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All Blog Posts (19,126)

शब्दों के पंछी

शब्दों के घेरे

 घेर लेते है मुझे

किसी चिड़िया की

मानिंद आ बैठते हैं

हृदय रूपी वृक्ष द्वार पर  

कल्पनाओं की टहनी पर

फुदक फुदक कर

बनाते है नई रचनाये

गीत कवित्त कविताएं

कल्पनाओं की उड़ान

को देते हैं हर बार

नए पंख लगा बैठते  

हर बार टहनी टहनी

मेरे नए जीवन की

हर सुबह को देते

एक सूरज नया । ............ अन्न्पूर्णा बाजपेई

 

मौलिक एवं अप्रकाशित  

Added by annapurna bajpai on July 30, 2013 at 2:00pm — 11 Comments

हर तरफ जंग की तस्वीर नई होती है॥

जब कभी अम्न की तदबीर नई होती है॥

हर तरफ जंग की तस्वीर नई होती है॥

ख़त्म कर देती है सदियों की पुरानी रंजिश,

वक़्त के हाथ में शमशीर नई होती है॥

पहले होते हैं यहाँ क़त्ल धमाके…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on July 30, 2013 at 1:37am — 8 Comments

कभी यूँही......

वास्ता बस यूँ कि

यादें आती रहें जाती रहें

इसी बहाने कभी यूँही कह

मुस्कुरा लिया करेंगे

गुज़रती बेहाल सी

रफ़्तार भरी ज़िन्दगी में भी

इसी बहाने कभी यूँही कह

दो घड़ी थम जाया करेंगे

दुखती आँखों पर भी

थोड़ा रहम हो जायेगा

इसी बहाने कभी यूँही कह

आंखे मूंद तुम्हें

देख लिया करेंगे

खोलती नहीं दुपट्टे की

वो गांठ चुभती है जो

ओढ़ने में….इसी बहाने

कभी यूँही कह तुम्हें

महसूस कर लिया…

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Added by Priyanka singh on July 29, 2013 at 10:50pm — 15 Comments

प्रेम के कवित्त - (रवि प्रकाश)

1.धार तू,मझधार तू,सफ़र तू ही,राह तू,

घाव तू,उपचार तू,तीर भी,शमशीर भी।

जाने कितने वेश है,दर्द कितने शेष हैं,

गा चुके दरवेश हैं,संत ,मुर्शिद,पीर भी।

ध्वंस किन्तु सृजन भी,भीड़ तू ही,विजन भी,

छंद है स्वच्छन्द किन्तु,गिरह भी,ज़ंजीर भी।

भाग्य से जिसको मिला,उसे भी रहता गिला,

पा तुझे बौरा गए,हाय,आलमगीर भी॥

 

 

2.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,

जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।

कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,

कुछ ग़ज़लों…

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Added by Ravi Prakash on July 29, 2013 at 8:00am — 9 Comments

"स्पंदन "

बेजान कमरे में

टूटी खटिया पे लेटा

करवट लेते हुए

आँखों के पूरे सूनेपन के साथ

कभी कभी खिड़की के

बाहर देखता हूँ

कैसी है दुनियां

क्या वैसी ही है

जैसी पहले हुआ करती थी

दर्द के समंदर में

निस्पंद जड़ सा

सोचता रहा

अपने ही अपने नहीं रहे

ये गुमशुदी का जीवन कब तक

एक चिंता जाती

तो दूसरी उत्पन्न

देखता रहता हूँ

सजीव कंकाल सा

इधर उधर

बस जिंदा हूँ

औपचारिक

राम शिरोमणि…

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Added by ram shiromani pathak on July 28, 2013 at 8:00pm — 16 Comments

क्या पता सावन भी किसी के लिए रोता होगा

देख कर सावन को

आँखे भर आती हैं

क्या पता सावन भी

किसी की याद मे रोता होगा

मेरी ही तरह करता होगा

इंतज़ार किसी का ….

टूट जाने पर वादा

मेरी ही तरह रोता होगा

क्या पता सावन भी

सावन में किसी के लिए

तरसता होगा ………

करके वादा गया होगा कोई

लौट कर आऊंगा उस महीने में

जिसमे बरसात होगी ……

ऐ मेरे चाहने वाले

अब तो तुमसे

बरसात में ही मुलाक़ात होगी

टूटता होगा वादा तो

दिल भी टूट जाता होगा

दर्द के…

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Added by Sonam Saini on July 28, 2013 at 11:30am — 7 Comments

