ऋषि मुनियों की ये धरती
बहती ज्ञान की गंगा
योगी सिद्ध जन पूजे जाते
था मन निर्मल तन चंगा
कोई गाये लहराए कोई पूछे
बाबा रे बाबा तेरा रंग कैसा
दिव्य मुस्कान ले बाबा बोले
जिसमें मिला दो उस जैसा
काल बदला विचार बदला
आदमी का हाल बदला
अंधविश्वास आधुनिकीकरण की दौड़
बाबाओं ने भी चोला बदला
बिकता पानी बिकता खून
बिकती भूख गिरते भ्रूण
अस्मत बिकती कटते वन
सफ़ेद चोला काला मन
बिक रही जब हर चीज
बाबा फिर…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 7, 2012 at 9:30pm — 12 Comments
जीवन और मृत्यु
आत्मा परमात्मा
सत्य और असत्य
शाश्वत मूल्यों का सत्य
धूप और छाँव
साथ नहीं होती
गमछा संग धोती
बिना सीप मोती
बगैर दीप ज्योति
स्त्री स्त्री देख रोती
पोता हो या पोती
कैसे मिलता जीवन का
अनुपम सुन्दर उपहार
किसी घर में बेटी न होती
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 1, 2012 at 4:30pm — 22 Comments
हाँ वो मेरी बेटी है
जो बगल में लेटी है
मेरा प्यार है वो
जीवन की बहार है वो
हमारे प्यार की निशानी
एक अनकही कहानी
खिलखिलाहट उसकी
दीवाना करती है
जाएगी …
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 24, 2012 at 6:29pm — 28 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 12, 2012 at 1:30pm — 28 Comments
सूरज की गरमी को देखो, पड़ती सब पे भारी
सूखे ताल तलैया भाई, पिघली सड़कें सारी
सूख चली देखो हरियाली, सहमा उपवन सारा.
पंथिन को तो छांह नहीं अब, क्योंकर चलता…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 7, 2012 at 12:30pm — 29 Comments
आंदोलित विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने अपनी मांगे सरकार से मनवाने हेतु व्यस्ततम चौराहे को मानव श्रृंखला बना कर घेर दिये थे, मेरे नेर्तित्व में भी एक संगठन नारेबाजी और रास्ता अवरुद्ध करने मे संलग्न था, भीड़ में कुछ मरीजों के परिजन अपनी गाड़ियों को आगे जाने देने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, राधे बाबू जोर जोर से सभी को निर्देशित कर रहे थे कि एक व्यक्ति को भी आगे नहीं जाने देना है, चाहे कुछ हों जाए | एकाएक राधे बाबू का स्वर बदला और कहने लगे कि जाने दो भाई मरीजों की गाड़ियों…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 28, 2012 at 4:03pm — 18 Comments
मैं कौन हूँ ?
अनंत आकाश या अन्तरिक्ष का मौन हूँ
धरती का श्रृंगार हूँ पाताल का आधार हूँ
पर्वतों में हूँ शिखर पाषाण में भगवान हूँ
नदियों का पाट हूँ निर्बाध उसका बहाव हूँ
झरने सा पतन मेरा झर झर आवाज हूँ…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 27, 2012 at 6:29pm — 11 Comments
बात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है . आंदोलित कर्मचारी संगठनों द्वारा अपनी मांगों को शासन तक ज्ञापन के माध्यम से पहुँचाने हेतु निर्णय लिया गया कि सर्व प्रथम सभी कर्मचारी अपने - अपने कार्यालय में एकत्रित होंगे. फिर कार्यक्रम स्थल पर अपने -अपने बैनर के साथ जलूस के रूप में पहुचेंगे जहाँ पर मानव श्रखला बनाकर प्रदर्शन किया जायेगा. सवेरे से ही विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी अपने-अपने कार्यालय से एक जलूस के रूप में अपनी मांगों के समर्थन में नारे लगाते हुए पहुँचने लगे और मानव…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 21, 2012 at 2:30pm — 2 Comments
