3:08pm — 10 Comments
तेरे स्नेह के आंचल की छाँह तले
पल रहा अविरल कैसा ख़याल है यह
कि रिश्ते की हर मुस्कान को
या ज़िन्दगी की शराफ़त को
प्यार के अलफ़ाज़ से
क़लम में पिरो लिया है,
और फिर सी दिया है... कि
भूले से भी कहीं-कभी
इस रिश्ते की पावन
मासूम बखिया न उधड़े
और फिर कस दिया है उसे
कि उसमें कभी भी अचानक
वक़्त का कोई
झोल न पड़ जाए।
सुखी रहो, सुखी रहो, सुखी रहो
हर साँस हर धड़कन दुहराए
स्नेह का यही एक ही…
ContinueAdded by vijay nikore on December 5, 2021 at 5:06pm — 18 Comments
मन से मन की हो गई, मन ही मन में बात ।
मन ने मन को वस्ल की, दी मन में सौगात ।
मन मधुकर मन पद्म में, ढूँढे मन का छोर -
साथ निशा के हो गया , मन में उदित प्रभात ।
तन में चलते श्वास का, मत करना विश्वास ।
इस तन के अस्तित्व का, श्वास -श्वास आभास ।
ये जीवन है मरीचिका , इसकी साँझ न भोर -
झूठा पतझड़ है यहाँ, झूठा है मधुमास ।
सुशील सरना / 4-12-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 4, 2021 at 12:00pm — 4 Comments
रहीम काका - लघुकथा -
"गोविन्द, यार कहाँ है तू? बस चलने वाली है।हम बार बार बस वालों को निवेदन कर रुकवा रहे हैं। अब उन्होंने केवल दस मिनट का समय दिया है।”
"मैं पांच मिनट में पहुंच रहा हूँ।"…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on December 4, 2021 at 9:27am — 8 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
मन था सुन्दर तो वदन की हर कमी अच्छी लगी
उस के अधरों ने कही जो शायरी अच्छी लगी/१
*
सात जन्मों के लिए वो बन्धनों में बँध गये
जिन्दगी के बाद जिनको जिन्दगी अच्छी लगी/२
*
आँख चुँधियाती रही जो पास में अपनी सनम
दूर तम में बैठकर वो रोशनी अच्छी लगी/३
*
एक हम ही भागते रंगीनियों से दूर नित
और किसको बोलिए तो सादगी अच्छी लगी/४
*
हाथ में था हाथ उनका दूर तक कोई न…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2021 at 7:32pm — 8 Comments
22-22-22-22-22-22-22-2
उस लड़की को डेट करूँ ये मेरी पहली ख़्वाहिश है।
और ये ख़्वाहिश पूरी हो जाए बस ये दूजी विश है।
हँसना, शर्माना, भरमाना और फिर ना ना ना करना,
उस लड़की का हर इक नख़रा सचमुच कितना गर्लिश है।
मेरा बांकपना और उसकी मस्ती जब आपस में मिले,
ये जो प्यार हमारा है ये उस पल की पैदाइश है।
मेरे ख़्वाब में आना हो तो छाता लेकर आना तुम,
मेरी आँखों के ख़ित्ते में अक्सर रहती बारिश है।
क्यों न हुई वो मेरी?…
ContinueAdded by Gurpreet Singh jammu on December 2, 2021 at 7:39pm — 8 Comments
लव यू -लव यू कहते रहो ,मिस यू -मिस यू जपते रहो
पीठ फिरे तो गो टू हैल ,नारा भी बुलंद करो
नहीं रहे वो सच्चे रिश्ते ,प्यार जहां पर पलता था
आज के रिश्ते बस एक छलावा,सबकुछ एक दिखावा है
मात-पिता का प्यार भी अब ,लगता ज़िम्मेदारी है
भाई बहन का प्यार अब बस एक नातेदारी है
रिश्तों का जहां मान नहीं ,कैसा युग ये आया है
कहते हैं वे हमें पुरातन ,पर नवयुग से क्या पाया है ?
