न होता परवाना तो जलके शरार क्या होता
न होती शम्मा तो फिर जाँनिसार क्या होता
तेरे हाथों मेरा रेज़एइश्क नागवार क्या होता
अगर उड़ता नहीं हवाओं में गुबार क्या होता
वफाशनास कब हुआ है हुस्न आप ही बोलो
अगर जो होता वो वैसा तो प्यार क्या होता
मुझे यकीन है वादों पे कि ये मेरी चाहत है
जोहोता न खुदपे तो तेरा ऐतेबार क्या होता
लिखी जाती कहानियां हमारी भी हाशिए पर
मैं तेरे चाहने वालोंमें होके शुमार क्या…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 8, 2012 at 3:54pm — No Comments
सर्द सी सुबह और बेरंग सा आसमान. तेज़ बहती हवा और नशे में झूमते से दरख्तोशज़र. चौथी मंज़िल पे मेरा एक अकेला कमरा. बड़ा सा और खाली खाली. सलवटों से भरा बिस्तर, सिकुड़े सहमे से तकिए, किसी नाज़नीन के आँचल सा लहरा के लरज़ता हुआ लेटा कम्बल. सोफे पे रखा शिफर (शून्य) में ताकता खाली ट्रवेल बैग. पति-पत्नी-से अकुला के अगल-बगल मेज़ पे पड़े जिभ्भी (टंग क्लीनर) और टुथ ब्रश- किसी साहूकार के पेट सा फूला टूथपेस्ट... तो किसी गरीब की आंत सा सिकुड़ा मेरे शेविंग क्रीम का ट्यूब. दरवाज़े और दरीचों को बामुश्किल ढँक…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:56am — 3 Comments
मुद्दत हो गई है कुछ भी लिखे, इक अधूरापन समा गया हो जैसे मेरे अन्दर, और गोया ये अधूरापन अपने अधूरेपन के अधूरेपन में ही मुतमईन हो. भोपाल से सफर पे आमादा हुए तीन हफ्ते गुज़र गए हैं और इन तीन हफ़्तों में कई मंज़िलात से गुज़रा- इंदौर-बैंगलोर-चेन्नई-बैंगलोर-मैसूर-बैंगलोर-चेन्नई- और फिर वापस बैंगलोर. आगे आने वाले दिनों में और भी कई जगहों का कयाम करना है- अहमदाबाद, पुणे, नॉएडा, जयपुर.... कभी हवा में थम से गए हवाई जहाज़, कभी लोहे की पटरियों पे दौड़ती रेल, कभी फर्राटे से भागती कार, तो कभी वोल्वो बस की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 1, 2012 at 5:30pm — 6 Comments
प्यार की इक खोई नज़र आज फिर लौट आयी, झुकी आँखों का दबा दबा भंवर आज फिर याद हो आया. ज़मीन पे बिछे तोशक पे, दीवार से लगके बैठे, कँवल सी फ़ैली हथेलियों में अपनी ठोढ़ी संभाल के, अपनी लरज़ती ज़ुल्फों के काकुल के झरोखे से ज़मीन को ताकते हुए तुम किसे सोचती थीं? मैं जानता हूँ, वो मैं ही था और और थीं तो हमारे बेसाख्ता पैदा हुए प्यार के गैरमुऐयन मुस्तकबिल (अनिश्चित भविष्य) की तश्वीशात (चिंताएं)! फिक्रमंद, अपनी सतर उँगलियों से मिट्टी पे जो अबूझ से नक्श तुमने उकेरे थे, ...इक शाम मेरे साथ, आज वो ख़्वाबों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 15, 2012 at 9:12pm — 5 Comments
