For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (18,988)

नया साल चढ़ा है

नया साल चढ़ा है

कुछ बुदबुदाता हुआ

आया है नया साल

ओढ़े बबूलपन के संग

बुद्धी की सचाई की

मुरझाई पुष्पलता

हो सकता है यह पहनावा

नया…

Continue

Added by vijay nikore on February 6, 2020 at 6:30am — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
दो क्षणिकाएँ (गणेश जी बाग़ी)

दो क्षणिकाएँ

========

(1) थप्पड़

मुझे पता भी न था

उस शब्द का अर्थ

गुस्से में किसी को बोल दिया था

'साला....'

गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ

माँ ने समझाया था

गाली देना गंदी बात !

काश,

उनकी माँ ने भी

लगाया होता

थप्पड़

तो आज...

नहीं देते वे

माँ, बहन को इंगित

गालियाँ ।



(2) बारुद

उनको दिखाई देता है

बारूद

मेरी दीया-सलाई की काठी में,

जिससे जलता है

हमारे घर का…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 5, 2020 at 8:30am — 5 Comments

राजनीति की धार हमेशा -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



हर शासन अब गद्दारों को यार बहुत हितकारी है

जो करता है बात देश की उसको बस लाचारी है।१।

**

सर्द हवाओं के चंगुल में ठिठुराती आशाएँ बैठी 

सुन्दर सपनों की खेती पर पाला पड़ता भारी है।२।

**

पहले लगता था हम जैसा गम का मारा कोई नहीं

पर जब देखा पाया दुनिया हमसे भी दुखियारी है।३।

**

तुमको भी पत्थर आयेंगे वक्त जरा सा…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2020 at 5:30am — 4 Comments

वो एक नींद ही तो थी

वो एक नींद ही तो थी

कि जिसमे

मै जाग रहा था /

सपने

तितलियों से कोमल

हथेलिओं की कोटर में

छुपा कर

चला था मैं

कि

बिखेर दूंगा इन रंगों को

चुपचाप

आसमान के कोने कोने में,

और चल दूंगा

अपने झोले में

कुछ मुस्कुराहटें

कुछ खुशियां

कुछ उम्मीदें

कुछ शरारतें लेकर

एक खुशनुमा सफर पर

एक बंजारे सा भटकता हुआ

गांव - गांव

शहर - शहर

कि

शायद मेरा होना

किसी के होठों की…

Continue

Added by ARVIND BHATNAGAR on February 2, 2020 at 3:30pm — 4 Comments

आँख-मिचौनी

आँख-मिचौनी

साँझ के रंगीन धुँधलके ...

आँख-मिचोनी खेलते

एक दूसरे को टटोलते

मद्धम रोशनी में उभरती रही

कोई पवित्र विलुप्त लालसा

आवेगों में खो जाने की…

Continue

Added by vijay nikore on February 2, 2020 at 2:30pm — 4 Comments

ग़ज़ल

फाइलुन फाइलुन फाइलुन

212 212 212

हम हैं नाकाम-ए-राह-ए-वफ़ा

काम आई तेरी बद-दुआ ।

इश्क़ की है अभी इब्तिदा ,

यार मुझ को न तू आज़मा।

रात भर जागता रहता है,

चाँद क्यों इतना है ग़म-ज़दा ।

वो पता पूछे तो बोलना

"कुछ दिनों से हूँ मैं लापता"

आखरी बार मुझ से मिलो ,

आखरी बार है इल्तिजा ।

अब नही देखता तुझ को मैं,

रायगाँ है सवरना तेरा ।

जा रहा हूँ तेरे दर से मैं

दिलरुबा ग़म छुपा,,मुस्कुरा |

- शेख ज़ुबैर अहमद

(मौलिक…

Continue

Added by Shaikh Zubair on February 1, 2020 at 4:33pm — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : आजादी (गणेश बाग़ी)

प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।

सादर

गणेश जी बाग़ी

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 1, 2020 at 9:30am — 30 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2122   2122     2122     212

