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दोहा त्रयी. . . मैं क्या जानूं

दोहा त्रयी :मैं क्या जानूं 

मैं क्या जानूं आज का, कल क्या होगा रूप ।
सुख की होगी छाँव या , दुख की  होगी  धूप ।।

मैं क्या जानूं भोर का, होगा  क्या  अंजाम।
दिन बीतेगा किस तरह , कैसी होगी शाम ।।

मैं  क्या  जानूं  जिन्दगी, क्या  खेलेगी  खेल ।
उड़ जाए कब तोड़ कर , पंछी तन की जेल ।।


सुशील सरना / 17-11-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on November 17, 2022 at 12:00pm — 6 Comments

मैना बैठी सोच रही है पिंजरे के दिल में (नवगीत)

मैना बैठी सोच रही है

पिंजरे के दिल में

मिल जाता है दाना पानी

जीवन जीने में आसानी

सुनती सबकी बात सयानी

फिर भी होती है हैरानी

मुझसे ज्यादा ख़ुश तो

चूहा है अपने बिल में

जब तक बोले मीठा-मीठा

सबको लगती है ये सीता

जैसे ही कहती कुछ अपना

सब कहते बस चुप ही रहना

अच्छी चिड़िया नहीं बोलती 

ऐसे महफ़िल में

बहुत सलाखों से टकराई

पर पिंजरे से निकल न पाई

चला न…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 16, 2022 at 11:30am — 4 Comments

बालदिवस पर चन्द दोहे ......

बालदिवस पर चन्द दोहे :. . . .

बाल दिवस का बचपना, क्या जाने अब अर्थ ।

अर्थ चक्र में पीसते, बचपन चन्द समर्थ ।।

बाल दिवस से बेखबर, भोलेपन से दूर ।

बना रहे कुछ भेड़िये , बच्चों को मजदूर ।।

भाषण में शिक्षा मिले, भाषण ही दे प्यार ।

बालदिवस पर बाँटते, नेता प्यार -दुलार ।।

फुटपाथों पर देखिए, बच्चों का संसार ।

दो रोटी की चाह में , झोली रहे पसार ।।

गाली की लोरी मिले, लातों के उपहार ।

इनका बचपन खा गया,  अर्थ लिप्त संसार ।।

बाल दिवस पर दीजिए,…

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Added by Sushil Sarna on November 14, 2022 at 3:30pm — 2 Comments

सावन सूखा बीत रहा है

सावन सूखा बीत रहा है, एक बूंद की प्यास में 

रूह बदन में कैद है अब भी, तुझ से मिलने की आस में

 

जैसे दरिया के लहरों, में कश्ती गोते खाते है 

हम तेरी यादों में हर दिन, वैसे हीं डूबे जाते है…

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Added by AMAN SINHA on November 14, 2022 at 9:47am — No Comments

बाल दिवस (दोहे ) - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

दोहे बाल दिवस पर

***

लेता फिर सुधि कौन है, दिवस मना हर साल।

वन्चित  बच्चे  जानते,  बस  बच्चों  का  हाल।।

*

कितने बच्चे चोरते, निसिदिन शातिर चोर।

लेकिन मचता है नहीं, तनिक देश में शोर।।

*

भूखा बच्चा रोकता, अनजाने की राह।

बासी रोटी फेंक मत, तेरे पास अथाह।।

*

नेता करते देह का, धन के बल आखेट।

कितने बच्चे सो रहे, निसदिन भूखे पेट।।

*

बच्चे हर धनवान  के, हैं  सुख  से भरपूर।

निर्धन के सुख खोजने, बन जाते…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 12, 2022 at 10:11pm — 2 Comments

