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नियति का आशीर्वाद

नियति का आशीर्वाद

हमारे बीच

यह चुप्पी की हलकी-सी दूरी

जानती हो इक दिन यह हलकी न रहेगी

परत पर परत यह ठोस बनी

धातु बन जाएगी

तो क्या नाम देंगे हम उस धातु को ?…

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Added by vijay nikore on January 27, 2020 at 12:30pm — 4 Comments

बारूदों की जिस ढेरी पर-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



विकसित होकर  हम ने  कैसी  ये  तस्वीर उकेरी है

आदमयुग थी यार न दुनिया जितनी आज अँधेरी है।१।

**

बारूदों की जिस ढेरी  पर  नफरत आग लिए बैठी

उससे सब कुछ ध्वंस में बोलो लगनी कितनी देरी है।२।

**

जिसको देखो वही चोट को लाठी लेकर डोल रहा

कहने को पर  सब के  मन  में  सुनते  पीर घनेरी है।३।

**

मजहब पन्थों के हित  में  तो…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2020 at 6:19am — 8 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2×15

अपने बीते कल के मुख पर काजल मलते देखा है,

एक ग़ज़ल कहने की खातिर खुद को जलते देखा है.

गफलत में जिन रास्तों पर चल लोगों ने मंज़िल पाई,

लाख संभलकर चल के उन पर खुद को फिसलते देखा है.

तेरे पास नहीं है मेरे एक सवाल का एक जवाब,

मैंने बात बात में तुझको बात बदलते देखा है.

कुछ भी देखके मेरे मन में आशा जीवित नहीं हुई,

सूरज को हर रोज तमस को चीर निकलते देखा है.

वक्त का चूहा कुतर गया है धीरे-धीरे याद…

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Added by मनोज अहसास on January 27, 2020 at 12:22am — 2 Comments

ग़ज़ल

माना नशात ए ज़ीस्त है बेज़ार आज भी,

हम हैं मता ए ग़म के ख़रीदार आज भी..

माना बदल चुकी है ज़माने कि हर रविश,

दो चार फिर भी मिलते हैं गम-ख़्वार आज भी..

बच कर जहां पे बैठ सकें ग़म की धूप से,

मिलता नहीं वो सायए दीवार आज भी..

सुलझेंगी किस तरह मिरि किस्मत की उलझनें,

उलझे हुऐ हैं गेसुए-ख़मदार आज भी..

यारों हमारे नाम से है मयक़दे की शान,

मशहूर है तो हम ही गुनहगार आज भी..

आवाज़-ए-हक़ दबाये दबी है न दब सके,

मन्सूर…

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Added by Zohaib Ambar on January 26, 2020 at 9:55pm — 3 Comments

वीर जवान

फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन

2122   2122 2122

धमनियों में दौड़ता यूँ तो सदा है ।।

रक्त है जो देश हित में खोलता है ।।

हौसला उस वीर का देखो ज़रा तुम ।

गोलियों की धार में सीना तना है ।।…

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Added by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on January 25, 2020 at 5:33pm — 3 Comments

प्रथम मिलन की शाम

प्रथम मिलन की शाम

विचारों के जाल में उलझा

माथे पर हलका पसीना पोंछते

घबराहट थी मुझमें  --

मैं कहीं अकबका तो न जाऊँगा

यकीनन सवाल थे उगल रहे तुम में भी

कैसा होगा हमारा यह प्रथम…

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Added by vijay nikore on January 23, 2020 at 8:30am — 4 Comments

लिए सुख की चाहतें हम - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

1121       2122         1121     2122

‌मेरे  साथ  चलने  वाले  तुझे  क्या  मिला  सफर में

‌बड़ा चैन था अमन था बड़ा सुख था तुझको घर में।१।

**

‌कहीं दुख भरी ज़मीं  तो  कहीं  गम का आसमाँ है

‌लिए सुख की चाहतें हम अभी लटके हैं अधर में।२।

**

‌जहाँ  देखता हूँ  दिखता  मुझे  सिर्फ  ये  धुआँ है

‌रह फर्क अब गया क्या  भला  गाँव और' नगर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 22, 2020 at 8:09am — 6 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

221  2121  1221  212

उस बेमिसाल दौर का दिल से मलाल कर

जब फैसले हो जाते थे सिक्का उछाल कर

तेरे ख्याल में हूं तू मेरा ख्याल कर

मैं तेरी जिंदगी हूं मेरी देखभाल कर

वो दे रहा है देर से पानी उबालकर

हँस हँस के पी रहे हैं सभी ढाल ढाल कर

उसमें कमी न ढूंढ न कोई सवाल कर

तू भी सलाम कर कोई जुमला उछाल कर

है तीरगी जो अपना मुकद्दर तो क्या हुआ

इल्मों अदब से सारे जहां में जलाल कर *

यह हादसा तो…

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Added by मनोज अहसास on January 22, 2020 at 12:04am — 5 Comments

