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Hari Prakash Dubey's Blog (100)

अन्धकार भी आज उदास है

भरी हुई मधुशालायें सारी

पीकर  सारे मस्त पड़ें हैं ,

मदिरालय पर लोगों का जमघट

अब मंदिर पर बंध जड़ें  हैं ,

मिटे दुःख दर्द गरीबी सारी

आया नव वर्ष उल्लास है ,

सुन्दर गति,सुन्दर मति सारी

अन्धकार…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 21, 2014 at 5:32pm — 15 Comments

कली तुझसे पूछूँ एक बात

कली तुझसे पूछूँ एक बात,

की जब होती है आधी रात,

कौन  भवंरा बनके चुपचाप,

तेरी  गलियों में आता है !!

 

कली  से काहे पूछे  बात,

की जब होती है आधी रात,

मैं महकती रहती हूँ चुपचाप,

बिचारा खिंच-खिंच आता है !!

 

कभी करता है मिलन की बात ,

सह काटों के आघात वो आधी रात,

नैन से नैन मिला कर चुपचाप,

वो  भवंरा खुद शरमा जाता है !!

 

सखी क्या कह दूँ दिल की बात ,

की अब तो ढलती जाए रात,

नैनों के…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 19, 2014 at 12:00am — 6 Comments

खुदा ने खुदकुशी कर डाली

महा-खुदा की अदालत में

खुदा आज रो रहा है

लाख  मनाने पर भी वो

चुप  नहीं हो रहा  है !!

 

कभी जाता है, सदमें में

कभी जोर से चिल्लाता है

अपनी, अपनों की हत्या में

मैं शामिल हूँ, दुहराता है !!

 

अव्यक्त था चिर निद्रा में

व्यक्त हुआ ब्रम्हांड रचा है

शुन्य से हुआ अनंत में

सृष्टी का निर्माण किया है !!

 

अभिव्यक्त हुआ कण-कण में

मनुष्य का निर्माण किया है

इतने  सुन्दर गुण डाले…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 18, 2014 at 2:00am — 11 Comments

कागज़ की लाशों पर

जब भी कलम उठाता हूँ

तुम्हे यादों में पाता हूँ

शब्द नहीं मिलते लिखने को

तेरा चित्र बनाता जाता हूँ !!

 

कितना कुछ है कहने को

जड़ जुबान हो जाता हूँ

अंतर्मन व्याकुल हो जाता है

उलझन में फंस जाता हूँ !!

 

मैं दबा कुंठित स्वर को

कागज़ की लाशों पर, बस

अक्षर के फूल सजाता हूँ

फिर फाड़ उन्हें जलाता हूँ !!

 

कैसे करूँ दिल की बाते

जब हुई चार दिन मुलाकातें

मैं कैसे करूँ तुम्हे…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 17, 2014 at 2:00am — 9 Comments

तेरा दिया जन्म,मुझे स्वीकार नहीं

तेरा दिया जन्म

मुझे स्वीकार नहीं

जन्म स्थान

मुझे स्वीकार नहीं

यह नाम

मुझे स्वीकार नहीं

स्वीकार नहीं मुझे

कर्म करना, और   

भाग्य से बंध जाना

मुझे स्वीकार नहीं

स्वीकार नहीं मुझे

तेरे तथा-कतिथ दूतों के

नैतिकता-अनैतिकता के निर्देश

उनके छल भरे उपदेश

तेरे नाम पर रचे, उनके

षडयन्त्र भरे परिवेश

मैं विद्रोही तेरी माया का

आ ,मुझे नरसिंह बनकर

हिरण्यकश्यप की तरह मार दे

या…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 3, 2014 at 10:30pm — 14 Comments

खुदा को दो नयी मज़ार बनानी थी

छुपा कर दिल में रक्खी थी

बचपन में बनी प्रेम कहानी थी

 

तुम्हारे जिस पर नाम लिखे थे

दीवार वो, बहुत पुरानी थी

 

पगली ,इश्क में तेरे दीवानी थी

तूने फ़ौज मैं जाने की ठानी थी    

 

तुझे सेहरा बाँध के आना था

निकाह की रस्म निभानी थी

 

कुछ अजब तौर की कहानी थी

तेरी लाश तिरगे में आनी थी

 

उठ गए थे खुनी खंज़र

जान तो जानी ही थी

 

अरे आसमां से तो पूछ लेता

खुदा गर तुझे ,बिजली…

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Added by Hari Prakash Dubey on December 1, 2014 at 11:00pm — 25 Comments

कविता जब तुम,होती हो संग-संग

जीवन जीने का चाव

जहां उग जाता है

कविता कहने का भाव

वहाँ से आता है

अनुभव के बाजारों से

जो लेकर आता हूँ 

उसे ही कविता बना के

जीवन में, मैं गाता हूँ

सुख-दुःख हों जीवन के

चाहे हों उत्थान-पतन

सब कविता की कड़ियों में

छिपा लेता हूँ , करके जतन

जीवन में रहते हैं मेरे नव-रंग

कविता जब तुम होती हो संग-संग !!

