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दोहा सप्तक -६( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

रह कर अपनी मौज में, बहना  नित चुपचाप

सीख सिन्धु से सीख ये, जीवन पथ को नाप।।

*

जन सम्मुख जो दे रहे, आपस में अभिशाप

सत्ता को करते  मगर, वो  ही  भरत मिलाप।।

*

शासन  भर  देते रहे, जनता  को सन्ताप

सत्ता बाहर बैठ अब, करते बहुत विलाप।।

*

बचपन से ही बन रहे, जो गुण्डों की खाप

राजनीति की छाँव में, रहे नोट नित छाप।।

*

दुख वाले घर द्वार पर, सुख देता जब थाप

उड़ जाते  हैं  सत्य  है, बनकर  आँसू भाप।।

*

कह लो  चाहे  तो  बुरा, चाहे अच्छा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 4, 2022 at 8:47pm — 8 Comments

ग़ज़ल- भाते हैं कम

212 212 212

1

जाने क्यों इश्क़ के पेच ओ ख़म

ज़ेह्न वालों को भाते हैं कम

2

उनके सर की उठा कर क़सम

हम महब्बत का भरते हैं दम

3

मुस्कुरातीं हैं सब चूड़ियाँ

जब सँवारें वो ज़ुल्फ़ों के ख़म

4

जब जी चाहे बुला लेते हैं

करके पायल की छम-छम सनम

5

होंगे दिन रात मधुमास से

जब भी पहलू में बैठेंगे हम

6

जाएँ जब उनकी आग़ोश में

रौशनी शम्अ की करना कम

7

एक पल में ही मर…

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Added by Rachna Bhatia on January 2, 2022 at 1:01pm — 6 Comments

ख़्याली पुलाव

एक साथ यदि सारी दुनिया

क्वारन्टाइन हो जाए

सदा सर्वदा दूर संक्रमण

जग से निश्चित ही जाए

प्रलयंकारी अस्त्र-शस्त्र 

ग़र सभी साथ में नष्ट करें

सारे देश सम्मुनत, हर्षित

सर्व सुखों का भोग करें

वन उपवन से प्रकृति सुसज्जित

मानव का कल्याण करे

नित नवीन होता परिवर्तन

सुखद, सात्विक मोद भरे

सकल विश्व का मंगल तय तब

चँहु दिशि व्यापे खुशहाली

सुन्दर पर कल्पित, सपना है

यह पुलाव तो है…

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Added by Usha Awasthi on January 2, 2022 at 11:31am — 3 Comments

गीत ,, विछोह मुझे मिलन लगता है.......!

विछोह मुझे मिलन लगता  है.....!

जीना मुझे यज्ञ  में आहुति

मरना गंगा जल लगता  है 

जब से होठ, छुए होठों से,

गाँव गुमा शहर वो लगता है 

विछोह मुझे मिलन लगता है !

अथाह  गहरा है समन्दर वो

मगर  मोती सीप  रहता  है

पालनहार जानता सब कुछ,

रू में उसकी वो खुद रहता है

विछोह मुझे मिलन लगता है !

ग़ज़ल मुझे बाँसुरी कान्हा की

दिल वो अलगोझा  लगता  है 

तेरे    मेरे   बोझ   दुखों …

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Added by Chetan Prakash on January 1, 2022 at 12:23pm — No Comments

नव वर्ष पर 5 दोहे

सबसे पहले आपको नाथ नवाता शीश
यही याचना, आपका मिलता रहे आशीष

जीवन मे उत्थान दे मंगलमय नव-वर्ष
नए साल में छूइए नए-नए उत्कर्ष

शुभकामना स्वीकारिये मेरी भी श्रीमान
शुक्ल पक्ष के चाँद सी बढ़े आपकी शान

जैसे इस ब्रम्हांड का नही आदि ना अंत
वैसे ही श्रीमान को खुशियाँ मिलें अनंत

धन-सम्पत से युक्त हों लोभ-मोह से हीन
उनको भी उद्धारिये जो हैं दीन-मलीन 

मौलिक एवं अप्रकाशित


आशीष यादव

Added by आशीष यादव on January 1, 2022 at 9:05am — 7 Comments

नये साल का तुहफ़ा

नए साल की आमद पर तुझ को 

क्या तुहफ़ा पेश करूँ ऐ दोस्त

ये दिल तो सदा से तेरा है 

अब जान भी तेरी हुई ऐ दोस्त

हर साल के हर नए माह तुझे 

ख़ुशियों का नया पैग़ाम मिले

हर दिन के हर लम्हे तुझसे 

ग़म कोसों दूर रहे ए दोस्त

नाकामी किसे कहते हैं भला 

तुझको न रहे कुछ इसकी ख़बर

थम जाएं कहीं जो तेरे क़दम 

ख़ुद आए वहां मंज़िल ए दोस्त

"मौलिक व अप्रकाशित" 

Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on January 1, 2022 at 12:00am — 4 Comments

सिर्फ सुख में रहें सब नये वर्ष में - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२ /१२२१/२२१२



