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कहां है 40 छत्तीसगढ़िया ?

छत्तीसगढ़ के 11 बरस होने पर राज्य सरकार जहां प्रदेश के सभी जिलों में राज्योत्सव जैसे आयोजन कर खुशियां मनाने में जुटी हैं, वहीं एक तबका ऐसा भी है, जो अपने सीने में अपनों की मौत का दर्द लिए बैठा है। समय गुजरने के बाद भी उनकी टीस कम होने का नाम नहीं ले रही है। राज्य सरकार की बेरूखी ने उनकी तकलीफों को और बढ़ा दी है।

साल भर पहले 5 अगस्त 2010 को जम्मू के ‘लेह’ में बादल फटने से जिले के दर्जनों गांवों से रोजी-रोटी की तलाश में गए मजदूरों की बड़ी संख्या में मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए, जिसका…

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Added by rajkumar sahu on November 5, 2011 at 12:02pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 6 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 7 --------------

  प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज…

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Added by satish mapatpuri on November 5, 2011 at 11:30am — 2 Comments

व्यंग्य - महंगाई की चिता

हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता व चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकी ‘चिता’ बनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता…

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Added by rajkumar sahu on November 4, 2011 at 11:12pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)



त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 5 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 6  ---------------

दोषी लोगों को सज़ा दिलाने के लिए प्रबल प्रताप सिंह कृतसंकल्प थे, किन्तु राजनीतिक हलकों में उनकी पहुँच अच्छी थी. पार्टी अध्यक्ष उमाकांत ने सिंह साहेब से स्वयं मिलकर कहा - ' आपने जिन लोगों को दोषी करार दिया…

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Added by satish mapatpuri on November 4, 2011 at 2:00am — 2 Comments

ये जो जिस्म है

ये जो जिस्म है, क्या तिलिस्म है,

कुदरत की कैसी ये किस्म है?

 

मैं बहक गया, वो चहक गया,

मैं तो शोला था, सो दहक गया।…

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Added by Subhash Trehan on November 3, 2011 at 3:50pm — No Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 4 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 5 ---------------

... एक दिन सुबह-सुबह प्रबल बाबू ने समाचार पत्र उठाया ही था किउन्हें सांप सूंघ गया... " नकली दवा के कारण सात लोगों की मौत "

खबर ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया. समाचार के विस्तार में लिखा था -- " सरकारी अस्पताल…

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Added by satish mapatpuri on November 3, 2011 at 3:00am — 2 Comments

तू इस देश का वासी है.

ताजा सिर्फ सियासी है.

बाकी सब कुछ बासी है.
दौलत के चरणों की तो,
दुनिया सारी दासी है.
आम-आदमी तन्हा है,
उसके संग उदासी है.
शपथ देश की खा लेंगे,
ये तो बात जरा सी है.
भ्रष्ट रास्तों पर चलिए,
आमद अच्छी-खासी है.
बहु-बेटियां बिकती है,
माँ की गोद रुआंसी है.
बूँद-बूँद से भरा कलश,
मछली फिर भी प्यासी है.
गंगा-जल हांथों में ले,
तू इस देश का…
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Added by AVINASH S BAGDE on November 2, 2011 at 9:00pm — 4 Comments

व्यंग्य - किसे कराएं पीएचडी

मुझे पता है कि देश में संभवतः कोई विषय ऐसा नहीं होगा, जिस पर अब तक पीएचडी ( डॉक्टर ऑफ फिलास्फी ) नहीं हुई होगी। कई विषय तो ऐसे हैं, जिसे रगडे पर रगड़े जा रहे हैं। कुछ समाज के काम आ रहे हैं तो कुछ कचरे की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये अलग बात है कि कुछ विषय ही इतने भाग्यशाली हैं कि उसे जो भी अपनाता है, वह बुलंदी छू लेता है। पीएचडी के लिए मुझे लगता है कि आपमें विषय चयन की काबिलियत होनी चाहिए, उसके बाद फिक्र करने की जरूरत नहीं होती। विषय तय होने के बाद सामग्रियां जहां-तहां से मिल ही जाती हैं,…

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Added by rajkumar sahu on November 2, 2011 at 11:00am — 1 Comment

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

-------------- अंक - 4 --------------- '

अंक 3 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

मैं कुछ समझा नहीं ..' प्रबल बाबू के माथे पर बल पड़ गए थे.  उनकी इस असहज स्थिति का लाभ उठाने में उमाकान्त जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने सपाट से चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उन्होंने तत्क्षण कहा -…

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Added by satish mapatpuri on November 2, 2011 at 2:00am — 3 Comments

लांछन

पुरुषों की सत्ता बोलें या

कुंठित शासन लगता है.
नर क़े साथ बराबर नारी!
कोरा भाषण लगता है.
औरत तेरी हालत पे
क्या-क्या और लिखा जाये?
नामर्दों की बस्ती में भी,
बाँझ का लांछन लगता है.

