कई बार झूला हुं
सावन के झूले में
कई बार झूला हू
यादों के झूले में
और तेरी बाहों के झूले में भी
कई बार झूला हू मैं ॥
पर अब ये झूले
कोई गर्मी नहीं देती
कई झूले है
झूलने को अब मेरे पास
धर्म के झूले में झुलना
मेरी नियति है
बातों और वादों के
झूले में झुलना
हमारी दिनचर्या में है ॥
हमारे नेता हमें
झुलाते है ...रोलर -कोस्टर के
झूले में ॥
त्रिया -चरित के झूले में झुलना
एक रोज नए अनुभव से गुजरना है…
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Added by baban pandey on June 10, 2010 at 11:56am —
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आदमी....
कभी बाघ बन दहाड़ता है
कभी कुत्ता बन लड़ता है
कभी गिद्ध बन मांस ग्रहण करता है
तो कभी
गीदर बन भाग खड़ा होता है
कभी गिरगिट की तरह रंग बदलता है
आदमी.....
कभी धर्म के लिए स्वं मरता है
कभी दूसरों को मारता है / काटता है
आदमी ......
कभी देश बाटता है
कभी जाती बाटता है
कभी भाषा बाटता है
तो कभी एकता का पाठ पढ़ाता है
आदमी ....
कभी कंजूस बन पैसे के लिए मरता है
कभी दानी बन पैसे लुटाता है
कभी…
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Added by baban pandey on June 9, 2010 at 3:00pm —
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मैं ना तो कोई तुलसीदास
जो दोहावली सजाऊँ,
ना ही मैं कबीर कोई
कि भजनमाल बुन पाऊँ !
सूरदास की भक्ति कहाँ
जो गीत श्याम के गाऊँ,
ओज सुभद्रा सा भी नहीं,
ना टैगोर का सुर बना पाऊँ !
फिर भी दिल में ये चाहत है,
में दिल की बात सुनाऊँ,
और प्यार दोस्तों का कहता है,
में भी कलम उठाऊँ !
मुझमे ऐसा कुछ भी नहीं,
कि में कुछ भी बन जाऊं,
प्यार आपका होगी वजह,
जो कुछ सार्थक कह पाऊँ !
मित्रों की प्रेरणा शक्ति…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 9, 2010 at 2:00pm —
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पेंडुलम .
पेंडुलम यही समझ रहे हो ना मुझे ,
यही भूल अगली सरकार की थी ,
और तुम्हे मिल गया ये मलाई ,
जिसे बारे प्यार से आपस में ,
बाटकर मस्ती से खा रहे हो ,
हमें चाहिए एक होनहार कर्मनिस्ट,
जो समझे हमें जाने हमें ,
और तुम हो की जानना ही नहीं चाहते ,
लोकतंत्र में युवराज दिखा रहे हो ,
यही ना हमें पेंडुलम समझ कर ,
उल्लू बना रहे हो ,
जिस जनता को तूम उल्लू समझ रहे हो ,
ओ सब जानती हैं ,
कोई पानी तक नहीं मांगता ,
जब ओ मरती हैं…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 9, 2010 at 12:55pm —
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मुक्तिका
...चलो प्रिय.
संजीव 'सलिल'
*
लिये हाथ में हाथ चलो प्रिय.
कदम-कदम रख साथ चलो प्रिय.
मैं-तुम गुम हो, हम रह जाएँ.
बन अनाथ के नाथ चलो प्रिय.
तुम हो मेरे सिर-आँखों पर.
मुझे बनाकर माथ चलो प्रिय.
पनघट, चौपालें, अमराई
सूने- कंडे पाठ चलो प्रिय.
शत्रु साँप तो हम शंकर हों
नाच, नाग को नाथ चलो प्रिय.
'सलिल' न भाती नेह-नर्मदा.
फैशन करने 'बाथ' चलो प्रिय.
***********************
Added by sanjiv verma 'salil' on June 9, 2010 at 11:58am —
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अभिनव सारस्वत प्रयोग:
त्रिपदिक नवगीत :
नेह नर्मदा तीर पर
संजीव 'सलिल'
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर धर,
पल-पल उठ-गिरती लहर...
*
कौन उदासी-विरागी,
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?
निष्क्रिय, मौन, हताश है.
या दिलजला निराश है?
जलती आग पलाश है.
जब पीड़ा बनती भँवर,
खींचे तुझको केंद्र पर,
रुक मत घेरा पार कर...
*
नेह नर्मदा तीर पर,
अवगाहन का धीर…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 9, 2010 at 11:32am —
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टेबल घडी की टनटनाहत से
नहीं उठता वह ।
डोन्ट ब्रेक माय हर्ट
मोबाइल के रिंग -टोन से
उसकी नींद टूटती है ....
