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कुण्डलिया छंद-

मतदाता को फाँसने, डाल रहे हैं जाल।
नेता आपस में सभी, कीचड़ रहे उछाल।।
कीचड़ रहे उछाल, मची है ता ता थैया।
नागनाथ हैं एक, दूसरे साँप नथैया।।
हर नेता ही रोज, निराले ख्वाब दिखाता।
सारे नटवरलाल, करे अब क्या मतदाता।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
**हरिओम श्रीवास्तव**

Added by Hariom Shrivastava on April 1, 2019 at 11:31pm — 8 Comments

मौज ख़ुद आपको साहिल पे लगाने से रही (४१)



मौज ख़ुद आपको साहिल पे लगाने से रही 

और क़ुदरत भी कोई जादू दिखाने से रही 

***

हौसला आपका दे साथ करम हो रब का 

फिर किसी सिम्त बला कोई सताने से रही 

***

हो सके जितना हक़ीक़त ये समझ लो सारे 

मौत मर्ज़ी से कभी आपकी आने से रही 

***

इम्तिहाँ रोज़ ही देने हैं यहाँ जीने को 

रोने धोने से तरस ज़िंदगी खाने से रही 

***

हो…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on April 1, 2019 at 11:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल (यही ज़माने को खल रहा है )

ग़ज़ल (यही ज़माने को खल रहा है )

(मफा इलातुन _मफा इलातुन)

यही ज़माने को खल रहा हैl

वो मेरे हम राह चल रहा है l

वो हैं मुखातिब तो मुझसे लेकिन

कलेजा यारों का जल रहा है l

नज़र में है सिर्फ उसके मंज़िल

जो गिरते गिरते संभल रहा है l

रखें निगाहों पे कैसे काबू

वो सामने से निकल रहा है l

बदल के शीशा है फायदा क्या

तेरा भी अब हुस्न ढल रहा है l

खयाल में आ रहा है दिलबर

न यूँ…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on April 1, 2019 at 8:25pm — 4 Comments

ओ बी ओ मंच को समर्पित ग़ज़ल (1222*4)

तुझे इस वर्ष नौवें की ओ बी ओ बधाई है,

हमारे दिल में चाहत बस तेरी ही रहती छाई है।

मिला इक मंच तुझ जैसा हमें अभिमान है इसका,

हमारी इस जहाँ में ओ बी ओ से ही बड़ाई है।

सभी इक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते हैं,

हमारी एकता की ओ बी ओ ही बस इकाई है।

सभी झूमें, सभी गायें यहाँ ओ बी ओ में मिल के,

सभी हम भक्त तेरे हैं तू ही प्यारा कन्हाई है।

लगा जो मर्ज लिखने का, दिखाते ओ बी ओ को ही,

उसी के पास इसकी क्यों कि इकलौती दवाई…

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Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 1, 2019 at 12:00pm — 6 Comments

ओ.बी.ओ.की 9 वी सालगिरह का तुहफ़ा

है उजागर ये हक़ीक़त ओ बी ओ

मुझको है तुझसे महब्बत ओ बी ओ

तेरे आयोजन सभी हैं बेमिसाल

तू अदब की एक जन्नत ओ बी ओ

कहते हैं अक्सर ,ये भाई योगराज

तू है इक छोटा सा भारत ओ बी ओ

सीखने वाले यही कहते सदा…

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Added by Samar kabeer on April 1, 2019 at 11:00am — 40 Comments

इति सिद्धम (लघुकथा)

डियर संस्कार,

चौंक तो गये होगे! मोबाइल एप्स से, सोशल मीडिया पर या ऑनलाइन अपनी बात कहने के बजाय इस ख़त से ही अपने अंजाम से वाक़िफ़ करा रहा हूं तुम्हें। आख़िर तुमने ही तो सुसाइड के लिए मज़बूर कर दिया! ख़ूब घमंड था मुझे अपनी ऑनलाइन पढ़ाई पर! माडर्न अपडेटिड छात्र समझने लगा था मैं अपने आपको। स्कूल की पढ़ाई, ट्यूशनों की पढ़ाई और फिर सोशल मीडिया, मोबाइल गेम, आधुनिक दोस्त-यारी, फ़ोटो-वीडियोग्राफ़ी इन सब में मशगूल रहते हुए ऑनलाइन अपने हसीन करियर की हसीन रणनीति बनाया करता था मैं! रात भर…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 31, 2019 at 11:00am — 4 Comments

"रिश्तोँ की घुटन"

 

भीड भरे रस्ते पे एक दिन,

बरसोँ पुराना दोस्त मिला । 

चेहरे से मुस्कान थी गायब,

स्वर भी कुछ रुखा सा मिला । । 

 

मैंने पूछा कैसे हो तुम,

वो बोला कुछ ठीक नहीं । 

मैंने पूछा और हाल-ए-इश्क,

सोच के बोला ली भीख नही । । 

 