अविनाश बागडे.

 

Added by AVINASH S BAGDE on November 1, 2011 at 8:00pm — 6 Comments

त्यागपत्र (कहानी)



त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

अंक 2 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

-------------- अंक - 3 ---------------

प्रबल बाबू को अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर कुछ खटका सा लगा और उन्होंने बीच में ही उन्हें टोकते हुए कहा -  'शायद, इस प्रसंग पर बात करने के लिए यह उचित समय नहीं…

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Added by satish mapatpuri on November 1, 2011 at 2:00am — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
दीप जले -- (छंद : मत्तगयंद सवैया और घनाक्षरी)

 

पाँति सजी मनभावन, पावन दीप जले,…

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Added by Saurabh Pandey on October 31, 2011 at 1:30pm — 2 Comments

अमावस जैसे .. .



शब्द चुप से हैं ,कुछ अरसे से..
मन है व्याकुल सा  ,भाव तरसे से ..
घुमड़ते हुए से बादल बरसते ही नहीं  ..
जाने क्या…
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Added by Lata R.Ojha on October 31, 2011 at 8:49am — 4 Comments

एक तवायफ की दास्तान

कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है--ये जवानी मेरी तस्वीर नज़र आती है !!



                    
                                                         हमने सोचा न था हालात कुछ ऐसे होंगे !…
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Added by Hilal Badayuni on October 31, 2011 at 12:30am — 16 Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी.

अंक 1 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे

.............. अंक -- 2 .....................

राज्य के विधायकों में पी. पी. सिंह का एक अलग ही स्थान था. अपनी स्पष्टवादिता एवं निर्भीकता के लिए वे विख्यात थे.सत्तापक्ष के विधायक होने के बावजूद भी सरकार की गलत नीतियों की आलोचना वे सार्वजनिक रूप में किया…

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Added by satish mapatpuri on October 30, 2011 at 11:30pm — 5 Comments

एक विचार

संघर्ष जीवन के कठिन नीरस बनाते हैं हमें

कर्तव्य-पथ के शूल भी बहुधा डराते हैं हमें

भटकें न हम हरहाल में,आगे निरंतर हम बढे

जबतक ये लक्ष्य अलक्ष्य है,न पग रुकें न मन थके..१.

 …

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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 30, 2011 at 4:30pm — 1 Comment

ग़ज़ल :- उसके होने के ही एहसास में जाकर देखो

 
 
ग़ज़ल :-  उसके होने के ही एहसास में जाकर देखो
 
उसके होने के ही एहसास में जाकर देखो ,
किसी रोते हुए बच्चे…
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Added by Abhinav Arun on October 30, 2011 at 1:30pm — 11 Comments

कविता :- आदमखोर

कविता :- आदमखोर
तुमने हमारे खेतों में खड़ी कर दीं चिमनियाँ 
बिछा दिए हाई - वे के सर्पिल संसार…
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Added by Abhinav Arun on October 30, 2011 at 12:30pm — 11 Comments

एक कविता: कौन हूँ मैं?... --संजीव 'सलिल'

एक कविता:
कौन हूँ मैं?...
संजीव 'सलिल'
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 30, 2011 at 10:29am — 6 Comments

त्यागपत्र (कहानी)

त्यागपत्र (कहानी)

लेखक - सतीश मापतपुरी

................ अंक -- एक ...................

'प्रबल प्रताप ज़िन्दावाद ' के नारे से पंडाल गूंज उठा. पी. पी.सिंह के नाम से जाने जानेवाले प्रबल प्रताप सिंह के मंत्री बनने के उपलक्ष में इस समारोह का आयोजन हुआ था. जनता - जनार्दन के बीच उनकी अच्छी -खासी लोकप्रियता थी. उनके दर्शनार्थ भीड़ उमड़ पड़ी थी. गिरधरपुर निर्वाचन -क्षेत्र की जनता - जनार्दन को नाज़ था कि वो प्रदेश को एक मंत्री देने का गौरव हासिल करने जा रहे हैं.सच ही तो है…

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Added by satish mapatpuri on October 30, 2011 at 3:00am — 5 Comments

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