रात की सन्नाटगी बोलने लगी है, कानों की वीरानियाँ सुनने. कालोनी की सडकों पे तन्हाईयों के डेरे लग चुके हैं और घरों में लोग अपने अपने बिस्तर पे कटे दरख्तों की मानिंद बिछ से गए हैं. किसी किसी घर से टीवी के चलने की आवाज़ भी आ रही है, पता नहीं देखने वाला जाग भी रहा है या सो रहा है. लोग इक समूचे दिन को पीछे छोड़ आए हैं और रोज़मर्रा की तमाम कदोकाविश (भाग दौड़) जैसे उनके कपड़ों के साथ आलमीरों में टंग गई है इक रात के आराम के लिए. जूते मेज के किनारे चुपचाप पड़े हैं, उनके तस्में (फीते) लहराते अंदाज़ में…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 7, 2012 at 12:28am — No Comments
ये जो शहरेवीराँ ये बस्तीएतन्हाई है
आदमोहव्वाकी यही दौलतेआबाई है
चलिए रखके अपनी रफ़्तार पे काबू
ख्यालोंका शह्र है आबादीहीआबादी है
कोई रोटी चाहे फूली, या न फूली हो
तवे से आखिर उतार ही दी जाती है
ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के
सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है
तू फ़िक्रज़दा होती है तो यूँ लगता है
एक चिड़या है, बिल्ली से घबराती है
नसही तू तेरे नामसे वाबस्तगी सही
तुझसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 5, 2012 at 7:00pm — 4 Comments
कोई दिन यूँ ही उदास सा बारिश का, इक नीम के दरख्त सा खड़ा, बिना परिंदों का, न ही कोई फूल महकते, न ही कोई चिड़िया चहकती, बस बारिश की बूंदों को टपकाते ख्यालों से चुप, ऊँचाइयों को छूते शज़र, पानी और नमी से झुके-झुके.
सुबह से बादलों के काले सायों का आँचल ओढ़ रखा है फ़ज़ा ने, घरों ने भी जैसे खामोशी की बरसाती ओढ़ रखी है, पहचाने घर भी पराए से लगते हैं. गली में कुत्ते भी भागते छुपते शायद ही नज़र आते, लोग भी कम ही दीखते हैं नुक्कड़ की दूकानों के इर्द गिर्द, गाड़ियों ने भी गोया आज…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 5, 2012 at 3:30pm — 2 Comments
ज़िंदगी क्या है? बचपन गुज़र गया, जवानी बीत गई, ज़ईफ़ी उफ़ुक़ (क्षितिज) पे आ चुकी है. बेफिक्री, नाइल्मी, मासूमी, और मौजोमस्ती के दौर अब रहे नहीं; मआशी (आर्थिक), इज्देवाजी (दाम्पत्य), इन्फिरादी (व्यक्तिगत), कुनबाई (पारिवारिक), और समाजी फिक्रों के तानेबानों में पल पल की राह ढूँढते रहते हैं. हमें किसकी तलाश रहती है, दिल क्यूँ कभी खुश तो कभी रंजोगम (दुःख और दर्द) से माज़ूर (व्यथित) होता है, इक ही सूरत को पहने माहौल कभी क्यूँ दिलकश तो कभी दिल पे गराँ (भारी) लगते हैं?