गीत - ५ ( लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

कह रहे हैं आज हम भी तानकर सीना।

प्रीत ने चलना सिखाया, प्रीत ने जीना।।

*

थे भटकते  फिर  रहे  पथ में अकेले।

आप आये तो जुड़े हम से बहुत मेले।।

था नहीं परिचय स्वयं से, तो भला क्यों।

कौन अनजाना बुलाता आन सुख लेले।।

*

पीर ही थाती हमारी बन गयी थी पर।

आप की मुस्कान ने हर दर्द है छीना।।

*

हर चमन के फूल मसले शूल से खेले।

हम रहे अब तक महज संसार में ढेले।।

नेह के हर बोध  से  अनजान जीवनभर।

वासना की कोख में नित क्या नहीं झेले।।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 12, 2022 at 5:30am — 2 Comments

कर्तव्य-बोध(लघुकथा)

कर्तव्य-बोध

मरे कौवे ली लाश तीन दिनों से उस पॉश कॉलोनी के बीचोबीच गुजरनेवाली सड़क पर पड़ी थी। गाड़ियाँ गुजरतीं,उसे रौंदतीं। लोग आते। चले जाते। दो लोग अपने अच्छी नस्ल के कुत्तों को सायंकालीन प्राकृतिक क्रिया से निबटारा कराने के लिए भ्रमण के बहाने वहाँ से गुजरे। कौवे की शेष बची लाश पर अकस्मात एक का पैर पड़ गया।नाक-भौं सिकोड़ते हुए वह गुर्राया,

कैसे लोग इधर रहते हैं! सड़ी लाश के परखच्चे उड़ रहे हैं। किसी को कोई चिंता ही नहीं।

नगर…

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Added by Manan Kumar singh on November 10, 2022 at 9:28am — 4 Comments

भिखारी छंद

भिखारी छंद -

 24 मात्रिक - 12 पर यति - पदांत-गा ला

साजन    के   दीवाने , दो   नैना   मस्ताने ।

कभी  लगें  ये  अपने ,  कभी  लगें  बेगाने ।।

पागल दिल को भाते, उसके सपन  सुहाने ।

खामोशी  की   बातें, खामोशी   ही   जाने ।।

                   =×=×=×=

रैन काल के सपने , भोर  लगें  अनजाने ।

अवगुंठन में बनते  , प्यार भरे  अफसाने ।।

बिन बोले ही होतीं  , जाने क्या-क्या बातें ।

मन से कभी न जातीं  , आलिंगन की रातें ।।

सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on November 8, 2022 at 4:54pm — 4 Comments

ग़ज़ल (रोटी)

2122 1212 22/112

जितनी क़िस्मत में थी लिखी रोटी

सबको उतनी ही मिल सकी रोटी

मुफ़्लिसी, भूख, दर्द, दुख, आंसू

हां, बहुत कुछ है बोलती रोटी

याद परदेस में भी आती है

मां के हाथों की वो बनी रोटी

ज़ाइक़ा कुछ अलग ही है इनका

वो नमक-मिर्च, वो दही-रोटी

रो रहा है सड़क पे इक बच्चा-

'दो दिनों से नहीं मिली रोटी'

कीं बहुत 'ज़ैफ़' कोशिशें हमने

बन न पाई वो गोल-सी…

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Added by Zaif on November 8, 2022 at 5:30am — 8 Comments

किसका बच्चा(लघुकथा)

किसका बच्चा

सँवरी के नाक-नक्श तीखे हैं। मुँह का पानी थोड़ा फीका पड़ा है,तो क्या? उसे दूल्हे के लिए कभी तरसना नहीं पड़ता। चढ़ती जवानी में उसे दिल्ली के दिल वाले दूल्हे का संग मिला। खूब रंगरेलियाँ हुईं।फिर उसे लगा कि उसका दूल्हा किसी और पर फिदा है।स्मृति-पटल पर वे लमहे उभरते, जब उसके हर नाज-नखरे कुबूल होते थे। अब उसे अपने भाव में कमतरी का अहसास हुआ। बिदक गई। दिल्लीवाले को चिढ़ाने के लिए उसने एक ठेंठ भोजपुरिया दूल्हा ढूँढा। उसके संग हो गई।प्यार…

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Added by Manan Kumar singh on November 7, 2022 at 3:14pm — 2 Comments

माँ-बाप

माँ-बाप को समझना कहाँ आसान होता है?