साँझ से संवाद

नव निशा की बेला लेकर,

साँझ सलोनी जब घर आयी।

पूछा मैंने उससे क्यों तू ,

यह अँधियारा संग है लायी॥

सुंदर प्रकाश था धरा पर,

आलोकित थे सब दिग-दिगंत।

है प्रकाश विकास का वाहक,

क्यों करती तू इसका अंत॥

जीवन का नियम यही है,

उसने हँसकर मुझे बताया।

यदि प्रकाश के बाद न आए,

गहन तम की काली छाया॥

तो तुम कैसे जान सकोगे,

क्या महत्व होता प्रकाश का।

यदि विनाश न हो भू पर,

तो कैसे हो…

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Added by Pradeep Bahuguna Darpan on July 28, 2013 at 11:00am — 6 Comments

कविता : बादल, सागर और पहाड़ बनाम पूँजीपति

बादल

 

बादल अंधे और बहरे होते हैं

बादल नहीं देख पाते रेगिस्तान का तड़पना

बादलों को नहीं सुनाई पड़ती बाढ़ में बहते इंसानों की चीख

बादल नहीं बोल पाते सांत्वना के दो शब्द

बादल सिर्फ़ गरजना जानते हैं

और ये बरसते तभी हैं जब मजबूर हो जाते हैं

 

सागर

 

गागर, घड़ा, ताल, झील

नहर, नदी, दरिया

यहाँ तक कि नाले भी

लुटाने लगते हैं पानी जब वो भर जाते हैं

पर समुद्र भरने के बाद भी चुपचाप पीता…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 27, 2013 at 10:00pm — 5 Comments

बहुत दिन बाद आए

नीरज, बहुत दिन बाद आए

जेठ में भी

बादल दिख गए

पर तुम नहीं दिखे

 

हमारा साथ कितना पुराना

जब पहली बार मिले थे

तभी लगा था

पिछले जनम का साथ

करम लेखा की तरह

अनचीन्हा नहीं था

 

तुम्हारे न रहने पर

बहुत अकेला होता हूँ

किसी के पास

समय नहीं

समय क्या

कुछ भी नहीं

दूसरों के लिए

दिन काटे नहीं कटता

 

तुम नहीं थे

मैं जाता था बतियाने

पेड़…

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Added by बृजेश नीरज on July 27, 2013 at 8:30pm — 18 Comments

सावन है अति पावन | वीर छंद |

जब घिर बदरा  रिम झिम बरसे  , तब दादुर नाचे बन  मोर |
पवन बहे जब झूम झूम के , तब घासें झूमें झकझोर  |
चाँद छुप छुपआये गगन में , जनु   चाँदनी छुपे हर ओर | 
आया है मन भावन सावन , सब कजरी गावें चहुओर | 
डाली झूम जनु  गुनगुनायें , कोयल भी गाये दिल…
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Added by Shyam Narain Verma on July 27, 2013 at 5:30pm — 5 Comments

मन तक आना शेष रहा - (रवि प्रकाश)

मैंने बस धीरज माँगा था,तुमने ही अधिकार दिया;

कितने पत्थर रोज़ तराशे,फिर मुझको आकार दिया।

बादल,बरखा,बिजली,बूँदें,क्या कुछ मुझमें पाया था;

पथ-भूले को इक दिन तुमने,दिग्दर्शक बतलाया था।

लेकिन मेरे पथ पर चलना,श्रद्धा लाना शेष रहा।

धड़कन के दरबान बने तुम,मन तक आना शेष रहा॥

आशा को थकन नहीं होती,इच्छा को विश्राम कहाँ;

जब तक साँसों में उष्मा है,जीवन को आराम कहाँ।

कण-कण जमते हिमनद में भी,बाक़ी रहता ताप कहीं;

मनभावन आलिंगन में भी,छू जाता संताप…

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Added by Ravi Prakash on July 27, 2013 at 5:30pm — 7 Comments

जिंदगी दूर तक !

सम्मानीय सादर नमन !!

 मेरी पहली पोस्ट आप सब के हवाले
 ************************************
जिंदगी दूर तक !
तीरगी दूर तक !!
 
दिखती अब नहीं ,
रौशनी दूर तक !!
 
आँखों में ख्वाब थे ,
है नमी दूर तक !!
 
ले के आयी हमें ,
तिश्नगी दूर तक !!
 
मैं गलत ही सही ,
तू सही दूर तक !!
 
लुत्फ़ देने लगी…
Continue

Added by arvind ambar on July 27, 2013 at 8:30am — 9 Comments

दो शब्द (राम शिरोमणि पाठक)

१-सहनशीलता

उत्पीडन की क्रीडा से उत्पन्न श्रान्ति से

पिंग बने टहल रहे

अकारण ही रंज रुपी हरिका खे रहे

मोषक को पोषक कहते

वाह!सहनशीलता की पराकाष्ठा

शायद!