बच्चे छोटे थे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 4, 2012 at 2:10pm — No Comments
ज़िंदगी के रुपहले परदे पे हम किसी साए की तरह जी रहे हैं, कायनात से आ रही शुआ बिखर कर रंगीन हो गयी है. जब भी कुछ टूटा है, कुछ नया बना है. जब भी कहीं कुछ नया हुआ, कहीं कुछ पुराना छूट गया है. हालात में तरतीब (व्यवस्था) की तलाश की तो बेतरतीबियां ही बेतरतीबियाँ नज़र आईं और जब किसी भी हाल में गाफ़िल (बेसुध) होके जिया तो बेतरतीबियों के सिलसिले में भी इक तसलसुल (क्रम) सा बन गया. अजीब इत्तेफाक़ है कि इत्तेफाक़ भी तय लगते हैं और ये भी कि तयशुदा ज़िंदगी में इत्तेफाक़ ही इत्तेफाक़ हैं. ज़िंदगी में ये…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 1, 2012 at 12:20pm — 2 Comments
वो आँखें थी या ख्वाब के बगूले, वो जुल्फें थीं या रात के समंदर की लहरें, वो होंठ थे या सेब तराशे हुए, वो चेहरा था या किसी नदी का सुनहरा टुकड़ा, वो कामत थी या लहलहाते फसल का खेत, उसका पैरहन था या जिस्म के तनासुब में बनाया कालिब, उसकी नज़र थी या कि कोई नीली बर्क, उसकी हंसी थी या प्यार का गुदगुदाता ऐतेराफ़, उसकी चाल थी या किसी सपेरे की हिलती बीन, उसके कॉल थे या ख्वाब से जागती अंगड़ाई, उसकी उदासी थी या मीलों लंबा पहाड़ का दामन, उसकी खुशी थी या कहकशाँ में भीगे सितारे, उसका लम्स था या किसी शिफागर…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:57pm — No Comments
कहाँ चले जाते हैं लोग करीब आके. किधर मुड़ जाती है राह आँखों से ओझल होके. क्या होता है उनका जो अब अपनी वाबस्तगी में नहीं. धूप जो अभी अभी पूरे एअरपोर्ट पे बिखरी थी, कहाँ गुम हो गई. इक उदासी भरी धुन जो बज रही था, वो क्या कह के चुप हो गई.
लाउंज की खाली-खाली कुर्सियां, और कुछ कुर्सियों में सिमटे सिकुड़े लोग, कहाँ जा रहे हैं ये लोग, कौन इनका इंतज़ार करता होगा और किस जगह पे. हम इनसे फिर कभी मिलेंगे भी या नहीं और मिले भी तो कैसे जान पायेंगे. दिन यूँ आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहा है जैसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:56pm — No Comments
कुछ उदासियों के चेहरे होते हैं जो जब हंसते हैं तो और भी रुलाते हैं! कुछ खामोशियाँ बाजुबां होती हैं, जो जब बोलती हैं तो दिल की गहराइयों में लहरें उठती हैं, कुछ ख़याल टहलते हैं गिर्दोपेश में कि उनके मानी को सरापा पढ़ा जा सकता है. कोई दिन पपीहे की तरह गाता है गोया बारिश की फुहारों ने समूची कायनात को इक मजलिसेमूसीकी बना दिया हो, कोई रात आके सिरहाने खडी़ हो जाती है मानो मेरे काँधे पे सर रख के दो आंसूं रो लेना चाहती हो. कुछ लोग ज़हन में यूँ बस जाते हैं गोया कोई बीती निस्बतों का नेस्तेनाबूद न होने…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2012 at 5:30pm — No Comments
ख़ुदाकी जलाई शम्मा तो कबसे रौशन है
कोई है तो खुद अपनी दानाई चिल्मन है
कुछ किताबें, कपड़े, एक तोशक, तकिया
और तेरी फुर्कतसे चरागाँ मेरा नशेमन है
न होता इश्क तो हुस्न की कद्र क्या थी
आशिकों को दीवाना कहना पागलपन है
क्यूँ भला पूछें हम बगलगीरों के मसाइल
अपना-अपना घर अपना-अपना आँगन है
हुए खानाखराब इश्कमें फिरेहैं खानाबदोश
रहलेवें हैं हम जिस शह्रमें जैसा चलन है
मौत किस तरहा मुश्कबूसी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 8:30pm — No Comments
मैं पैदा ही हुआ हूँ दर्द को जीने के लिए
जैसे लहरें बनींहैं जाँकश सफीनेके लिए
मुझको क्या गिजा चाहिए जीने के लिए
तुम्हारा गम काफी है पूरे महीने के लिए
