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कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे

कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे

जुटाई थी हिम्मत उसके लिए

कुछ ऐसे तेरे लडखडाये कदम

जैसे लगी ठोकर कोई



वादे थे जो घबरा गए

होंगे वो पूरे अब नहीं

यादें थी जो संजोई तूने

काँटों सी वो चुभने लगीं



बढ़ने थे जो जमकर कदम

राहों में वो दुखने लगे

उभरी थी जो कश्ती बड़ी

भवर में कहीं खो गयी



कोन सी है मंजिल तेरी

वो ही है या वो नहीं

कोन सी है मुश्किल तेरी

कुछ है नहीं कुछ है नहीं



शायद वो कुछ बताता तुझे

आगे वो…
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Added by Bhasker Agrawal on December 26, 2010 at 6:58pm — 2 Comments

ग़ज़ल : अज़ीज़ बेलगामी

ग़ज़ल



अज़ीज़ बेलगामी



ग़म उठाना अब ज़रूरी हो गया

चैन पाना अब ज़रूरी हो गया



आफियत की ज़िन्दगी जीते रहे

चोट खाना अब ज़रूरी हो गया



गूँज उट्ठे जिस से सारी काएनात

वो तराना अब ज़रूरी हो गया



जारहिय्यत  के दबे एहसास का

सर उठाना अब ज़रूरी हो गया



अब करम पर कोई आमादा नहीं

दिल दुखाना अब ज़रूरी हो गया



साज़िशौं, रुस्वायियौं को दफ'अतन…

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Added by Azeez Belgaumi on December 26, 2010 at 2:00pm — 7 Comments

कहां जा रहा हमारा समाज ?

आधुनिकता की चकाचौंध जिस तरह से समाज पर हावी हो रही है, उससे समाज में कई तरह की विकृतियां पैदा हो रही हैं। एक समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ राजा राममोहन राय जैसे कई अमर सपूतों ने लंबी जंग लड़ी और समाज में जागरूकता लाकर लोगों को जीवन जीने का सलीका सिखाया। आज की स्थिति में देखें तो समाज में हालात हर स्तर पर बदले हुए नजर आते हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में किसी के पास समय नहीं है, मगर यह चिंता की बात है कि इस दौर में हमारी युवा पीढ़ी आखिर कहां जा रही है ? समाज में इस तरह का माहौल बन रहा है,… Continue

Added by rajkumar sahu on December 26, 2010 at 1:25pm — No Comments

सोचना जरूरी है

ऐसे समय में

जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है

बाजार हो रहा है हावी

और आदमी बिक रहा है

कैसी बच सकेगी आदमियत

यह सोचना जरूरी है।



टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें

हकीकत नहीं है

और न ही पेज 3 पर के चेहरे

आज भी बच्चे

दो जून की रोटी के लिये

चुनते हैं कचरे

और करते हैं बूट पालिष

अरमानों को संजोये

हजारों लडकियां

पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में

और यही हकीकत है।



पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है

जब बाजार हो रहा है… Continue

Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:29pm — 8 Comments

कुछ दिनो से

कुछ दिनो से

ये शहर लगता उदास है

उपर से शान्त पर

अन्दर से बना आग है.

कुछ दिनो से

सान्झ होते ही

खिडकिया और दरवाजे

हो जाते है बन्द

और लोग अपने ही घरो मे

होकर रह जाते है कैद.

कुछ दिनो से

लगता ही नही कि

रहता है यहा कोई आदमी… Continue

Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:26pm — 1 Comment

हम इंतजार करते हैं

कभी कोई अनजाना
अपना हो जाता है.
कभी किसी से
प्यार हो जाता है.
ये जरूरी नहीं
कि जो खुशी दे
उसी से प्यार हो.
दिल तोडने वाले से भी
प्यार हो जाता है.
जिन्दगी हर कदम पर
इम्तिहान लेती है,
तन्हाई हर मोड पर
धोखा देती है.
फिर भी हम
जिन्दगी से प्यार करते हैं
क्यूंकि हम किसी का
इंतजार करते हैं.
कुछ दोस्तों का
हां दोस्तों का
इंतजार करते हैं.

Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:22pm — 1 Comment

लघुकथा: एकलव्य -- संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा



एकलव्य



संजीव वर्मा 'सलिल'



*

- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'



- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'



- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'



-हाँ बेटा.'



- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'

*****



रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई.,… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on December 26, 2010 at 12:06pm — 2 Comments

मैने सॅंटा को देखा है ..

मानो…

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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:30am — 4 Comments

सुबह फिर आ गयी जागो ..

सुबह फिर…

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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:00am — 4 Comments

एकाकी...

एकाकी, एकाकी

जीवन है एकाकी...

मैं भी हूँ एकाकी,

तू भी है एकाकी,

जीवन पथ पर चलना है

हम सबको एकाकी I

 

ना कोई तेरा है,

ना है किसी का तू,…

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Added by Veerendra Jain on December 26, 2010 at 12:00am — 13 Comments

GHAZAL - 22

                       ग़ज़ल





फ़र्ज़  के  पैगाम  का  बस,  उम्र  भर  ये  स्वर  सुना  है |

युग विजेता बन  मनुज  तू ,  जिसने ये अम्बर बुना है ||



वो  कि -   जो  बैठे  हुए  थे   खुद   किनारों  पर   कहीं,

कह  रहे  थे -   खास  गहरा  नहीं  ये  सागर,  सुना  है ||



कल  न  जाने  बात  क्या  थी ?  आसमां  नीचा  लगा,

आज  जब  उँचाई  उसकी  नाप  ली  तो  सिर  धुना  है ||



लौट  कर  आया  नहीं,  उस  ख़त  के  बदले  कोई…
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Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 25, 2010 at 7:46pm — 1 Comment

GHAZAL - 21

ग़ज़ल





भारत  माता  माँग  रही  है - इस  नीति  से  पूर  विधान |

जिसमें हों सब  भाई बराबर, जाति - धर्मं से दूर, समान ||



जिसमें किसी की हो न उपेक्षा, मिले बराबर का अधिकार,

सब  हों  माँ  के एक से बेटे- अधिकारी, मजदूर, किसान ||



तंग  दिलों  से  बाहर  आ  कर, आओ,  रचें हम वह संसार.

जिसमें  सुख की हो सुगंध पर हों न दुखों के क्रूर निशान ||



बात   जोहती   है  भारत माँ , बेटों   के  इस   न्याय   का ,

जिसकी …
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Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 25, 2010 at 11:35am — 2 Comments

चौपाई सलिला: १. क्रिसमस है आनंद मनायें --संजीव 'सलिल'

चौपाई सलिला: १.



क्रिसमस है आनंद मनायें



संजीव 'सलिल'

*

खुशियों का त्यौहार है, खुशी मनायें आप.

आत्म दीप प्रज्वलित कर, सकें



क्रिसमस है आनंद मनायें,

हिल-मिल केक स्नेह से खायें.

लेकिन उनको नहीं भुलाएँ.

जो भूखे-प्यासे रह जायें.



कुछ उनको भी दे सुख पायें.

मानवता की जय-जय गायें.

मन मंदिर में दीप जलायें.

अंधकार को दूर भगायें.



जो प्राचीन उसे अपनायें.

कुछ नवीन भी गले लगायें.

उगे… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on December 25, 2010 at 11:00am — 2 Comments

"अब रहने दो " (लघुकथा)

नैनीताल,
कड़ाके की ठण्ड थी..हम परिवार के साथ होटल से नेना देवी मंदिर, पैदल पैदल जा रहे थे..