आधुनिक नारी

संचालित कर दया करूणा, स्वार्थ पूर्ति का भाव नहीं

खुद को समर्पित तुझको कर दूँ,

इच्छाऐं मेरी खास नहीं ॥

 

डोली सजा तेरे दर पर आई, उगने वाली कोइ घास नहीं

हाथ उठाने की गलती ना करना,

नहीं सहुंगी वार कोई ॥

 

तेरे इशारों पर इत-उत डोलूँ, तूँ कोई सरकार नहीं

क्रोध करो मैं थर्र थर्र कांपू,

डरने वाली मैं नार नहीं ॥

 

तुम जालाओं शमां की महफिल, होके नशे में धुत कहीं

ढूँढ बहाने झूठ भी बोलो

इतना तुम पर ऐतबार…

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Added by PHOOL SINGH on January 21, 2020 at 12:00pm — 2 Comments

समय पास आ रहा है

समय पास आ रहा है

बहता रहा है समय

घड़ी की बाहों में युग-युग से 

पुरानी परम्परा है 

घड़ी को चलने दो

समय को बहना है, बहने दो

हँसी और रुदन के बीच भटक-भटक…

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Added by vijay nikore on January 20, 2020 at 10:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल (चाहा था हमने जिसको हमें वो मिला नहीं)

सम्मान हम किसी का करें कुछ बुरा नहीं

पर आदमी को आदमी समझें, ख़ुदा नहीं।।1

ये सोच कर ही ख़ुद को तसल्ली दिया करें

दुनिया में ऐसा कौन है जो ग़म ज़दा नहीं।।2

बस मौत ही तो आख़री मंज़िल है दोस्तो

इससे बड़ा जहान में सच दूसरा नहीं।।3

हमको तमाम उम्र यही इक़ गिला रहा

चाहा था हमने जिसको हमें वो मिला नहीं।।4

इसको सुनो दिमाग़ से तब आएगा मज़ा

ये शाइरी है यार कोई चुटकुला नहीं।।5

लेती है हर क़दम पे नया इम्तिहान ये…

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Added by नाथ सोनांचली on January 20, 2020 at 2:30pm — 10 Comments

ख्वाब के दो खत -एक नज़्म

मेरी आंखों में बीते कल के सरमाये की छाया है।

तुम्हें ख्वाबों में मैंने खत नया फिर लिखके भेजा है।।

(1)

लिखा है प्यार तुमको ढेर सारा सबसे पहले ही,

तुम्हारी खैरियत पूछी लिखी बातें मोहब्बत की।

फिर उसके बाद तुमको दिल का अपने हाल बतलाया,

लिखा है बिन तुम्हारे जिंदगी का दर्द गहराया।

बता सकता नहीं मैं जाने जां हालत तुम्हें अपनी,

ये जीवन यूं है जैसे पेड़ की लटकी हुई टहनी।

वो रिश्ते जिनकी खातिर तुमको खुद से दूर कर डाला,

उन्हीं सबने मेरे सीने का दर्पण…

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Added by मनोज अहसास on January 20, 2020 at 10:18am — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2×15

तदबीर लगाकर कुछ सोचो तहरीरों से बहलाओ मत,

अपने वादे जब याद नहीं तो किस्से नए सुनाओ मत।

लालच पर आधारित निष्ठा दुख देगी निश्चित इक दिन,

झूठी कथा लक्कड़हारे की बच्चों को सिखलाओ मत।

जीना मुश्किल कर देंगे जब होगी इनकी सोच अलग,

सबसे गहरे मित्रों को भी दिल के राज बताओ मत।

सच्चा इतिहास न जाने क्या था न जाने हालात थे क्या,

सदियों पहली बातों पर अब घर में आग लगाओ मत।

तेरा वादा सबको रोटी देने का है ओ मालिक,

चार…

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Added by मनोज अहसास on January 20, 2020 at 10:12am — 2 Comments

दुनिया में सब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जब चाहें तब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो

दुनिया में सब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो

ये दुनिया बेहतर हो दिन भर ऐसे काम करें 

फिर सारी शब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो

अट्ठारह घंटे खटते जो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 18, 2020 at 11:25pm — 4 Comments