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित" 

 

Added by Hari Prakash Dubey on November 29, 2014 at 9:00pm — 10 Comments

तुम्हारा घोंसला

जैसे तुमने

तिनका तिनका जोड़ कर

धीरे-धीरे, बनाया अपना घोंसला

वैसे ही

तुमको देख-देख कर

बढ़ता रहा, मेरा भी हौसला

तुम एक- एक दाना चुग कर लायीं

अपने बच्चों को भोजन कराया

मैंने भी, वेसे ही खेतों में फसल लगायीं

दिन रात श्रम कर अन्न उगाया

धीरे धीरे रेत,बजरी ,सीमेंट ले आया

एक- एक ईंट जोड़कर

अपने सपनों का महल बनाया

जिस तरह तुमने अपने बच्चों को

उनके पैरों पर खड़ा किया

उड़ना सिखाया , उड़ा दिया, विदा किया…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 26, 2014 at 10:30pm — 28 Comments

काला पत्थर

डोभाल जी का मकान बन रहा था, बड़े ही धार्मिक व्यक्ति थे और प्रकृति प्रेमी भी,एक माली भी रख लिया था ,उसका कार्य एक सुन्दर बगीचे का निर्माण करना था ,वह भी धुन का पक्का था , उसने तरह-तरह के फूल ,घास ,पेड़ लगा दिए और कभी –कभी वह  सजावट के लिए रंग बिरंगे पत्थर भी उठा कर ले आता और बड़े अच्छे शिल्पी की तरह उन्हें पौधों के इर्द-गिर्द सजाता ,उस बगीचे में अब तरह तरह के  फूल खिलने लगे थे ,वही नीचे एक बड़ा काला सा पत्थर भी था जिस पर माली अपना खुरपा रगड़ता और पौधों के नीचे से खरपतवार…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 23, 2014 at 10:00pm — 17 Comments

चिंतन

देखो उसे, दार्शनिक बनकर

फिर बैठेगा, नाक में ऊँगली डालेगा

कुछ निकलेगा, गोल –गोल गोलियायेगा

बिस्तर में पोछेंगा, पर कुछ सोचेगा

आँखे बंद करेगा, चिंतन करेगा

इस पर चिंतन, उस पर चिंतन

कर्म पर चिंतन, भाग्य पर चिंतन

शून्य पर चिंतन, अनंत पर चिंतन

चिंतन से निकले हल पर, चिंतन

चिंतन करते –करते, थककर सो जाएगा

इस दर्शन को, कौन समझ पाया है ?

कौन समझ पायेगा ?,पर मैं जानता हूँ,

जब वह चिंतन से जागेगा ,समय से तेज…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 1:00am — 7 Comments

सिगरेट

देख रहा था

थकी हुई  बस में

थके हुए चेहरे

गाल पिचके हुए

हड्डियाँ उभरी हुई

अवसादित परिणति में

एक सिगरेट सुलगाली

बढते विकारों पर

मैंने किया प्रदान

अपना उल्लेखनीय योगदान

देख रहा था,

लोगों को चढ़ते-उतरते

सीटों पर लड़ते- झगड़ते

शोरगुल के साथ- साथ

पसीने की दुर्गन्ध भरी है

बस अब भी वहीँ खड़ी है

लोग बस को धकिया रहे हैं

ड्राइवर साहब गियर लगा रहे हैं

धीरे धीरे बस चल रही है…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 18, 2014 at 12:30am — 13 Comments

कोई इसे नहीं पढ़ेगा

विकृत मस्तिष्क की

उथल पुथल को

तुम क्यों लिखते हो

किसे फ़साने के लिए

ये शब्द-जाल बुनते हो

आड़ी तिरछी रेखायें खींच

छिपा सके न

कुरूपता स्वंय की

अब किसे रिझाने को

व्यर्थ उसमें रंग भरते हो

सावधान अब कुछ मत लिखना

जो लिखा है उसे जला देना

तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा

कोई इसे नहीं पढ़ेगा

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित”

Added by Hari Prakash Dubey on November 15, 2014 at 10:30pm — 10 Comments

“बंधन”

मन धीरे धीरे रो ले,

कोई नहीं है अपना,

मुख आँसुओं से धो ले !