उंघते हुए बाथ रूम की ओर
रुख किया उसने
पाश्चात्य शैली के टोइलेट पर बैठ कर
वह ब्रुश भी कर लेता है ॥
डेली सेव करना उसकी आदत में है
जबकि उसके माँ ने कहा था
मंगल और गुरुवार को सेव मत करना ....
कैसे न करे वह
कम्पनी का फरमान
ऊपर से गर्ल फ्रेंड की चाहत भी
जैसे -तैसे
ब्रेड पर लगाया क्रीम…
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Added by baban pandey on June 9, 2010 at 6:31am —
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आज तक वो नही मिली ,जिसकी दरकार थी ,
झूठी निकली मेरी तमन्ना ,पीड़ मिली हार बार थी ॥
तिनका -तिनका जोड़ परिंदों ने, घर अपना बना लिया ,
ना मिला कोई मेरे घर को,वैसे इनकी भरमार थी ॥
जब तक उसने मुड कर देखा ,तब तक हम दूर थे ,
मुड कर उन तक जा ना सके ,पैर बहुत मजबूर थे ॥
जिसको लेकर वो उलझे थे ,उनकी ग़लतफ़हमी थी ,
जिसे वो जीत समझे थे , वास्तव में उनकी हार थी ॥
''कमलेश''इन उल्फतों को क्या नाम देंगे आप सब ,
जिसे आप समझ बैठे ''हाँ ''वह उनकी…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on June 8, 2010 at 10:59pm —
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याद तेरी आये तो ग़ज़ल कहता हूँ
रात दिन मुझको सताए तो ग़ज़ल कहता हूँ
होंठ स अपने पिलाए तो ग़ज़ल कहता हूँ
आँखों स आँख मिलाये तो ग़ज़ल कहता हूँ
चांदनी रात में तनहा मै कभी होता हूँ
याद में नींद न आये तो ग़ज़ल कहता हूँ
जब कोई होंठ पर मुस्कान सजा कर अपने
शर्म स आँख झुखाये तो ग़ज़ल कहता हूँ
पढ़ के अशार को "अलीम" के अगर कोई भी
मेरी हिम्मत को बढाए तो ग़ज़ल कहता हूँ
Added by aleem azmi on June 8, 2010 at 6:10pm —
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पुल नहीं , तो वोट नहीं
रोड नहीं ,तो वोट नहीं ॥
सुनकर वोटरों की ये चिल्लाहट
बढ़ी नेताजी की घबराहट ॥
उड़ चले वो
वोटरों के गाँव
पहले खेला जाती का दावँ
जब वोटर न हुए
टस से मस
तब उन्होनें सवाल दागा
कितने लोगों के पास है
ट्रक्टर / ट्रक और बस
वोटर थे सब चुप ॥
फिर बोले .....
तब रोड का क्या फायदा
ऊँची जाती वालो के पास है
ट्रक्टर , ट्रक और बस
उनके ट्रक का चक्का टूटने दो
थोडा उनको और गरीब होने दो
फिर…
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Added by baban pandey on June 8, 2010 at 6:10pm —
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देखा है जब से आपको हमने हिजाब में
लगता नहीं हमारा दिल अब किताब में
पी कर तुम्हरी आँख से महसूस यह किया
मस्ती न कुछ दिखी है खालिस शराब में
क्या तुमको मुझसे प्यार है पुछा था एक सवाल
मुस्कान लब पे रख दिया उसने जवाब में
शायद वो हमसे प्यार अब करने लगा जनाब
वो आप आप कहता है हमको खिताब में
मै क्यों न अपनी जान को तुम पर करू निसार
कयामत छुपी आपके "अलीम" शबाब में
Added by aleem azmi on June 8, 2010 at 5:52pm —
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बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ६ जून को भागलपुर के नवगछिया प्रखंड में धरहरा गाँव में गए थे. इस गाँव की परम्परा उन्हें वहाँ खींच ले गयी थी. मुझे याद है, मैं अपनी एक कहानी में लिखा था कि परम्परा इंसान के लिए बनी है - इंसान परम्परा के लिए नहीं बना है. धरहरा गाँव की परम्परा अदभुत है, मैं सलाम करता हूँ इस रिवाज़ को. सचमुच यह परम्परा इंसान के लिए बनी है. इस गाँव में बेटी के जन्म लेने पर पेड़ लगाने की परम्परा है. बेटी और पर्यावरण के प्रति इस गाँव के लोगों का प्यार वाकई सराहनीय है. इस गाँव के…
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Added by satish mapatpuri on June 8, 2010 at 4:23pm —
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गीत :
भाग्य निज पल-पल सराहूँ.....
संजीव 'सलिल'
*
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूँ.....