जब सफलता मिल गई खुद का किया लिक्खा गया,

अपनी हारों को खुदा का फैसला लिक्खा गया।

आपके शफ्फाक दामन को बचाने के लिए,

कत्ल मुझ बदबख्त का इक हादसा लिक्खा गया।

दर ब दर होते रहे वो सारे खत खुशियों भरे ,

जिन पर तेरा नाम और मेरा पता लिक्खा गया।

चार भाई साथ रहकर कितने खुश थे हम कभी,

टूटकर बिखरे तो फिर दिल भी जुदा लिक्खा गया।

अब हमारी जिंदगी में एक उलझन ये भी है,

उसके दिल में…

Continue

Added by मनोज अहसास on February 1, 2020 at 12:07am — 2 Comments

आखिरी ख़्वाहिश

देख लोगो को रोते हुए

ज़ोर से लाश एक हँस पड़ी

जीते जी तो जीने दिया ना

गुस्से में वो बिफर पड़ी ||

खरी-खोटी मुझे रोज सुनाते

तनिक भी ना परवाह थी

दिल पे मेरी क्या गुजरती

घुट-घुट के मैं रोती थी ||

खुदा बक्शे अगर, जिंदगी

औकात दिखा दे अभी सभी

घड़ियाल से आँसू जो बहाते

असलियत आ जाए सामने अभी ||

भूल जायेंगें कुछ ही दिन में

याद ना आयें मेरी कभी

अच्छी-बुरी मेरी बातें कर

सहानुभूति…

Continue

Added by PHOOL SINGH on January 31, 2020 at 5:00pm — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

221  2121   1221  212

दिल से सवाल होठों से ताले नहीं गए.

दुनिया के ज़ुल्म खाक में डाले नहीं गए

.

जिस दिन से इंतज़ार तेरा दिल से मिट गया,

उस दिन से मेरे दिल में उजाले नहीं गए.

अपनी समझ से कैसे बने बच्चों का वजूद,

अपनी समझ से शेर तो ढाले नहीं गए.

कल रात उसने ख़्वाब में आकर कहा मुझे,

रिश्तें तो आपसे भी संभाले नहीं गए.

बरसों पुरानी बातों ने दिल को जकड़ लिया,

कुछ दोस्त जिंदगी से निकाले नहीं…

Continue

Added by मनोज अहसास on January 31, 2020 at 12:07am — 1 Comment


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : प्रगतिशील (गणेश जी बागी)

अतुकांत कविता : प्रगतिशील

अकस्मात हम जा पहुँचे

एक लेखिका की कविताओं पर

जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे

मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम

लगभग सभी कविताओं में...

पूरी तरह से किया गया था निर्वहन

उस परंपरा को

जहाँ दी जाती हैं गालियाँ

समूची मर्द जाति को

एक ही कटघरे में खड़ा कर

प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण

चंद मानसिक विक्षिप्तों…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 30, 2020 at 7:30pm — 6 Comments

कुछ क्षणिकाएँ :

कुछ क्षणिकाएँ :



इतना तो न था

खालीपन

तुम्हारी मिलने से पहले

जितना हो गया

तुम से बिछुड़ने के बाद

ख़्वाबों की ज़मीन पर

अहसासों की ओस

पिघल गयी

तुम्हारी यादों से



......................

प्रयास

क्षितिज छूने का

विशवास

झूठे वादों का

प्यास

मरीचिका सी



.......................



माह

बदलते -बदलते

आ जाता है

कैलेंडर का अंतिम माह

अर्थात

वर्ष का चरम

और होते होते

हो जाता… Continue

Added by Sushil Sarna on January 30, 2020 at 4:00pm — 4 Comments

समय के साय

समय के साय

समय पास आकर, बहुत पास 

कोई भूल-सुधार न सोचे

अकल्पित एकान्तों में सरक जाए

झटकारते कुछ धूमैले साय अपने 

गहरे,  कहीं गहरे बीच छोड़ जाए

कुछ ऐसे घबराय बोझिल…

Continue

Added by vijay nikore on January 30, 2020 at 2:30pm — 4 Comments

जे पी सरीखे नेता - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२२/२२१/ २१२२

किस काम के हैं नेता किस काम का ये शासन

इनके रहे  वतन  में  जब  नित्य  होनी अनबन।१।

**

किस बात से हैं  सेवक  कहते  पहन के खादी

निर्धन के घर  अगर  ये  डलवा  न पाये राशन।२।

**

अंग्रेज  थे  बुरे  या   चम्बल   के   चोर   डाकू

गर जो हो लूट खाना भर  देश का ही जनधन।३।

**

किस बात की हो चिन्ता  किस बात से परेशाँ

मथकर के दे रही  है  जनता इन्हें तो…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 30, 2020 at 4:38am — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल-मनोज अहसास