खूब आशीष  दो  रब नये वर्ष में

सिर्फ सुख में रहें सब नये वर्ष में/१

*

सुन जिसे पीर मन की स्वयं ही हरे

गीत  ऐसा  लिखें  अब  नये वर्ष में/२

*

छोड़कर द्वेष बाँटें सभी में सहज

प्रेम की सीख मजहब नये वर्ष में/३

*

नीति ऐसी बने जिससे आगे न हो

बन्द कोई भी मकतब नये वर्ष में/४

*

काम आये यहाँ और के आदमी

सिर्फ साधे न मतलब नये वर्ष में/५

*

मौलिक/अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 31, 2021 at 10:39am — 2 Comments

नए साल

नए साल
तुझसे गुहार

छोटी सी पुकार

 

 क़ि छोटा सा एक नीड़ है 

मेरी अमानत

 इस पर नज़र रखना…

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Added by amita tiwari on December 30, 2021 at 11:30pm — No Comments

सलाह दे पाऊँ दीवार को

आज

काश ! सलाह दे पाऊँ

दीवार को

कि बाहों में भर

फुसफुसा ले

सुना ले सारी दिल की बातें

कर ले सारे गिले शिकवे शिकायतें

ठंडी साँसों को और गहराले

कर ले कलेजे का लिहाज़

कि कहाँ अब बाकि हफ़्ते दिन रैन

घड़ी दो घड़ी की भी क्या बिसात

कि बस सीने से चस्पाँ कलेंडर

इतिहास हो जाने को है

काल क़ा चक्र एहसास हो जाने को है

जी चाहता है

स्मरण दिला दूँ

दीवार को

क़ि ये भी…

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Added by amita tiwari on December 30, 2021 at 11:30pm — 1 Comment

ग़ज़ल-दुख

1222      1222      1222       122

किसी की बेरुख़ी है या सनम हालात  का दुख

परेशां  हूँ हुआ  है अब तुझे किस बात का दुख



तुम्हें  तो  पड़  गई  हैं  आदतें  सी  रतजगों  की

तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता बढ़ रहा जो रात का दुख



जमाती  सर्दियाँ, फुटपाथ  का  घर, पेट  ख़ाली

उन्हें  सोने  नहीं  देता  कई  हालात  का  दुख



भिंगोते  रात  का आँचल  बशर अपने  ग़मों से…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 30, 2021 at 11:00am — 5 Comments

जाते साल के दोहे

आने  वाले  साल   से,  कहे  बीतता  वर्ष
मुझ सा दुख मत बाँटना, देना केवल हर्ष।।
*
वर्ग भेद जग से मिटा, मिटा जाति संधर्ष
कर देना कर थामकर, निर्धन का उत्कर्ष।।
*
पहले सा परमार्थ भी, वह फिर गुणे सहर्ष
स्वार्थ साधना ही न हो, सत्ता का निष्कर्ष।।
*
घर आँगन है जो बसा, झाड़ पोंछ सब कर्ष
भर   देना  सौहार्द्र  से, अब  के   भारतवर्ष।।

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर'

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 30, 2021 at 7:30am — No Comments

दोहा मुक्तक ......

दिल से दिल की हो गई, दिल ही दिल में बात ।
दिल तड़पा दिल के लिए, मचल गए जज़्बात ।
दिल में दिल की जीत है, दिल में दिल की हार -
दिल को दिल ही दिल मिली, धड़कन की सौगात ।

2.

काल गर्भ में है निहित, कर्म फलों का राज़।
अंतस में गूँजे सदा,  कर्मों की आवाज़ ।
कर्म प्राण है जीव का, कर्म जीव की आस -
अच्छे कर्मो से करो, जीने का आगाज़ ।


सुशील सरना / 27-12-21

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on December 27, 2021 at 7:30pm — 4 Comments

कैसी थी यह अलविदा

"अन्तिम विदा" की शाम के बाद

कुछ पलों के लिए ही सही

एक बार पुन: तुम्हारा लोट आना

आँचभरी वेदना को छुपाती मेरी आँखों में देखना

मानवीय उलझनें, प्यार की तलाश

और अब अश्चर्य और उत्साह का सुप्रसार…

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Added by vijay nikore on December 27, 2021 at 4:00pm — 3 Comments

ग़ज़ल नूर की - उस के नाम पे धोखे खाते रहते हो

,

उस के नाम पे धोके खाते रहते हो

फिर भी उस के ही गुण गाते रहते हो.

.

उस के आगे बोल नहीं पाते हो तुम

मैं बोलूँ तो हाथ दबाते रहते हो.

.

कोई नया इस दुनिआ में कब आता है

तुम ही जा कर वापस आते रहते हो.

.

तुम को वापस अपने घर भी जाना है

क्यूँ दुनिआ से लाग  लगाते रहते हो.

.

अक्सर मिलता है वो इन्साँ पूजता है 

वो जिस को तुम ख़ुदा बताते रहते हो.

.