पति-पत्नी के रिश्तों की भी ,गरिमा अब है कहाँ बची
नित होते तलाक़ों…
ContinueAdded by Veena Gupta on November 30, 2021 at 1:09am — 2 Comments
बल रहित मैं हूँ भीम कहता है
तुच्छ खुद को असीम कहता है/१
*
जिसकी आदत है घाव देने की
वो स्वयम को हकीम कहता है/२
*
आम पीपल को भूल बैठा वो
और कीकर को नीम कहता है/३
*
राम से जो गुरेज उस को नित
क्यों तू खुद को रहीम कहता है/४
*
धर्म क्या है समझ न पाया जो
धर्म को वो अफीम कहता है/५
*
हाथ जिसका है कत्ल में या रब
वो भी खुद को नदीम कहता…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 29, 2021 at 10:04pm — 4 Comments
तेरे मेरे दोहे :......
बनकर यकीन आ गए, वो ख़्वाबों के ख़्वाब ।
मिली दीद से दीद तो, फीकी लगी शराब ।।
जीवन आदि अनंत का, अद्भुत है संसार ।
एक पृष्ठ पर जीत है, एक पृष्ठ पर हार ।।
बढ़ती जाती कामना ,ज्यों-ज्यों घटता श्वास ।
अवगुंठन में श्वास के, जीवित रहती प्यास ।।
कल में कल की कामना ,छल करती हर बार ।
कल के चक्कर में फँसा , ये सारा संसार ।।
बेचैनी में बुझ गए , जलते हुए चराग़ ।
उम्र भर का दे गए, इस…
Added by Sushil Sarna on November 28, 2021 at 1:30pm — 16 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
कैसे किसी की याद में सब कुछ भुला दूँ मैं
क्यों कर हसीन ख्वाब की बस्ती मिटा दूँ मैं/१
*
बचपन में जिसने आँखों को आँसू नहीं दिया
क्योंकर जवानी जोश में उस को रुला दूँ मैं/२
*
शायद कहीं पे भूल से वादा गया मैं भूल
जिससे लिखा है न्याय में खुद को दगा दूँ मैं/३
*
घर में उजाला मेरे भी आयेगा डर यही
पथ में किसी के दीप तो यारो जला दूँ मैं/४
*
अपना पराया भेद वो भूलेगा इस से क्या
उसकी जमीं में अपनी भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 27, 2021 at 11:14pm — 2 Comments
भूख नैसर्गिक है ,
पर रोटी , रोटी
नैसर्गिक नहीं है।
भूख का निदान
स्वयं को करना होता है ,
रोटी कमानी पड़ती है ,
रोटी खरीदनी पड़ती है ,
रोटी पर टैक्स चुकाना पड़ता है ,
रोटी निदान है , आय का जरिया है।
भूख ऐसी कुछ नहीं , उसका निदान ,
आदमी से क्या कुछ नहीं करा देता है ,
उसे एक शब्द में कमाई कह देते हैं।
अपने लिए , अपने पेट के लिए।
सब कुछ नैसर्गिक है ......... ?
व्यापार के लिए , राजस्व के लिए।
मौलिक…
ContinueAdded by Dr. Vijai Shanker on November 27, 2021 at 11:29am — 2 Comments
११२१/२१२२/११२१/२१२२
भरें खूब घर स्वयं के सदा देशभर को छल के
मिले सारे अगुआ क्योंकर यहाँ सूरतें बदल के/१
*
गिरी राजनीति ऐसी मेरे देश में निरन्तर
कोई जेल से लड़ा तो कोई जेल से निकल के/२
*
मिटा भाईचारा अब तो बँटे सारे मजहबों में
सही बात हैं समझते कहाँ लोग आजकल के/३
*
हुई कागजों में पूरी यूँ तो नीर की जरूरत
चहुँ ओर किन्तु दिखते हमें सिर्फ सूखे नल के/४
*
कई दौर गुफ्तगू के किये हल को हर समस्या
नहीं आया कोई रस्ता कभी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 25, 2021 at 11:22pm — 2 Comments
1222 1222 1222 1222
जरा सा मसअला है ये नहीं तकरार के क़ाबिल
किनारा हो नहीं सकता कभी मझधार के क़ाबिल
न ये संसार है मेरे किसी भी काम का हमदम
नहीं हूँ मैं किसी भी तौर से संसार के क़ाबिल
न मेरी पीर है ऐसी जिसे दिल में रखे कोई
न मेरी भावनायें हैं किसी आभार के क़ाबिल
ये मुमकिन है ज़माने में हंसी तुझसे ज़ियादा हों
सिवा तेरे नहीं कोई मेरे अश'आर के क़ाबिल
मेरे आँसू तुम्हारी आँखों से बहते तो अच्छा…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 25, 2021 at 12:00pm — 14 Comments
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