उनका साया हीं हम पर छत के समान होता है



प्रेम का बीज़ जिस दिन से माँ के पेट में पलता है

बाप के मस्तिष्क मे तब से हीं वो धीरे-धीरे बढ़ता है



पहले दिन से हीं बच्चा माँ के दूध पर पलता है

पर पिता के मेहनत से माँ के सिने में दूध पनपता है



सूने घर में कोई बालक जब किलकारी भरता है

उसके मधुर स्वर से हीं तो दोनों को बल मिलता है



पकड़ कर उंगली जीन हाथों ने चलना तुझको सिखाया

अपने हिस्से का बचा निवाला जिसने… Continue

Added by AMAN SINHA on November 7, 2022 at 2:29pm — 1 Comment

दुर्घटना. . . ( लघुकथा )

दुर्घटना ....(लघुकथा)

"निकल लो उस्ताद ।  बहुत भयंकर दुर्घटना हुई है । लगता है वो शायद मर गया है ।" कल्लू हेल्पर ने ड्राइवर रघु से कहा ।

रघु ने व्यू  मिरर से पीछे देखा तो दुर्घटना स्थल पर भीड़ दिखी । रघु ने ट्रक भगाने में भलाई समझी । रघु वहाँ से चला तो घर जा कर रुका।

"कल्लू ये घर पर भीड़ कैसी है ।" रघु ट्रक रोकते हुए बोला ।

भीड़ को चीरते हुए रघु जैसे ही अन्दर पहुंचा, तो देख कर सन्न रह गया । उसका 10 साल का इकलौता   बेटा रक्तरंजित  बीच आँगन में तड़प रहा…

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Added by Sushil Sarna on November 6, 2022 at 12:52pm — 2 Comments

ग़ज़ल : आशिक़ों का भला करे कोई

अरकान : 2122 1212 22/112

आशिक़ों का भला करे कोई

मौत आए, दुआ करे कोई

पाँव में फूल चुभ गया उनके

जाए जाए दवा करे कोई

हाल पे मेरे रोता है शब भर

सुब्ह मुझ पर हँसा करे कोई

फ़र्क़ ज़ालिम पे कुछ नहीं पड़ता

चाहे कुछ भी कहा करे कोई

ये नहीं होता, ये नहीं होगा

हम कहें और सुना करे कोई

इन रईसों के शौक़ की ख़ातिर

मरता हो तो मरा करे कोई

बेवफ़ा मुझको कह रहा है…

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Added by Mahendra Kumar on November 4, 2022 at 1:37pm — 12 Comments

अहसास की ग़ज़ल:मनोज अहसास

221   2121    1221    212

बेहद ज़रूरी है तू सभी को बिसार कर,

कुछ रोज अपने आप से जी भर के प्यार कर।

उलझन हो तेरी खत्म, मेरा दर्द भी मिटे,

इक बार मेरे दिल पे ज़रा दिल से वार कर।

कुछ फासले अधूरे हैं अब भी हमारे बीच,

इतना सफर इक दूसरे के बिन गुजार कर।

लगता है मैं भी मतलबी सा हो गया हूँ अब

सारी उमर की ख्वाहिशें दिल में ही मार कर।

अहसान भी हो जाएगा और दाम भी अलग

इस दौर में तू सोच समझ कर उधार…

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Added by मनोज अहसास on November 2, 2022 at 11:06pm — 4 Comments

झाड़-फूँक(लघुकथा)

बुनिया उम्र में बड़ी थी,तो क्या?गोरी चिट्टी,छरहरी थी। कमलू से ब्याह दी गई।अब कमलू अपना पाँच बार फेल हुआ मैट्रिक का इम्तहान संभाले, या बुनिया को निहारे? वह नाराज रहने लगी।

