एक पुरानी ग़ज़ल -
२१२२ १२२१ २२१२
बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए
ऐ मेरे चारागर कुछ दवा दीजिए
कुछ तो जज्बात मेरे समझिए जरा
कुछ तो मेरी वफ़ा का सिला दीजिए
दिल धुआं है मगर…
ContinueAdded by sanju shabdita on April 4, 2014 at 8:27pm — 26 Comments
Added by Akhand Gahmari on April 4, 2014 at 7:13pm — 6 Comments
आँख कान और जुबान की सांकल खुले तो
पूछना उनसे
जिंदाबाद का नारा लगानेवालों में
कितने ज़िंदा थे यकीनन|
पूछना आँखे खुल जाने के बाद
रोज निगली जाने वाली मक्खियों का स्वाद
पूछना वर्तनी उन गालियों का
जिसके एक छोर पर माँ तो दूसरे छोर पर
अक्सर बहने हुआ करती है|
मगर मत पूछना जुबान से
उस मांसल देह का स्वाद
जिसकी कन्दराओं में ना जाने
कितनी माँए और बहने दुबकी होती है
मगर एक बार पूछना जरुर
इन सांकलों के खुल…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on April 4, 2014 at 2:00pm — 6 Comments
दिल तो दीवाना हुआ
आपका इस घर मे कुछ इस तरह आना हुआ
ऐसा लगता है यह घर है आपका जाना हुआ ।
मुझको तो मालूम न था आप यूं छा जाएँगे
रेशमी ज़ुल्फों मे मुझको , यूं छुपा ले जाएँगे ।
आपकी ज़ुल्फों मे खोये सुबह का आना हुआ
ऐसा लगता है यह घर है आपका जाना हुआ ।।
आप सावन की घटा हैं, या हैं फागुन की बहार ?
अब गले लग जाइए , मत देखिये यूं बार बार ।
नयन है मदहोश अब तो प्यार पैमाना हुआ
ऐसा लगता है यह घर है आपका…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on April 3, 2014 at 8:30pm — 6 Comments
गजल......
अरकान--2122 2121 212
जिन्दगी की तीव्र गति आवाक है।
सोच कर दिन-रात मति आवाक है।।
बस चुनावी दौर का सुरूर अब,
उड़ रहा मानव नियति आवाक है।
चॉंद छिप कर सोचता वो क्या करे,
बादलों का खौफ रति आवाक है।
पीर के पत्थर पिघल के सो गए,
नग्न पर्वत देख यति आवाक है।
नारि तुलसी-गौतमी औ द्राैपदी,
पूॅूछती हैं प्रश्न पति आवाक है।
घोर कलियुग पाप का आधार जब,
धर्म के पथ पर जयति आवाक…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 3, 2014 at 8:09pm — 6 Comments
रमीला ने बगल मे बैठी अपनी पड़ोसन से कहा , "तुम्हें पता है खन्ना साहब के बेटे के साथ अल्का की बेटी का चक्कर चल रहा है और तो और कई बार वह रातों को भी घर नहीं आती , मैडम कहती है कि लेट नाइट स्टडीज़ के चलते वह हास्टल मे ही रुक जाती है , बेटी ने कालेज मे ही हास्टल ले रखा है । अरे यहाँ तो किसी को ये जानने की भी फुर्सत नहीं है कि बेटी कहाँ जाती है । "
रमीला ने आगे कहा," और आज जिस खुशी मे पूजा रखवाई है बेटे की नौकरी के लिए , वह पता है मेरे पति ने सिफ़ारिश करके लगवाई है वरना इनका बेटा तो…
ContinueAdded by annapurna bajpai on April 3, 2014 at 6:30pm — 22 Comments
बात भी दिल की तुझे हम अब बतायें कैसे
साथ जो हमने बिताये पल भुलायें कैसे
बंद रखना तू न ओठों को बता दे इतना
बात जो दिल पर लिखी तुमने मिटायें कैसे
मौत भी करती रही है वेवफाई मुझसे
पास हम अपने बुलायें तो बुलायें कैसे
आपकी तो चाहतो में खुद जले थे ऐसे
लाश भी कोई हमारी अब जलायें कैसे
खोल कर अपने लबों को तू बता दे यारा
दाग दामन पर लगे हैं वो धुलायें कैसे
मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी
Added by Akhand Gahmari on April 3, 2014 at 5:17pm — 12 Comments
न सोना न चांदी न धन ले गई
मुहब्बत मेरी बांकपन ले गई/१
हजारों फ़रिश्ते गये हारकर
मेरी जान तो गुलबदन ले गई/२
नई ताजगी है नई सुब्ह है
चलो! मौत मेरी थकन ले गई/३
न मशहूर होना खुदा के लिए
समंदर नदी की उफन ले गई/४
चलो बेच आएं बची रूह को
गरीबी हमारे बदन ले गई/५
न ताक़त रही ज़ोश भी कम गया
शिकस्ते वफ़ा सब अगन ले गई/६
लिबासें चमकती रहे इसलिए
सियासत शहीदी…
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on April 3, 2014 at 4:00pm — 27 Comments
कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!
तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !
मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !
तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !
एक गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !
मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !
तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !
मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता…
ContinueAdded by Arun Sri on April 3, 2014 at 11:24am — 22 Comments
2122- 2122- 2122- 212
रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था
सब दिखाई दे गया आँखो में जो पर्दा न था
झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं
झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था
शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी
कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था
कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था
ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक
आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 2, 2014 at 7:32pm — 28 Comments
सार्थक हस्तक्षेप के कवि: महेंद्रभटनागर
— डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय
प्रोफे़सर, हिन्दी-विभाग, जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
हिम्मत न हारो!
कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन!
हिम्मत न हारो!…
ContinueAdded by MAHENDRA BHATNAGAR on April 2, 2014 at 10:30am — 3 Comments
नन्हीं नन्हीं
ख़वाहिशें जन्मी है
जैसे पतझड़ के बाद
नन्हीं कलियाँ
नन्ही कोपले
बड़े आग़ाज़ का
छोटा सा ख़ाका
बड़ी उम्मीदों की
छोटी सी किरन
उगने दो इन्हें
पनपने दो
कल की धूप के लिए
इनके साये बनने दो
करो तैयारी
खूबसूरत शुरुआत कि
सजाओ बस्ती
अपने जहान कि
के फिर
मौसम ने करवट ली है
फिर क़िस्मत ने दवात दी है
फिर खुशियों ने रहमत की…
ContinueAdded by Priyanka singh on April 1, 2014 at 2:32pm — 20 Comments
गजल.....जमाना धूल-गर्दिश का
बह्र - 1222, 1222, 1222, 1222
इशारों ही इशारों में, इशारे कर रहे हैं हम।
तरफदारी हमारी तो, हजारों मर रहे हैं हम।।
उदारी नीति पावन पर, दिशा हर बार संहारी,
गरीबी भेड़ जैसी बस, कुॅंओं को भर रहे हैं हम।।1
भिड़े हैं शेर-हाथी गर, शिवा-राणा लड़े गॉंधी,
हमें भी देखिये साहब, गधों से डर रहे हैं हम।2
कहानी जब सुनाते हैं, हमें तो नींद आती है,
उड़ा…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 1, 2014 at 10:52am — 15 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on April 1, 2014 at 10:30am — 32 Comments
रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को,
सूरज, धूप, पसीने से।
शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में,
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।
सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,
तरण ताल के सीने से।
तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।
मात मिली भारी वस्त्रों…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 1, 2014 at 10:30am — 16 Comments
संध्या निश्चित है ,
सूर्य अस्ताचल की ओर
है अग्रसर ..
मुझे संदेह नहीं
अपनी भिज्ञता पर
तुम्हारी विस्मरणशीलता के प्रति
फिर भी अपनी बात सुनाता हूँ.
आओ बैठो मेरे पास
जीवन गीत सुनाता हूँ.
डूबेगा व सूरज भी
जो प्रबलता से अभी
है प्रखर .
तुम भूला दोगे मुझे, कल
जैसे मैं था ही नहीं कोई.
सुख के उन्माद में मानो
आने वाली व्यथा ही नहीं कोई.
सत्य का स्वाद तीखा है,
असत्य क्षणिक है,
मैं सत्य सुनाता हूँ…
Added by Neeraj Neer on April 1, 2014 at 9:24am — 12 Comments
उद्घोष
(ओ.बी.ओ. की चौथी वर्षगाँठ पर ओ.बी.ओ. परिवार के सभी का अभिनंदन करते हुए)
गली-गली पवन चली, किलक उठी कली-कली,
महक उठे पराग बिंद, थिरक उठे अलि-अलि.
जाग उठा तमाल वन, जाग उठा है हर चमन,
किसी के आगमन के साथ, जाग उठा है हर सपन.
उमड़ रहे जलद दल, घुमड़ रहे वे हो विकल,
कर रहे उद्घोष सब, ये किसी का जन्म पल.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Added by sharadindu mukerji on April 1, 2014 at 1:32am — 6 Comments
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