कुछ तो चाहिए दिलको गम दवा या दारु
इकअदद आब काफी नहींहै पीने के लिए
क्यूँ बढ़ालीहैं हमने अपनी सब ज़रुरीयात
बढ़ीहुई तंख्वाह चाहिए हर महीने के लिए
मैं भटकता हुआ दरिया हूँ समंदर है कहाँ
कोई ठहराव चाहिए तामीरेनगीने के लिए
अपनी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:50am — 2 Comments
बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 29, 2012 at 11:20am — No Comments
तशवीशात के अजीमुश्शान महल में जैसे खो गया हूँ. हज़ार रास्ते, मगर कौन सही है, दीवारें जो दिख रहीं हैं वो आँखों का धोखा तो नहीं. दरीचों में समाया मंज़र शायद वहम हो. जगह जगह फिक्रों के फानूस टंगे हैं, अज़ीयतों के जौहर से दरोदीवार आरास्ता हैं. दूर कहीं आँगन में अंदेशों के आबशार से बह रहे हैं, बगीचे खौफ के दरख्तों से गुंजान और उलझनों के टिमटिमाते चरागों से शबिस्ताँ रौशन है. गलियारों में कशीदगी के कालीन बिछे हैं, कफेपा से जिनपे दिल की शोरीदगी के नक्श उभर आए हैं. बैठकखानों में मखफी सायों की मजलिस…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 21, 2012 at 8:00pm — 4 Comments
रायपुर से भोपाल का हवाई सफर- घरों के घरौंदे होकर नुक्ते में बदलकर खो जाने और आसमाँ के पहाड़ के ऊपर मील दर मील चढ़ते जाने का अद्भुत सफर. चंद लम्हों में ज़मीनी सच्चाइयों का दामन छूट चुका था और हम ख़्वाबों के एक खामोश तैरते समंदर के ऊपर तैर रहे थे. हर सम्त बादलों के बगूले तरह तरह की नौइयत और शक्ल में परवाज़ कर रहे थे- उनकी आहिस्ताखिरामी और लहजे के सुकून को देखकर ऐसा लग रहा था गोया किसी फ़कीर ने अपने फैज़ का खज़ाना लुटा दिया हो और नीले सफ़ेद रुई के फाहों में ज़िंदगी की तपिश से नजात के मरहम बंट…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 3:08pm — 4 Comments
अब कहाँ आएँगे लौट के सबेरे कल के
रातमें तब्दील हो गए हैं उजाले ढल के
कोई खुशबू तेरे दामन की एहसासों में
कुछ लम्स से हथेली में तेरे आँचल के
मौत आई तो बेसाख्ता ये महसूस हुआ
कि ज़िंदगी आईहै वापिस चेह्रे बदल के
जाने वालातो सामनेसे रुख्सत हो गया
जाने क्या सुकूं मिलता है हाथ मल के
मैं कोई ख्वाब में हूँ या कोई गफलत है
आसमां में उड़ रहा हूँ, पंख हैं बादल के
बुझरही शमाने कराहते हुए मुझसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 17, 2012 at 10:24am — No Comments
पुणे से पत्नी को लिखा पत्र
प्यारी बिन्नी,
वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते थे
जहाँ के पेड पौधे, खेत खलिहान और
कुत्ते भी हमसे बातें किया करते थे
वो गांव क्या था पूरा परिवार था
हर आदमी इक दूसरे के प्रति
कितना जिम्मेवार था
सबकी खुशियाँ हमारी खुशियाँ थीं और
हमारे दुःख में हर कोई हिस्सेदार था
गांव के चौधरी यही तो कहा करते थे
वो गांव ही अच्छा था जहाँ हम रहा करते…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 1:00pm — 5 Comments
पूरा हो या अधूरा अरमाँ निकल ही जाता है
करीब आ के दूर कारवाँ निकल ही जाता है
जो न बदलें हालात तो खुद को बदल डालो
जंगलोंसे निकलो आस्माँ निकल ही जाता है
रहेंगे कबतक मुन्हसिर गुंचे खिलही जाते हैं
कभीतो ज़िंदगीसे बागवाँ निकल ही जाता है
पत्थरोंसे भी मिट जाती हैं इबारतें समय पे
हो गहरा दिल का निशाँ निकल ही जाता है
मसीहा आते हैं इम्तेहा-ए-गारतपे हर दौर में
दौरेज़ुल्मियत से ये जहाँ निकल ही जाता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 8, 2012 at 12:56pm — 2 Comments
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