एक शाम बुनिया की तबीयत बिगड़ गई। हाथ-पैर पटकती। सिर दीवार से टकराती। घरेलू डॉक्टर की दवाएँ काम न आईं। चतुरी चाची बोलीं, ‘हवा लगी है।’

फिर क्या करें?’ घरवालों ने पूछा।

ओझा बुलाओ। और…

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Added by Manan Kumar singh on November 2, 2022 at 3:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल

221 2121 1221 212



आँखों को रतजगे मिले हैं जल भराव भी

उल्फ़त में दुख मिले तो मिले गहरे भाव भी



कानों को आहटें सुने बर्षों गुज़र गये

बुझने लगे हैं आँखों के जलते अलाव भी



कुछ इसलिये खमोशियाँ ये रास आ गईं

दुनिया न जान ले कहीं अंतस के घाव भी



गर डूबना नसीब है तो फ़िक़्र क्यों करूँ

दरिया में अब उतार दी है टूटी नाव भी



वो साथ दे सका न बहुत देर तक मेरा

इक तो हवा ख़िलाफ़ थी उसपे बहाव भी



वो चाँद है,वो चाँद भला किसका हो…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 1, 2022 at 6:30pm — 16 Comments

काला ताजमहल

यह मन हो मानो घर तुम्हारा अपना

पार क्षितिज से जैसे कोई रहस्य-बिंबित

स्वरातीत गीत-सी याद तुम्हारी चली आई

थीं चाहे कितनी भी हम में अपूर्णताएँ अपार

विश्वास की आढ़ में था ठहरा सनातन प्यार

हर…

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Added by vijay nikore on November 1, 2022 at 11:55am — 5 Comments

दोहा त्रयी- सागर

दोहा त्रयी : सागर

सागर से बादल चला, लेकर खारा नीर ।
धरती को लौटा रहा, मृदु बूँदों का क्षीर ।।

जाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर ।
पीते -पीते हो गया , खारा उसका नीर ।।

लहरों से गीले सदा, रहते सागर तीर ।
बन कर कितने ही मिटे, यहाँ स्वप्न प्राचीर ।।

सुशील सरना / 31-10-22

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on October 31, 2022 at 12:51pm — 10 Comments

अपनी बोली

शिष्टाचार ही मिलती है पागलपन नहीं मिलता

गैरों की बोली में अपनापन नहीं मिलता

 

अपनी भाषा माँ का आँचल याद हमेशा आती है

द्वेष,क्रोध,विलाप हो जितना, हर भाव समझाकर जाती है

 

पर भाषा के बल पर चाहे समृद्ध जितने भी हो जाओ

पर वहाँ पर डटें रहने की दृढ़ता अपनी भाषा से हीं पाओ

 

किराए के मकान में कभी आँगन नहीं मिलता

गैरों की बोली में अपनापन नहीं मिलता

 

चाहे जितना लेख लिखो तुम, चाहे जितने…

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Added by AMAN SINHA on October 31, 2022 at 9:38am — No Comments

ग़ज़ल - यूँ मुहब्बत हो गई है

2122 2122

यूँ मुहब्बत हो गई है

गोया आफ़त हो गई है

बिन बताये जा रही हो

इतनी नफ़रत हो गयी है?

तुम भी चुप हो, मैं भी चुप हूँ

एक मुद्दत हो गयी है

नींद क्योंकर आए हमको?

अब तो उल्फ़त हो गयी है

पास मेरे आ गयी तुम

थोड़ी राहत हो गयी है

यूँ ख़ुदी से लड़ रहा हूँ

ज्यूँ बग़ावत हो गयी है

'ज़ैफ़' उसके जाते ही ये

क्या क़यामत हो गयी है!

(मौलिक…

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Added by Zaif on October 29, 2022 at 4:36am — 10 Comments

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