Added by seema agrawal on February 19, 2013 at 12:30pm — 18 Comments
उफ्फ ये स्वप्न!!
हृदय विदारक
कैसे जन्मा
सुषुप्त मन में ?
रेंगती संवेदनाएं
कंपकपाएँ
जड़ जमाएं
भयभीत मन में
अतीत है या
भावी दर्पण
उथल पुथल है
मन उलझन में
गर…
ContinueAdded by rajesh kumari on February 19, 2013 at 10:00am — 24 Comments
Added by Manoj Nautiyal on February 19, 2013 at 9:37am — 5 Comments
मैं महसूस करता हूँ
जब भी
अंदर तक बिखरा
तुम्हारे कदमों की आहट
फिर से समेट देती है
मेरा अंर्तमन
चेतनशून्य से
चैतन्यता लौट आती है
मेरे…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 18, 2013 at 11:31pm — 15 Comments
जब से मजबूरी मेरी बढ़ने लगी
दोस्तों से दूरी भी बनने लगी
उनकी हाँ में हाँ मिलाया जब नहीं
बस मेरी मौजूदगी डसने लगी
कद मेरा उस वक्त से बढ़ने लगा
आजमाइस दुनिया जब करने…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on February 18, 2013 at 10:00pm — 21 Comments
आज बेमौत मर रहा होगा,
जो सवालों से डर रहा होगा ।
बाग़ की झुरमुटों में हलचल है,
नव युगल प्यार कर रहा होगा ।
अपने होने लगे हैं बेगाने,
कोई तो कान भर रहा होगा ।…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 18, 2013 at 3:30pm — 46 Comments
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दिया अब सब्र का भी बुझ रहा अंतिम बगावत है
मगर ये रात खुलती ही नहीं लम्बी अमावस है ||
तमन्ना की जमीं पर जब कभी भी घर बनाया था
हकीकत की लहर ने एक पल में सब डुबा डाला |
मेरी कोशिश मनाने की अभी तक भी निरंतर है
सभी नाराज होने की वजह को भी मिटा डाला ||
तुम्हारा रूठना अब लग रहा मुझको क़यामत है
सभी आदत बदल लूँगा…
Added by Manoj Nautiyal on February 18, 2013 at 3:00pm — 16 Comments
आरती की थाली
लिए हाथों में
जाने कब से
निहार रही हूँ बाट ....
आएगी वह
जब सिमटी लाल-जोड़े में ,
मेहँदी रचे हाथों…
Added by Meena Pathak on February 18, 2013 at 2:00pm — 26 Comments
हम ढोते हैं अपनी विरासत को
सभ्यता को
संस्कृति को
शाश्वत दर्शन को
बिना जाने
बिना समझे
जीवन में उतारे बिना
हम पूजते हैं
अपने मूल्यों को
बिना समझे
बिना जाने
भटकते हैं
रौशनी के काफिले
हमें गर्व है
अपनी थाती पर
वेदों पर
पुराणों पर
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा
के अवशेषों पर
कटकर
अपनी जड़ों से-
कैसा
माटी का गुणगान ?
अध्यात्म की वृहद चर्चाओं में
कथित 'बाबाओं' की सभाओं में
खेली- खाई…
Added by Vinita Shukla on February 18, 2013 at 10:08am — 25 Comments
राज की बात हम तलक ही रहे
ये मुलाक़ात हम तलक ही रहे ।
कुछ सवालात पूछ बैठे हम
कुछ सवालात हम तलक ही रहे ।
उनके इल्ज़ाम सब थे झूठे मगर
मेरे इस्बात हम तलक ही रहे ।
डर है तुझको बहा न ले जाये
ऐसी बरसात हम तलक ही रहे ।
इन सितारों को बाँट ले दुनिया
चाँदनी रात हम तलक ही रहे ।
(इस्बात - प्रमाण/सुबूत)
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 17, 2013 at 11:31pm — 33 Comments
बातों से भी ये गम क्यूँ कम नही होते,
आंसुओ से दिल के कोने नम नही होते.
थी बहुत उम्मीद तो अपनों से इस दिल को कभी,
पर हमेशा साथ ये हमदम नही होते...
बेबसी हंसने लगी ख़ामोशी अब है गूंजती,
बंद कमरों में कभी कोई मौसम नही होते.