उसके इस उत्तर से अचम्भित,

ठिठक  गया  मैं  चलते-चलते । 

फिर काँधे पे हाथ रख पूछा,

किसी से नहीं क्या मिलते-जुलते…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 30, 2019 at 7:00pm — 6 Comments

"श्याम-रत्न-धन" (संस्मरण) :

कुछ वर्ष पूर्व की बात है। लम्बी गंभीर बीमारी के बाद मेरी अम्मीजान का इंतकाल हो गया था। पूरे संयुक्त परिवार के साथ मैं भी बहुत दुखी था। मुझे सबसे ज़्यादा चाहने और मेरे भविष्य की सबसे ज़्यादा फ़िक्र और देखभाल करने वाली मेरी मां के चले जाने पर मुझे अहसास हुआ कि स्वयं उनको बहुत चाहते हुए और उनकी चिंता करते हुए भी मैं उनकी न तो समुचित देखभाल कर पाया था और न ही उनकी अपेक्षित सेवा। हां, उनके इंतकाल के बाद सब कुछ याद करते हुए उनके प्रति प्यार इतना ज़्यादा बढ़ गया था कि शुरुआत में हफ़्ते…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 29, 2019 at 10:04pm — No Comments

शहीदों का युवाओँ से संवाद- 23 मार्च शहीदी दिवस पर विशेष

हम तो कहीँ और नहीँ गये हैं बच्चोँ,

अभी भी मौज़ूद हैं ह्म तुम्हारे अंदर   

ज़ुल्म को देखकर भी चुपचाप कैसे बैठे हो,

क्या धधकता नहीं है ज्वाला तुम्हरे अंदर । ।

 

 हर इक शय में सियासत भरी हुई है…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 29, 2019 at 3:00pm — 1 Comment

सार छंद -

1-

अर्थ धर्म या काम मोक्ष में, अर्थ प्रथम है आता।

फिर भी पैसा मैल हाथ का,क्योंकर है कहलाता।।

सब कुछ भले न हो यह पैसा, पर कुछ तो है ऐसा।

जिस कारण जीवनभर मानव,करता पैसा-पैसा।।

2-

बिना अर्थ सब व्यर्थ जगत में,क्या होता बिन पैसा।

निर्धन से वर्ताव यहाँ पर, होता कैसा-कैसा।।

धनाभाव ने हरिश्चंद्र को,समय दिखाया कैसा।

बेटे के ही क्रिया-कर्म को, पास नहीं था पैसा।।

3-

इसी धरा पर पग-पग दिखती,पैसे की ही माया।

पैसा-पैसा करते भटके, पंचतत्व की…

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Added by Hariom Shrivastava on March 29, 2019 at 12:21pm — 2 Comments

गांव का युवा और शहर के गिद्ध

माँ की लोरी सुनकर सोने वाला शिशु,

बाप की उंगली पकड चलने वाला शिशु,

दादी नानी से नये किस्से सुनने वाला शिशु,

खिलौने के लिए बाज़ार में मचलने वाला शिशु।

बडा हो…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on March 27, 2019 at 1:30pm — 2 Comments

मिलती अवाम को ख़ुशी की जलपरी नहीं  (४०)

(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )

.

मिलती अवाम को ख़ुशी की जलपरी नहीं 

रुख़्सत अगर वतन से हुई भुखमरी नहीं 

**

उल्फ़त जनाब होती नहीं है रियाज़ियात 

चलती है इश्क़ में कोई दानिशवरी * नहीं


**

उम्र-ए-ख़िज़ाँ में आप जतन कुछ भी कीजिये 

नक्श-ओ-निग़ार-ए-रुख़ की कोई इस्तरी नहीं 

**

बरसों से काटती है ग़रीबी में रोज़-ओ-शब

कैसी अवाम है कहे खोटी खरी नहीं

**

घर में न…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 26, 2019 at 11:00pm — 4 Comments

साड़ी शराब ले न अब मतदान कीजिए - लक्ष्मण धामी'मुसाफिर'(गजल )

२२१/ २१२१/२२२/१२१२



जीवन हो जिसका संत सा गुणगान कीजिए

शठ से हों कर्म उसका ढब अपमान कीजिए।१।



साड़ी शराब ले  न  अब  मतदान कीजिए

लालच को अपने, देश पर कुर्बान कीजिए।२।



करता है जो भी भीख का वादा चुनाव में

जूतों  से  ऐसे  नेता  का  सम्मान कीजिए।३।



कुर्सी को उनकी और मत साधन बनो यहाँ

वोटर हो अपने वोट का कुछ मान कीजिए।४।



मंशा है जिनकी राज हित जनता को…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 26, 2019 at 6:52pm — 4 Comments

कुण्डलिया छंद- 'मतदान'

