दीपावली की रात से पहले लक्ष्मी पूजा की तैयारी में लगे पडोसी जीवन को देख कर नवीन जी से रहा नहीं गया और जा धमके उनके सामने नमस्कार करके बोले जीवन जी आप जो ये छोटे छोटे पैर लाल रंग से बना रहे हैं क्या सचमुच रात को देवी आती है क्या आपने उसको कभी आते हुए देखा ?जीवन बोले हाँ आती है इसी लिए तो बना रहा हूँ तुम ठहरे नास्तिक तुम कहाँ समझोगे | नवीन जी बोले जी नहीं भगवान् को तो मैं मानता हूँ पर इन सब आडम्बरों में विशवास नहीं रखता वैसे आज मुझे बता ही दो ये सब क्या फंडा है ये बात तो मैं…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 20, 2012 at 11:42am — 14 Comments
मैं निर्मल ,निःस्वार्थ
प्रस्फुटित हुआ
एक अभिप्राय के निमित्त
हर लूँगा सबका अभिताप ,व्यथा
अपनी अनुकम्पा से
अलौकिक अभिजात मलय
के आँचल की छाँव में
श्वास लेकर बढ़ता रहा
कब मेरी जड़ों में
वर्ण, धर्म भेद मिश्रित
नीर मिलने लगा
कब वैमनस्य ,स्वार्थ परता
की खाद डलने लगी
पता ही नहीं चला
विषाक्त भोजन
विषाक्त वायु ,नीर
से मेरे अन्दर कसैला
जहर भरता गया
फिर जो…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 15, 2012 at 10:35am — 9 Comments
रोज की तरह मंदिर के सामने वाले पीपल के पेड़ की छाँव में स्कूल से आते हुए कई बच्चे सुस्ताने से ज्यादा उस बूढ़े की कहानी सुनने के लिए उत्सुक आज भी उस बूढ़े के इर्द गिर्द बैठ गए और बोले दादाजी दादा जी आज भूत की कहानी नहीं सुनाओगे ?नहीं आज मैं तुम्हें इंसानों की कहानी सुनाऊंगा बूढ़े ने कहा-"वो देखो उस घर के ऊपर जो कौवे मंडरा रहे हैं आज वहां किसी का श्राद्ध मनाया जा रहा है, उस लाचार बूढ़े का जो पैरों से चल नहीं सकता था पिछले वर्ष उसकी खटिया जलने से मौत हुई थी उसकी खाट के पास उसकी बहू ने…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 11, 2012 at 11:10am — 28 Comments
ऐ मेरे प्रांगण के राजा
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े
झंझावत जो सह जाते थे
जीवन के वो बड़े बड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
बरसों से जो दो परिंदे
इस कोतर में रहते थे
दर्द अगर उनको होता
तेरे ही अश्रु बहते थे
उड़ गए वो तुझे छोड़ कर
अपनी धुन पर अड़े अड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
इस जीवन की रीत यही है
सुर बिना संगीत यही है
उनको इक दिन जाना था
जीवन धर्म निभाना था
राजा जनक भी खड़े…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 9, 2012 at 9:16am — 21 Comments
डाली हरसिंगार की झूम उठी
मनमोहक फूलों के बोझ से
बल खाती हुई छेड़ जो रही थी
उसे ईर्ष्यालु सुगन्धित पवन
झर रहे थे पुहुप आलौकिक
दिल ही दिल में मगन
हर कोई चुन रहा था
सुखद स्वप्न बुन रहा था
अलसाई उनींदी पलकों
के मंच पर
ये द्रश्य चल रहा था
मेरा भी मन ललचाया
एक पुष्प उठाया
अंजुरी में सजाया
तिलस्मी पुष्प आह !
ताजमहल रूप उभर आया
अद्वित्य ,अद्दभुत
मेरे स्वयं ने मुझे समझाया
ये तेरा नहीं हो सकता
तुमने गलत…
Added by rajesh kumari on October 5, 2012 at 11:30am — 11 Comments
बुजुर्ग दिवस के उपलक्ष में
सेदोका एक जापानी विधा ३८ वर्ण ५७७५७७
(१)बूढ़ा बदन
कंपकपाते हाथ
किसी का नहीं साथ
लाठी सहारा
पाँव से मजबूर
बेटा बहुत दूर
(२)धुंधली आँखें
झुर्री भरा…
Added by rajesh kumari on October 1, 2012 at 8:56pm — 12 Comments
तू एक ऐसा ख़्वाब है
जिस्म में ढलता ही नहीं
मेरा ही हमसाया
जो मेरे साथ चलता ही नहीं !