जहाँ ख़ुशी वहां खिलती मन की हर कली,
उन घरानों में क्या कभी मातम नही होते... …
ContinueAdded by Aarti Sharma on February 17, 2013 at 10:30pm — 30 Comments
मेरी पड़ोसन सखी आई थीं। छुट्टी का दिन। .हम आराम फरमा रहे थे। प्रायः ऐसे ही टाइमपास किया करते थे। कुछ इधर उधर की बातें भी चल रही थीं। चाय की चुस्की लेते लेते मैडम अचानक रूक गयीं - अरे ! ये आवाज़ कैसी आ रही है? मैंने कहा हवा से पल्ला हिला उसकी आवाज़ थी। फिर कुछ ही देर में भड -भड की हलकी आवाज़। बोलीं अब क्या…
ContinueAdded by mrs manjari pandey on February 17, 2013 at 9:00pm — 10 Comments
एक प्रयोग “चौपाई-त्रिभंगी” गीत
दृग सरिता मुख चन्द्र चकोरी, केश मेघ तन स्वर्ण किशोरी
कैसे करूँ कल्पना कोरी, होय नहीं समता भी थोरी
अधरों में रस भर, लाज शर्म धर, नैन झुकाए, मुस्काती
सकुचाती काया, लगती माया, दूर खड़ी हो, इठलाती
मन आह भरे है, चाह करे है, चंचल मन अस, उकसाती
हर रात जगे हम, भर भर कर दम, चैन नहीं है, दिन राती
अंतर्मन की जोरा जोरी, कहूँ दशा क्या तुमसे गोरी
दृग सरिता मुख चन्द्र चकोरी, केश मेघ तन स्वर्ण…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on February 17, 2013 at 6:00pm — 11 Comments
मंद -मंद बयार का झोका ,
पेड़ की टहनियों का झुकना!
झरने से निकलती कल-२ ध्वनि ,
दिनकर का बदली में छुपना!
प्रसून से निकलती सुगंध,
वृक्षों का आलिंगन करना !
चिड़ियों का मधुर गुनगुनाना ,
खुशियों भरा सुन्दर बहाना !
नदियों वृक्षों संग गुज़ारा ,
प्रकृति का अनुपम खज़ाना !
स्वर्ग इसी धरा पर ही है ,
सभी प्राणियों को बतलाना !
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on February 17, 2013 at 12:13pm — 11 Comments
मिला राज्य सम्मान- (दोहे)
-लक्ष्मण लडीवाला
तामस सात्विक राजसी, तीनो ही अभिमान,
रावण और कुम्भ करण, तामस राजस जान।
सात्विक मन से आदमी, करे प्रभु गुणगान,
देख विभीषण को जरा, वे इसके प्रतिमान ।
कुम्भ करण सोता रहा, दिल में भरा प्रमाद,
अहंकार था तामसी, जीवन भर अवसाद ।
राजसी अहंकार वश, आजाये अभिमान,
अभिमानी…
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 17, 2013 at 12:00pm — 28 Comments
सामयिक लघुकथा:
ढपोरशंख '
*
कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे…
Added by sanjiv verma 'salil' on February 17, 2013 at 10:00am — 16 Comments
यहां कोई क्रांति नहीं होने वाली
लाख हो-हल्ला हो
धरने और अनशन हों
क्रांति की सामग्री मौजूद नहीं यहां
जाति, धर्म, क्षेत्र में बंटे
लोग क्रांति नहीं करते
अपने पेट की फिकर में…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 17, 2013 at 9:48am — 10 Comments
आखिरी बार कब चिल्लाए थे तुम
याद है तुम्हें?
जब पैदा हुए थे
तब शायद
गला फाड़कर
पूरी ताकत के साथ
चीखकर रोए थे तुम
क्योंकि तब…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 17, 2013 at 8:56am — 16 Comments
प्रियतम मेरे
Added by Rekha Joshi on February 16, 2013 at 11:30pm — 21 Comments
*
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य नहीं होता यह सच है.
फिर भी समय-यक्ष प्रश्नों से प्राण-पांडवी रहा बेधता...
*
ढाई आखर की पोथी से हमने संग-संग पाठ पढ़े हैं.
शंकाओं के चक्रव्यूह भेदे, विश्वासी किले गढ़े है..
मिलन-क्षणों में मन-मंदिर में एक-दूसरे को पाया है.
मुक्त भाव से निजता तजकर, प्रेम-पन्थ को अपनाया है..
ज्यों की त्यों हो कर्म चदरिया मर्म धर्म का इतना जाना-
दूर किया अंतर से अंतर, भुला पावना-देना सच है..
कुछ प्रश्नों का कोई भी औचित्य…
Added by sanjiv verma 'salil' on February 16, 2013 at 7:30pm — 10 Comments
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