1-

जिसको भी मतदान का, भारत में अधिकार।

उसको चुननी चाहिए, एक कुशल सरकार।।

एक कुशल सरकार, वोट देने से बनती।

जब देते सब वोट, चैन की तब ही छनती।।

यह भी करें विचार, वोट देना है किसको।

उसको ही दें वोट, लगे अच्छा जो जिसको।।

2-

नेता कहें चुनाव में, वोटर को भगवान।

लोकतंत्र के यज्ञ में, समिधा है मतदान।।

समिधा है मतदान, यज्ञ में शामिल होना।

यह अमूल्य अधिकार, नहीं आलस में खोना।।

करके सोच विचार, वोट जो वोटर देता।

वह वोटर निष्पक्ष, सही चुनता…

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Added by Hariom Shrivastava on March 26, 2019 at 1:30pm — 6 Comments

बरवै छंद -

1-

हिरणाकुश नामक था, इक सुल्तान।

खुद को ही कहता था, जो भगवान।।

2-

जन्मा उसके घर में, सुत प्रहलाद।

जो करता था हर पल, प्रभु को याद।।

3-

दोनोों  के  थे  विचार, सब  विरुद्ध।

हिरणाकुश था सुत से, भारी क्रुद्ध।।

4-

बहिन होलिका पर था, ऐसा चीर।

जिसे पहनने से ना, जले शरीर।।

5-

मिला होलिका को तब, यह आदेश।

प्रहलाद को गोद लो, कटे कलेश।।

6-

बैठा गोद जपा फिर, प्रभु का नाम।

हुआ होलिका का ही, काम तमाम।।

7-…

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Added by Hariom Shrivastava on March 25, 2019 at 8:00pm — 2 Comments

दोहे ... एक भाव कई रूप ... नर से नारी माँगती ..

दोहे ... एक भाव कई रूप ...

नर से नारी माँगती ..

नर से नारी माँगती, बस थोड़ा सा प्यार।

थोड़े से उस प्यार पर, तन-मन देती वार।।

नर से नारी माँगती , सपनों का शृंगार।

नारी तन का नर अधम ,करता फिर व्यापार।।

नर से नारी माँगती , जीवन भर का साथ।

ले हाथों में हाथ वो, माने उसको नाथ।।

नर से नारी माँगती,बाहों का संसार।

बन जाता फिर प्रेम वो, माथे का शृंगार ।।

नर से नारी माँगती ,माधव जैसा प्यार।

बन…

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Added by Sushil Sarna on March 25, 2019 at 6:00pm — 13 Comments

रंग-ए-रुख़सार निखरने का सबब क्या आखिर(३९ )

रंग-ए-रुख़सार निखरने का सबब क्या आखिर
आज फिर सजने सँवरने का सबब क्या आखिर
***
आइना बोल उठा अब्र कहाँ बरसेंगे
काकुल-ए-पेचाँ बिखरने का सबब क्या…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 23, 2019 at 7:00pm — 6 Comments

पत्थरों पर गीत लिखे

कितने भले हो तुम 
कि तुमने 
पत्थरों पर गीत  लिखे

और पत्थर उछाल दिए 
 
इधर कितने भले हैं हम 
पत्थराई दृष्टि 
पत्थरों पर गीत पढ़े …
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Added by amita tiwari on March 23, 2019 at 12:30am — 1 Comment

होली के दोहे :

होली के दोहे :

हिलमिल होली खेलिए, सब अपनों के संग।

रिश्तों में रस घोलिए, मिटा घृणा के रंग।। १

रंगों की बौछार में, बोले मन के तार।

अधर तटों को दीजिए, साजन अपना प्यार।। २

होली के हुड़दंग में , सिर चढ़ बोले भाँग।

करें ठिठोली मुर्गियाँ, मुर्गे देते बाँग।।३

तन-मन भीगे रंग में, मचली मन की प्यास।

अवगुंठन में नैन से, नैन रचाएं रास। ४

चाहे जितना कीजिए, होली पर हुड़दंग।

लग कर गले मिटाइये,…

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Added by Sushil Sarna on March 22, 2019 at 7:00pm — 8 Comments

'कागा उवाच' (लघुकथा) :

तीनों प्यासे थे। अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार वे पानी की तलाश कर चुके थे। मुश्किल से एक सुनसान जगह पर एक झुग्गी के द्वार के पास एक मटका उन्हें दिखाई दिया। बारी-बारी से तीनों ने उसमें झांका। फिर गर्दन झुकाकर एक दूसरे को उदास भाव से देखने लगे। मटके में पानी का तल काफी नीचे था।



बहुत ज़्यादा प्यासे कौए ने पुरानी लोककथा अनुसार काफी कंकड़-पत्थर चोंच से उठा-उठा कर मटके में डाल कर पानी का स्तर ऊपर लाने की कोशिश की, लेकिन उसे उस कथा की कल्पना की सच्चाई समझ में आ गई। थक कर वह बैठ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 22, 2019 at 6:30pm — 6 Comments

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