किस मोम से बना
मेरे ताप से पिघलता ही नहीं
कितना बे असर हो गया
ये दिल जो संभलता ही नहीं !
नम हो गया अंश वक़्त का
हाथ से फिसलता ही नहीं
जम गए नासूर वफ़ा के
अब मरहम फलता ही नहीं
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Added by rajesh kumari on September 26, 2012 at 10:30am — 16 Comments
मुझे तलाश है उस भोर की ,जो नव दिव्य चेतना भर दे |
निज लक्ष्य से ना हटें कभी
अटूट निश्चय पे डटें सभी
ना सत्य वचन से फिरें कभी
ना निज मूल्यों से गिरें कभी
जो गर्दन नीची कर दे
मुझे तलाश है उस भोर की ,जो नव दिव्य चेतना भर दे |
दूजों के दुःख अपनाएँ हम
अक्षत पुष्प बरसायें हम
नेह का निर्झर बहायें हम
जग के संताप मिटायें हम
भगवन ऐसा अवसर दे
मुझे तलाश है उस…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 22, 2012 at 8:30pm — 23 Comments
कल रात फिर यही हुआ बादलों और दामिनी ने कहर ढाया मूसलाधार पानी बरसा घर के पीछे की दीवार से लगा पेड़ जिस पर परिंदों का बसेरा था चरमरा कर टूट गया अचानक बहुत दिन पहले लिखी ये कविता जो मेरी कविता संग्रह ह्रदय के उद्द्गार मे भी प्रकाशित हुई ,याद आ गई आदरणीय admin जी की अनुमति हो तो कृपया पोस्ट करदें आपकी आभारी|
बादलों ने कहर बरपाया…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 16, 2012 at 6:22pm — 12 Comments
आज पैंतीस साल बाद उसकी आवाज सुनी
Added by rajesh kumari on September 13, 2012 at 3:30pm — 23 Comments
पलकों पे टिकी शबनम को सुखा ले साथिया
धूप के जलते टुकड़े को बुला ले साथिया
जुल्म ढा रही हैं मुझ पर सेहरे की लडियां
इस चाँद पर से बादल को हटा ले साथिया
बिछ गए फूल खुद टूट कर राहों में तेरी
अब कैसे कोई दिल को संभाले साथिया
बिजली न गिर जाए तेरे दामन पे कोई
कर दे मेरी तकदीर के हवाले साथिया
देख के सुर्ख आँचल में लहराती शम्मा
दे देंगे जान इश्क में मतवाले साथिया
यहाँ जल…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 12, 2012 at 11:00am — 17 Comments
कहाँ बदन पर सजी रंगोली
कहाँ हुआ उसका खनन
कब कोई उसमे विलीन हुआ
कहाँ हुआ पूजा हवन
सब युगों युगों तक निशानी रहेगी
ये माटी सभी की कहानी कहेगी |
कहाँ प्यासे जिस्म में पड़ी दरारें
कहाँ निर्बाध जल में नहाया बदन
कहाँ इंसां ने बंजर बनाया
कहाँ लहलहाया मदमस्त चमन
जब तलक हवाओं में रवानी रहेगी
ये माटी सभी की कहानी कहेगी |
कहाँ मेढ़ों ने करे विभाजन
कहाँ जुड़े सांझे आँगन
कहाँ सुने मिलन के गीत
कहाँ बरसा विरह का सावन
इन…
Added by rajesh kumari on August 31, 2012 at 12:00pm — 15 Comments
छंद:'कुकुभ' लिखने का पहला प्रयास (मात्रायें : १६-१४ अंत में दो गुरु)
प्रदूषित करते ना थके तुम ,भड़क गई उर में ज्वाला
क्रोधित हो कूद पड़ी गंगा ,सब कुछ जल थल कर डाला
डूब गए घर बार सभी कुछ ,राम शिवाला भी डूबा
कुपित हो गए मेघ देवता ,कोई नहीं है अजूबा
राजस्थान ,असम,झाड़खंड,नहीं बची उत्तरकाशी
प्रलय कभी ये नहीं सोचती ,कौन धरम कौनू भाषी
पर्वत पर्वत जंगल जंगल ,तुम चलाते रहे आरी