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा

आँधी में पेड़ों से पत्तों का गिरना

पेड़ों की शाख़ों के टूटे हुए खण्ड गिनना

उड़ते बिखरे पत्तों से आंगन भर जाना

यह नज़ारा कोई नया नहीं है

फिर भी लगता है हर आँधी के बाद

नदियों पार “हमारे” उस पुल को चूमकर  आई

यह आँधी मुझसे कुछ बोल गई

गिरे पत्तों की पीड़ा मुझमें कुछ घोल गई

हर आँधी की पहचान अलग, फैलाव नया-सा

कि जैसे अब की आँधी में नि:संदेह

कुलबुलाहट नई है, कोलाहल कुछ और है

मेरी ही गलती है हर गति…

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Added by vijay nikore on January 17, 2020 at 2:30pm — 4 Comments

ग्राहक फ्रेंडली(लघुकथा)

बैंक ने रेहन रखी संपत्तियों की नीलामी की सूचना छपवाई।साथ में फोन पर बात करती किसी लड़की की भी फोटो छप गई। बैंक वाले खुश थे कि इससे नीलामी प्रक्रिया का प्रचार प्रसार होगा,मुफ्त में ।उधर फोटो वाली लड़की आग - बबूला हो रही थी  --

' भला ऐसा कैसे कर सकते हैं ये बैंक वाले?'

' कर चुके,' दूसरे ग्राहक ने आं खें मटकाई।

' अरे मैं तो इस ऑफिस में कल पैसे जमा कराने आई थी,जब ये बैंक वाले अपने नोटिस बोर्ड की फोटो ले रहे थे...करम..ज ...ले सब।'

' और संपत्ति विवरण में आपकी भी फोटो…

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Added by Manan Kumar singh on January 16, 2020 at 7:00pm — 6 Comments

सहर हो जाएगा

जिस्म तो नश्वर है, ये मिट जाएगा

प्रेम पर अपना अमर हो जाएगा

 

सोच मत खोया क्या तूने है यहाँ

एक लम्हा भी दहर हो जाएगा

 

माना ये छोटा है पर धीरज तो धर

बीज एक दिन ये शजर हो जाएगा

 

भाग्य में जितना लिखा था मिल गया

अपना इसमें भी गुजर हो जाएगा

 

जीस्त बेफिक्री में काटी है मगर

मौत का उस पर असर हो जाएगा

 

तिरगी से डर के क्यूँ रहना भला

आज या फ़िर कल सहर हो जाएगा

 

सीख कुछ मेरे…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 16, 2020 at 2:30pm — 1 Comment

मिट्टी की तासीरें जिस को ज्ञात नहीं -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२

‌जो दुनिया को  सबका  ही  घर कहता है

वो क्यों मुझ को  रहने  से  डर कहता है।१।

**

हद से बढ़कर निजता का अभिमान हुआ

अब हर क़तरा खुद को समन्दर कहता है।२।

**

मिट्टी  की  तासीरें  जिस  को  ज्ञात  नहीं

वो  लालच  में  धरती  बन्जर  कहता है।३।

**

ढोंगी  है  या  फिर  कोई  अवतार लखन

‌मालिक बनकर खुद को नौकर कहता है।४।

**

जिसके पास नहीं है दाना वो भी अब

मैं  दाता  हूँ, …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 16, 2020 at 5:17am — 12 Comments

एक ग़ज़ल - ख़ुद को आज़माकर देखूँ

रब ना करे मैं ऐसा मंज़र देखूँ
दोस्त के हाथ में खंज़र देखूँ

सबकी ख़ुशी सलामत रख मौला
ना ही टूटता किसी का घर देखूँ

गम दे तो हिम्मत भी बक्श ख़ुदा
आँखों में किसी की ना डर देखूँ

ख़्वाब पूरे होते नहीं देखने भर से
खुद को भी तो आज़माकर देखूँ

ये हवा भी हारेगी मिरे यकीं से
उम्मीद-ए-चिराग़ जला कर देखूँ

ठान ही ली जब चलने की 'विवेक'
फिर क्यूँ मुश्किल-ए-सफ़र देखूँ
#मौलिक व अप्रकाशित#

Added by विवेक ठाकुर "मन" on January 15, 2020 at 5:19pm — 6 Comments

एक अभागिन किन्नर

ना मर्म का मेरे भान किसी को, लेकिन फिर भी जिंदा हूँ

ना औरत, ना पुरुष हूँ, कहने को मैं किन्नर हूँ|

 

सारा समाज धुत्कार मै खाती, जैसे समाज पे अभिशाप कोई

सोलह शृंगार कर हर दिन सजती, जैसे सुहागिन औरत हूँ |

 

मात-पिता भी कलंक समझते, बदनामी का उनकी कारण हूँ

दुख-दर्द भी ना कोई पूछता, जैसी उनकी ना मै कोई हूँ |

 

ना रोजी-रोटी का साधन कोई, मांग…

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Added by PHOOL SINGH on January 15, 2020 at 11:56am — 3 Comments

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