मन धीरे धीरे रो ले.....

मात –पिता के मृदुल बंधन में,

था जीवन सुखमय जाता !

ज्ञात नहीं भावी जीवन हित ,

क्या रच रहे थे विधाता !

अन भिज्ञ जगत के उथल पुथल,

क्या परिवर्तन वो निष्ठुर करता,

लख वर्तमान फूलों सी फिरती,

सखियों संग बाहें खोले !

मन धीरे धीरे रो ले.....

शुभ घड़ी बनी मम मात पिता ने,

वर संग बंधन ब्याह रचाया !

सजी पालकी लिए…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 14, 2014 at 2:30am — 5 Comments

सनन्-सनन् चली पवन

सनन्-सनन् चली पवन

ले के पिया मेरा मन

बंधने लगा प्रेम में

देखो पिया धरती गगन !!

सनन्-सनन् चली पवन

नैन का कजरा तेरा

भडकाने लगा प्रेम अगन

उसपे तेरे हाथ…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 13, 2014 at 1:30am — 2 Comments

सड़क भी अब मुझसे तेज दौड़ती है

तुम

मेरी प्रतीक्षा करना

उस मोड़ पर

मुड जाता है जो

मेरे घर की ओर

मैं दौड़ कर पहुचुंगा

तब भी

जबकि मैं जानता हूँ

सड़क भी अब…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 11, 2014 at 9:00pm — 18 Comments

मुक्त हो गयी आत्मा

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

स्तब्ध रह गयी निशा

मृत शरीर के क्रन्दनो से

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

दूर हो गयी आत्मा

अतीत के स्पन्दनो से

राख हो  गया शरीर

जलते हुये चन्दनों से

मुक्त हो गयी आत्मा !

अपने शरीर के बन्धनों से !!

शरीर आसक्त हो गया

प्रिया में अंतर्नयनों से

आत्मा छल गयी उसे

अनासक्ति के प्रपंचों से

मुक्त हो गयी आत्मा…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 10, 2014 at 7:00pm — 6 Comments

मोक्ष की अभिलाषा

मोक्ष की अभिलाषा

क्या मेरा जीवन निर्धारण
करेगी मेरी जन्म कुंडली
कर्म बंधेगा नव ग्रहों से
होगा भाग्य चक्र निर्धारित इनसे
मुझे नहीं जिज्ञासा
क्या लिख चुका
क्या लिख रहा विधाता
मैं अनंत का पंछी
मुझे नहीं मोक्ष की अभिलाषा

© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Hari Prakash Dubey on November 8, 2014 at 8:00pm — 16 Comments

“मुझे पत्थरों से टकराने दो”

तुम बने रहो अविनाशी
मेरा सर्वनाश हो जाने दो
स्वयं बने रहो अजन्मे
मुझे जनम-जनम भटकाने को
रहो तुम बैठे मंदिरों में
मुझे यायावर बन जाने दो
करवाओ खुद पर फूलों की वर्षा
मुझे पत्थरों से टकराने दो
मुझे पत्थरों से टकराने दो !!
© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 7:00pm — 9 Comments

“जलते सूरज से टकराओ”

तपते सूरज से

पिघल रही है बर्फ

बढ़ रहा है जलस्तर

तुम फिर डूबोगे

किसी मनु को खोजोगे

वह नहीं आयेगा

फिर कौन तुम्हे बचायेगा

प्रलय हो जायेगी

इस बार तुम्हें बचाने

कोई नाव नहीं आएगी

तुम पानी हो जाओगे

पर तुम्हे उठाना होगा

वाष्प बनकर उड़ना होगा

उठो बादल बन जाओ

इस जलते सूरज से टकराओ

इस बर्फ को पिघलने से

अगर तुम बचा पाओगे

तो स्वयं मनु बन जाओगे !!

("मौलिक व अप्रकाशित")

Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 12:30pm — 10 Comments

बर्फीली आंधी और पिस्तौल का निशाना

जग को मोहित करने वाला

स्वयं मोहित हो गया है

उसी माया पर  

जिसको रचा था

स्वयं उसी ने

इस जग को मोहने के लिए

उस पर अतिव्यापित

हो गयें हैं अनर्गल प्रलाप

प्रपंचों मैं फंसकर

वह स्वयं मनुष्य बन गया है

उस रंगमंच पर उतर गया है

जिसका अंत हमेशा होता है

परदे का गिर जाना

और किसी व्यक्तित्व का

पात्रों की भीड़ में खो जाना

वह अब मंच पर नाच रहा है

लोगों को हंसा रहा है

कभी रुला रहा…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 12:00pm — 6 Comments

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