पिताजी ने कडकडाती आवाज में माँ से कहा   : " अरे जरा हैण्ड बैग मफलर तो निकाल दो "

चलते चलते अचानक वो रुक गए और कुछ देखने लगे..
सामने चबूतरे पे एक पागल सा दिखने वाला आदमी अधनंगी हालत में सुकड़ के बैठा कुछ खा रहा था..

माँ हैण्ड बैग से मफलर निकालते हुए बोली : " क्या हुआ.. रुक क्यों गए?..ये लो मफलर "

पिताजी ने झुके से स्वर में कहा : " अब रहने दो  "

Added by Bhasker Agrawal on December 25, 2010 at 10:54am — No Comments

GHAZAL - 20

                    ग़ज़ल





मेरे  दिल  को  जलाने  वाले,  खुदा  तेरा  भी  दिल  जलाए |

मुझे जो तूने दिया है ये गम, तेरे भी दिल को सुकूँ न आये ||



मेरी  मुहब्बत  न तूने समझी, मुझे जो तूने दिया है ये गम,

खुदा तुझे भी अमन न बख्शे , तेरे चमन को खिज़ां जलाये ||



मेरी  वफ़ा  को जूनून  कहकर, मुझे जो तूने कहा है पागल,

तुझे   सजा   दे   खुदाई   इसकी, दर्द  तुझको  गले लगाए ||



जफा  के  खंज़र, का ये कातिल, दर्द क्या…
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Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 24, 2010 at 11:05pm — No Comments

लोग इतने बदल गए ज़माना इतना बदल गया

लोग इतने बदल गए ज़माना इतना बदल गया

बदले जुबां के रंग उनके, तराना इतना बदल गया



निकलते हैं जब अल्फाज उनके, कुछ अजीब से लगते हैं

ऊपरी शोहरत पाकर भी वो गरीब से लगते हैं

वो भोलापन नहीं अब बातों में उनकी

दिल से निकले भाव भी तहजीब से लगते हैं



होकर सामने भी छुरा पीठ पर मारा मेरे

फिर भी दिल निकाल ना पाए

मेरे कातिल मुझे बड़े बदनसीब से लगते हैं



गले में पड़ा हार जब साँसों की तकलीफ बन गया

तब दिखावे की सजा मालूम हुई

कल बेआबरू होते देखा उन्हें बाज़ार… Continue

Added by Bhasker Agrawal on December 24, 2010 at 10:57pm — 4 Comments

GHAZAL - 19

                 ग़ज़ल





दोस्तों, कुछ  रात  ऐसी  भी थी, जब  सोया  नहीं  मैं |

दर्द  से  तड़पा  बहुत  पर  चीख  कर  रोया  नहीं  मैं  ||



कोई  शीशा  सा  तड़क  कर,  टूट, दिल  में  आ चुभा,

इसलिए  उस  रात भर तक, ख्वाब में खोया नहीं मैं ||



कौन सी मंजिल है किसकी और कहाँ किसका मकाँ ?

कौन  है  इस  राह  पर  भटका  हुआ, वो  या  कहीं मैं ?



ज़िन्दगी   के   मायने,  अहसान …
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Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 24, 2010 at 10:55pm — 2 Comments

जनक छंदी सलिला: २ संजीव 'सलिल

जनक छंदी सलिला: २                                                                         



संजीव 'सलिल'

*

शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,

   मानव इंसां बन सके.

      सकल धरा खुश हाल हो..

*

दसों दिशा में हर्ष हो,

   प्रभु से इतनी प्रार्थना-

       सबका नव उत्कर्ष हो..

*

द्वार ह्रदय के खोल दें,

   बोल क्षमा के बोल दें.

      मधुर प्रेम-रस घोल दें..

*

तन से पहले मन मिले,

   भुला सभी शिकवे-गिले.

      जीवन में… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on December 24, 2010 at 9:30pm — 2 Comments

अभिनंदन - अभिनंदन

Added by DEEP ZIRVI on December 24, 2010 at 3:00pm — No Comments

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