खुद को काकोदर के मुख में फसा

मंडूक मान बैठे है

२-लिखता रहा

हृदयतल के तड़ाग से

अनकहे शब्द

अकुलाहट के साथ

बुलबुले बन

निकलते रहे निकलते रहे

पीड़ा है क्या ? नहीं तो

प्रेम है

विरह है

पता नहीं

फिर भी मै …

Continue

Added by ram shiromani pathak on July 26, 2013 at 8:30pm — 20 Comments

नवगीत//उत्तर यहीं अड़ा है//'कल्पना रामानी'

 

पावस का इस बार भूमि पर

प्यार बहुत उमड़ा है।

लेकिन क्या सुख संचय होगा?

संशय नाग

खड़ा है।

 

मक्कारी, गद्दारी, लालच,

शासन के कलपुर्ज़े। 

बूँद-बूँद को चट कर देंगे,

घन बरसे या गरजे।

 

भरे सकल जल-स्रोत लबालब,

सागर ज्वार चढ़ा है।  

मगर उसे नल नहलाएगा?

चिंतित मलिन

घड़ा है।

 

बन मशीन मानव ने भू के,

रोम-रोम को वेधा।

क्यों कुदरत फिर क्षुब्ध न होगी,

रुष्ट न…

Continue

Added by कल्पना रामानी on July 26, 2013 at 7:27pm — 17 Comments

जल उठा मन का दिया // गीत

जल उठा मन का दिया 

प्रियतम! मिले हो जब से !

भोर हुयी है जीवन में

तमस रात थी कब से ! 

सांसो में तेरी ही खुशबु 

तुझको पाया जब से !

फूल खिले मन-उपवन में 

बीता पतझड़ जब से !

रक्त वाहिनी मद्धम मद्धम 

छुआ है तुमने जब से !

                     जितेन्द्र 'गीत

मौलिक/अप्रकाशित  

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 5:30pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
चौमासा

पोखर छल छल जल भरे ,धुले धुले मैदान|

काई ने पहना दिए , हरित नवल परिधान||

धरती अंतर में छुपा,दादुर जीव विचित्र|  

नव चौमासे ने कहा ,बाहर आजा मित्र|| 

मुक्तक फूटें  मेघ से ,टपर टपर टपकाय |    

प्यासा चातक चुन रहा,चरुवा भरता जाय|| 

 …

Continue

Added by rajesh kumari on July 26, 2013 at 4:30pm — 13 Comments

काश !

काश! 

आरजू मै करु मिलने की, और वो रुबरु हो जाये ।

काश ! मेरी मोहब्बत की, ऐसी तासीर हो जाये ।।

न शिकवा ना शिकायत हो कोई भी खुदा से ।

काश!  ऐसा हर कोई खुश नसीब हो जाये…

Continue

Added by बसंत नेमा on July 26, 2013 at 2:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल : हुई है सभ्यता गायब

बहर : हज़ज़ मुरब्बा सालिम

......... १२२२, १२२२ .........

अलग बेशक हुए मजहब,

सभी का एक लेकिन रब,

नज़र में एक से उसके,

भिखारी हो भले साहब,

जिसे जितनी जरुरत है,

दिया उसको उसे वो सब,

सभी को एक सी शिक्षा,

खुदा का बाँटता मकतब,

(मकतब : विद्यालय)

मुसीबत में पुकारे जो,

चले आयें बने नायब,

(नायब : सहायक)

अजब ये दौर आया की,

हुई है सभ्यता…

Continue

Added by अरुन 'अनन्त' on July 25, 2013 at 9:23pm — 13 Comments

हल्द्वानी में आयोजित ओ बी ओ 'विचार गोष्ठी' में प्रदत्त शीर्षक पर सदस्यों के विचार : अंक १

आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,

सादर वंदे !

 

ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति…

Continue

Added by Admin on July 25, 2013 at 8:00pm — 26 Comments

पिता

मेरे दादाजी को श्रद्धांजली स्वरूप कुछ पंक्तियाँ  

पिता! 

तुम छत थे

ढह गये

तीव्र उम्र तूफान से

दरक गयीं दीवारें

लगाव ख़त्म

आपसदारी 'थी'

'है' नही

न कोई बचाव

धूप से

या बारिश से

शीत से

या गैरों से

न रहा घर

रह गया ढेर

ईंटों का

तुम थे 'एक छत'

हम 'चार दीवारें'

मिटा दिया हमने

अहसास

तुम्हारे होने का

तुम गये, शेष

एक प्रश्न

अवशेष …

Continue

Added by वेदिका on July 25, 2013 at 8:00pm — 19 Comments

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