खूँ के आँसूं रोते हो अब ,आन पड़ी…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 23, 2012 at 1:00pm — 22 Comments
तुम्हारे क़दमों के नीचे
सूखे हुए पत्तों की
चरमराहट ने भेज दिया
संदेसा,
छुप गई
मृगनयनी कोमल
लताओं की ओट में
अपलक निहारने लगी
तुम्हारा ओजपूर्ण लावण्य
काँधे पर तरकश
हाथ में तीर लेकर
ढूंढ रहे थे तुम अपना
शिकार
दरख़्त से
लिपटी हुई लताओं
के खिसकने की
आवाज के साथ
तुमने कुछ खिलखिलाहट
महसूस की
तुमने झाँक कर देखा
ढलते हुए सूरज की
सुर्ख लाल किरणों के
तीर उसकी आँखों को बींध…
Added by rajesh kumari on August 16, 2012 at 2:30pm — 15 Comments
बुजुर्गों के पाँव तले जन्नत का आभास होता है
सभी रिश्तों में उनसे रिश्ता बहुत खास होता है
जिस घर में मात कौशल्या दशरथ तात नहीं होते
वो अपना घर नहीं होता वहां वनवास होता…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 11, 2012 at 10:46am — 9 Comments
कैसे लिखी जाती है
Added by rajesh kumari on August 9, 2012 at 12:09pm — 8 Comments
माहिया (12,10,12)
(1)
अम्बर पे बदरी है
देखो आ जाओ
तरसे मन गगरी है
(२)
सागर में नाव चली
बिन तेरे कुछ भी
चीजें लगती न भली
(३)
चुनरी पे नौ बूटे
सुन तकते- तकते
कहीं डोरी न टूटे
(४)
सूरज सिन्दूरी ना
मिल न सके कोई
इतनी भी दूरी ना
(५)
मैं माँ घर जाउंगी
पैर पकड़ लेना
वापस नहीं आउंगी
Added by rajesh kumari on July 30, 2012 at 10:00pm — 10 Comments
वर्षा के दो रूप (मदन छंद या रूपमाला पर मेरा पहला प्रयास )
(हर पंक्ति में २४ मात्राएँ ,१४ पर यति अंत में गुरु लघु (पताका) २१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२१ संशोधित मदन छंद )
घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर डाल|
भीगता आँचल धरा का ,जिंदगी खुश हाल|
प्यास फसलों की बुझी अब, आ गए त्यौहार-
राग मेघ मल्हार सुन-सुन, हृदय झंकृत तार||…
Added by rajesh kumari on July 24, 2012 at 2:00pm — 12 Comments
झींगुर की रुन झुन
रात्रि में घुंघरू का
मुगालता देती हैं
बदरी की चुनरी चंदा पर
घूंघट का आभास कराती है
नीर भरी छलकती गगरी
सागर का छलावा देती हैं
अल्हड शौख किशोरी
के गुनगुनाने का
भ्रम पैदा करते हैं
बारिश की टिप- टिप
संगीत सुधा बरसाती हैं
दामिनी की चमक
श्याम मेघों की गर्जना
विरहणी के ह्रदय की
चीत्कार बन जाती है
अन्तरिक्ष में सजनी साजन
के मिलन की कल्पनाएँ
मिलकर करती हैं जो…
Added by rajesh kumari on July 23, 2012 at 1:00pm — 8 Comments
सुगंध सुहानी आयेंगी इस मोड़ के बाद
यादें गाँव की लाएंगी इस मोड़ के बाद
जिस नीम पे झूला करता था बचपन मेरा
वही डालियाँ बुलाएंगी इस मोड़ के बाद
अब तक बसी हैं फसलें जो मेरी नज़रों में
देखो अभी लहरायेंगी इस मोड़ के बाद
बिछुड़ गई थी दोस्ती जीवन की राहों में
वो झप्पियाँ बरसाएंगी इस मोड़ के बाद
नखरों से खाते थे जिन हाथों से निवाले
वो अंगुलियाँ तरसायेंगी इस मोड़ के बाद
मचल रही होंगी…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 18, 2012 at 9:05am — 8 Comments
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