वाइज़ जी क्या तुम ने वो सब सीख लिया 

हम को जो कुछ तुम समझाते रहते…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on December 27, 2021 at 8:30am — 9 Comments

दोहा सप्तक -५ ( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

सूरज यूँ है गाँव में, बहुत अधिक अँधियार।

नगर-नगर ही कर रही, किरणें हर व्यापार।।१

*

बन जाती है देश  में, जिस की भी सरकार।

जूती सीधी कर रहे, नित उस की अखबार।।२

*

कैसे ये बस्ती जली, क्यों उजड़ा बाजार।

किस से पूछें बोलिए, जगी नहीं सरकार।।३

*

गमलों में  फसलें  उगा, खेतों  में हथियार।

इसी सोच से क्या सुखी, होगा यह संसार।।४

*

कोई जब हो छीनता, थोड़ा भी अधिकार।

आँखों से आँसू  नहीं, निकलें  बस अंगार।।५

*

बातें व्यर्थ सुकून की,…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 26, 2021 at 6:02am — 6 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
गजल : गजल-गीत संवेदना के हैं जाये // सौरभ

122   122   122   122 

  

रजाई में दुबके, कहे सुन छमाछम..

किचन तक गयी धूप जाड़े की पुरनम

 

चकित चौंक उठतीं नवोढ़ा की आँखें

मुई चूड़ियो मत उठा शोर मद्धम

 

तुम्हीं को मुबारक जो ठानी है कुट्टी

नजर तो नजर से उठाती है सरगम

 

गजल-गीत संवेदना के हैं जाये

रखें हौसला पर जमाने का कायम

 

भरी जेब, निश्चिंतता हो मुखर तो

यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

 

निराला जो ताना, तो बाना गजब का

नए नाम-यश का उड़ाना है परचम…

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Added by Saurabh Pandey on December 25, 2021 at 10:52pm — 4 Comments

यही है शिकायत यही तो गिला है....ग़ज़ल ( सालिक गणवीर)

122-122-122-122

यही है शिकायत यही तो गिला है

चराग़ों तले क्यों अँधेरा हुआ है (1)

लुटाया है सब कुछ कहा जा रहा है

मैं ये सोचता हूँ मुझे क्या मिला है (2)

कभी सामने जो अकड़ता बहुत था

वही उसके क़दमों के नीचे पड़ा है (3)

न आगे कोई है न है कोई पीछे

बयाँ दे रहा बीच सबके खड़ा है (4)

बड़ी मुश्किलों से कटी ज़िंदगी ये

न जाने मुक़द्दर में क्या क्या लिखा है (5)

ख़ुशी के दो पल हाथ आते नहीं पर

ये ग़म है कि…

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Added by सालिक गणवीर on December 24, 2021 at 11:00pm — 4 Comments

नज़्म (उसकी आँखें जो बोलती होतीं)

उसकी आँखें जो बोलती होतीं

कितने अफ़्साने कह रही होतीं

यूँ ख़ला में न ताकती होतीं

सिम्त मेरी भी देखती होतीं

काश आँखें मेरी इन आँखों से 

हर घड़ी बात कर रही होतीं

उसकी आँखें जो बोलती होतीं...

देखकर मुझको मुस्कराती वो 

अपनी आँखों में भी बसाती वो 

जब कभी मुझसे रूठ जाती वो 

मुझको आँखों से ही बताती वो 

मेरे आने की राह भी तकतीं 

नज़रें बस दरपे ही टिकी होतीं

उसकी आँखें जो बोलती…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 23, 2021 at 9:47pm — 4 Comments

दोहा सप्तक -४ (लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर')

लेता है भुजपाश में, बढ़चढ़ ज्यू ही काम।

एक हवेली प्यार  की, होती नित नीलाम।।१

*

कर लो ढब ऐश्वर्य  को, चाहे  इस के नाम।

दुधली की दुधली रहे, हर जीवन की शाम।।२

*

सिलता रहा जुबान जो, बढ़चढ़ यहाँ निजाम।

शब्दों ने झर आँख से, किया कहन का काम।।३

*

निर्धन को जिसने दिये, हरदम कम ही दाम।

धनी उसे  ठग  ले  गया, पैसा  नित्य तमाम।।४

*

रमे  यहाँ  व्यापार में , सब  ले  उसका नाम।

महज भक्ति के भाव से, किसको प्यारे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2021 at 10:00am — 4 Comments

ग़ज़ल नूर की- कहीं से उड़ के परिन्दे कहीं पे उतरे हैं

कहीं से उड़ के परिन्दे कहीं पे उतरे हैं  

ख़ुदा से हो के ख़फ़ा हम ज़मीं पे उतरे हैं.

.

तुम्हारे ढब से मिली बारहा जो रुसवाई  

हर एक बात पे हाँ से नहीं पे उतरे हैं.

.

हमारी आँखों की झीलें भी इक ठिकाना है     

तुम्हारी यादों के सारस यहीं पे उतरे हैं.

.

हमारी फ़िक्र से नीचे फ़लक मुहल्ला है  

ये शम्स चाँद सितारे वहीं पे उतरे हैं.  

.

हज़ारों बार ज़मीं ने ये माथा चूमा है

उजाले सजदों के मेरे जबीं पे उतरे हैं.  

.

निलेश "नूर"…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on December 22, 2021 at 10:30pm — 10 Comments

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