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 8, 2010 at 1:00am —
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यदि एकलव्य से विद्यार्थी नहीं होते
तो द्रोणाचार्य कभी स्वार्थी नहीं होते
कहीं पे भाव का अनुवाद छूट जाता है
कहीं पे शब्द समानार्थी नहीं होते
न जाने कौन सा बनवास है की बंजारे
किसी नगर में भी शरणार्थी नहीं होते
न आज है कोई अर्जुन न है महाभारत
तभी तो कृष्ण कहीं सारथि नहीं होते
विनम्रता से क्षमा याचना जो करते हैं
सदा ह्रदय से क्षमाप्रार्थी नहीं होते
Added by fauzan on June 8, 2010 at 12:00am —
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ऐ कवि-शायर! कहाँ तुम छिप कर बैठे हो. ज़रा बाहर निकल कर देख तेरी कल्पना क्या है.
कहाँ निर्भीक वह यौवन, जिसे तुम शोख कहते हो.
कहाँ जलता हुआ सौन्दर्य, जिसको ज्योति कहते हो .
कहाँ कंचनमयी काया, कहाँ है जुल्फ बादल सा.
किधर चन्दन सा है वह तन, कहाँ है नैन काजल सा.
हाँ देखा है सड़क पर शर्म से झुकती जवानी को, सुना कोठे की मैली सेज पर लुटती जवानी को.
इसी मजबूर यौवन पर लगाकर शब्द का पर्दा, सच्चाई को छिपाने का तेरा यह बचपना है क्या.
ज़रा बाहर निकल कर देख तेरी कल्पना है…
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Added by satish mapatpuri on June 7, 2010 at 4:56pm —
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हवा मिस- झुक -लुक -लुक -छुप
डार-डार से करे अंखियां चार
कस्तूरी हुई गुलाब की साँसें
केवड़ा,पलाश करे श्रृंगार
छूते ही गिर जाये पात लजीले
इठलाती-मदमाती सी बयार
सुन केकि-पिक की कुहूक-हूक
बौरे रसाल घिर आये कचनार
अम्बर पट से छाये पयोधर
सुमनों पर मधुकर गुंजार
कुंजर,कुरंग,मराल मस्ती में
मनोहर,मनभावन…
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Added by asha pandey ojha on June 7, 2010 at 12:44pm —
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बाल कविता :
गुड्डो-दादी
संजीव 'सलिल'
*
गुड्डो नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 7, 2010 at 9:45am —
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(जातिगत जनगणना को लेकर लिए गए फैसले के ऊपर )
अरे यार !!
कान में मत फुस्फुसाओ
खुलकर जाती पूछो ।
सरकारी लाइसेन्स ही मिल गया ..
.संसद के अन्दर
नेताओ की मुहर लग गयी यार ...
जातिगत जनगणना को लेकर ॥
अब इंटरवेऊ में
नहीं पूछा जाएगा
आपके रिसर्च का ज्ञान
भोतिक और रसायन विज्ञानं ॥
आपसे पूछा जाएगा ....
आपके जातिगत पेशे
कैसे दुहते हो गाय
कैसे कराते हो पूजा
कैसे बनाते हो जूता ...
पुनः लौटो यार
मनुवाद की ओर…
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Added by baban pandey on June 7, 2010 at 8:01am —
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आसमान को
कौन छुना नहीं चाहता , मेरे दोस्त !!
तारे तोड़ने की ईच्छा
किसे नहीं होती ॥
परन्तु , आसमान छुने पर
दंभ मत भरना , मेरे दोस्त !!
हिमालय भी दंभ भरता था
अपनी ऊँचाई का .....
न जाने कितनी बार
तोड़ा गया उसका दंभ ॥
पहाड़ के शिखरों पर रखे
पथ्थरो की बिसात ही क्या
किसी भी दिन
कुचल दिए जायेगे
सडकों के नीचे
बड़े -बड़े मशीनों द्वारा ॥
और अंत में ....
यह भी याद रखना , मेरे दोस्त
दरखतो की उपरी…
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Added by baban pandey on June 6, 2010 at 9:54pm —
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ब्लॉग के शीर्षक से आपको लगता होगा कि यह कहानी कोई खाने - खिलाने से सम्बंधित है ..मगर नहीं ..यह कहानी ..न्याय से सम्बंधित है ..यह कहानी मुझे पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर ने सुनाया था ..
प्रोफ़ेसर साहब एक बार भ्रमण के लिए रूस गए थे ... वहां उन्होंने नयायालय में हो रहे प्रकिरिया को देखना चाहा... वे एक न्यायलय में गए . एक नौकर ने अपने मालिक के घर से ४०० रुब्बल कि चोरी कर ली .थी . मालिक ने उस पर केश दर्ज करबा दिया था ..
जज ने नौकर से पूछा.." तुमने चोरी क्यों की"
नौकर ने कहा "…
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Added by baban pandey on June 6, 2010 at 12:18pm —
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