2122    2122    2122   212

महकते अल्फाज़ जैसे अब शरारे हो गए

वक़्त की गर्दिश में शामिल ख़त तुम्हारे हो गए

जिंदगी की उलझनों ने जेहन को घेरा है यूं

तेरी यादों के मरासिम खुद किनारे हो गए

शायरी, सिगरेट, तंबाकू ज़िन्दगी भर की तड़प

एक सहारा क्या गया कितने सारे हो गए

पहले एहसास ओ सुखन में इश्क थे कायम सभी

ओढ़कर जिस्मों को ही अब इश्क़ सारे हो गए

बागवां से जिंदगी का ये सबक सीखा हूं मैं

फूल खिल जाने पर…

Continue

Added by मनोज अहसास on January 29, 2020 at 9:00am — 1 Comment

माँ के न हो जाने के बाद

माँ के होने और अचानक
 माँ के न होने जाने के बाद  
महज एक शब्द का अंतर नहीं हो जाता 
माँ का होना होता रहा होता था क्या 
एकदम समझ में आने लग जाता है 
माँ के न होने जाने के बाद 
 लगभग वैसे ही 
जैसे सूरज के होने में लगता ही नहीं
सूरज का होना कितनी बड़ी …
Continue

Added by amita tiwari on January 29, 2020 at 1:30am — 1 Comment

क्यों कर्तव्य निभाएँ हम ?

शब्दों का है खेल निराला

आओ हम खिलवाड़ करें

गढ़ आदर्श वाक्य रचनाएँ

क्यों उन पर हम अमल करें ?

दूजों को सीखें देकर, है

उन्हे मार्ग दिखलाएँ हम

निज कर्मों पर ध्यान कौन दे ?

अपना मान बढ़ाएँ हम

अपने घर का कूड़ा करकट 

अन्यों के घर में डालें

बन नायक अभियान स्वच्छता

अपना अभिमत ही पालें

सरिया ,गारा , मिट्टी , गिट्टी

ढेर लगाएँ राहों  पर

चलें फावड़े , टूट-फूट का दोष

धर रहे निगमों…

Continue

Added by Usha Awasthi on January 28, 2020 at 6:14pm — 2 Comments

बिन तेरे

तेरे बिन है घर ये सूना
मेरे मन का कोना सूना
समझो ना ये चार दिनो का
प्यार हमारा काफ़ी जूना*!

घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ
मैं छलना ना ख़ुद को जानूं
लोगों का तो काम है कहना
मैं तुमको बस अपना मानूं! !

मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है
और साथ में चलने क़ी है
तब ये सूनापन ना अखरे
बात नज़रिया बदलने क़ी है! !


* पुराना (मराठी शब्द)
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020

मौलिक व अप्रकाशित

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 28, 2020 at 3:30pm — 1 Comment

फूलीं में रस था भवरों की चाहत बनी रही

जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही

फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही

वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते

उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही

उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके

बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही

कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो

उसकी हथेली खून से यारों सनी रही

दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख

ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही

'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा

सब छूटा कुछ बचा…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on January 28, 2020 at 12:00pm — 7 Comments

पटरियों से सीख

इक तेरी है इक मेरी है

ढल के आग में ये बनी हैं

जैसे तुम से तुम बने हो

वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ

 

आ चल बैठ यहीं हम देखें

एक दूजे से कुछ हम सीखें

अलग है माना फिर भी संग संग

मिलजुल कर के रहना सीखें

 

शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो

जंगल में या कहीं ठौर हो

साथ ना छोडे एक दूजे का

ताप हो कितना या के शीत हो

कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी

दिन हो या हो रात अंधेरी

कर्म पथ से कभी ना डिगती

ना…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 27, 2020 at 1:00pm — 1 Comment

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"आदाब।‌ बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।"
16 hours ago
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।"
21 hours ago
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती…"
21 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक…"
Sunday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"काल चक्र - लघुकथा -  "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) : "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है?…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"स्वागतम"
Saturday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"//5वें शेर — हुक्म भी था और इल्तिजा भी थी — इसमें 2122 के बजाय आपने 21222 कर दिया है या…"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय संजय शुक्ला जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी। इस हेतु बधाई स्वीकार करे। एक शंका है मेरी —…"
Saturday
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"धन्यवाद आ. चेतन जी"
Saturday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी"
Saturday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"बधाई स्वीकार करें आदरणीय अच्छी ग़ज़ल हुई गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतरीन हो जायेगी"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service