मनु और राकेश इंजीनियरिंग कोलेज में साथ - साथ पढ़ते थे. न जाने कब एक दूसरे को चाहने लगे पता ही नहीं चला. प्यार बिजली की तरह होता है जो दिखता तो नहीं महसूस होता है. प्यार की परिणिति विवाह के पवित्र सूत्र बंधन में हुई. यद्दपि कि प्रारंभ में परिवार, रिश्तेदारों और समाज के काफी विरोध का सामना इन दोनों को करना पड़ा , और विरोध स्वाभाविक भी था. खुद के परिवार में ऐसा हो जाये तो लोग खामोश रहते हैं अगर अन्य जगह ऐसा प्रकरण सामने आये तो फिर क्या कहने. सात पीढ़ियों तक के गुणगान किये जाते हैं. प्रेम विवाह…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 17, 2012 at 6:00pm — 18 Comments
तनहा खड़ा एक पेड़ हूँ मैं
मन ही मन खड़ा छटपटाता हूँ
अतीत की धुंद में खो जाता हूँ
कभी था बाग़ ए बहार यहाँ
उजड़ा गुलशन बिखरा ये चमन
लगता अब जैसे शमशान यहाँ
आज न वो आँगन है
न ही वे संगी साथी …
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 10, 2012 at 1:17pm — 6 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 8, 2012 at 2:56pm — 4 Comments
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 5, 2012 at 11:30am — 10 Comments
(ओ.बी.ओ. का अपना बैज है. ये रचना ओ.बी.ओ. गीत हेतु तैयार की है.)
भटकता फिर रहा था न जाने कब से भीड़ में एक आस लिए
मुट्ठी भर पा जाऊं धरा औ ज्ञान की एक बूँद का विश्वास लिए
मिली जानकारी जब कि ओ.बी.ओ. एक ऐसा आधार है
गुनी जनों के सानिध्य मिले तो अवश्य तेरा बेडा पार है
गजल छन्द और कई भाषाओँ के हैं विधान यहाँ ,
कहानी और कविता का मिलता है ऐसा ज्ञान कहाँ
नए पुराने और धर्म जाति का न कोई भेद यहाँ
वो जगह बताएं…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 4, 2012 at 6:00pm — 10 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 1, 2012 at 4:00pm — 20 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 30, 2012 at 9:55pm — 6 Comments
भुजंग तुम
वतन के लिए
व्याल हम
वतन के लिए
कलंक तुम
वतन के लिए
तिलक हम
वतन के लिए
दुश्मन हो
वतन के लिए …
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 22, 2012 at 11:06pm — 20 Comments
राष्ट्र धर्म राष्ट्र चेतना
की सुधि किन्हें कब आती है
घर की देहरी पर चुपके से वो
जलते दीपक को आँचल उढ़ाती है
कुछ करते नमन शहीदों को
कुछ घर में ही रह जाते हैं…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 22, 2012 at 9:00pm — 21 Comments
शस्य श्यामला धरती अपनी
भाल हिमालय मुकुट श्रंगार है
झर झर झरते झरने मही पर
कल कल बहती नदियों की बहार है
ये भारत देश हमार है
कई सम्प्रदायों से बसी ये धरती…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 20, 2012 at 4:03pm — 19 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 18, 2012 at 10:00pm — 15 Comments
रात्रि का अंतिम प्रहर घूम रहा तनहा कहाँ
थी ये वो जगह आना न चाहे कोई यहाँ
हर तरफ छाया मौत का अजीब सा मंजर हुआ
घनघोर तम देख साँसे थमी हर तरफ था फैला धुआं
नजर पड़ी देखा पड़ा मासूम शिशु शव था
हुआ जो अब पराया वो अपना कब था
कौंधती बिजलियाँ सावन सी थी लगी झड़ी
कौन है किसका लाल है देख लूं दिल की धड़कन बढ़ी
देखा तनहा उसे सर झुकाए समझ गया कि उसकी दुनिया लुटी
जल रही थी चिताएं आस पास ले रही थी वो सिसकियाँ घुटी घुटी
देती कफ़न क्या कैसे…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 17, 2012 at 10:00pm — 26 Comments
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