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Coontee mukerji's Blog (41)

हवा

हवा

एक वासंती सुबह

‘’ मैं कितनी खुशनसीब हूँ ,

मेरे सर पर है आसमान

पैरों तले ज़मीन .

मेरी सांसों के आरोह – अवरोह में ,

मेरे रंध्रों में ,

शुद्ध हवा का है प्रवाह .’’

‘’ मैं कितनी खुशनसीब हूँ .’’

कुंजों में एक सरसराहट सी हुई ,

मालती की कोमल पल्लवों पर ,

ठहरी हुई थी हवा ,

मेरे विचारों को भाँप कर ,

मेरे गालों को थपथपा कर

उसने हौले से कहा –

‘’ खुश और नसीब ,

दो अलग अलग है बात .

मुझसे पूछो –

मैं…

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Added by coontee mukerji on May 29, 2013 at 1:25am — 14 Comments

सूखा

सूखा !

मही मधुरी कब से तरस रही ,

बुझी न कभी एक बूँद से तृषा ,

घनघोर घटाएँ लरज लरज कर ,

आयी और बीत चली प्रातृषा .

ईख की जड़ में दादुर बैठे ,

आरोह अवरोह में साँस चले ,

पानी की अहक लिये जलचर ,

ताल हैं शुष्क सबके प्राण जले .

पथिक राह चले बहे स्वेदकण ,

पथतरू* से प्यास बुझाए मजबूरन , * traveller’s tree

दूर कोई आवाज़ बुलाए कल् कल्…

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Added by coontee mukerji on May 9, 2013 at 10:30pm — 14 Comments

भिखारन की निष्ठा

भिखारन की निष्ठा

मेरे घर के करीब भिखारियों का एक परिवार रहता था. चार बच्चे और पति – पत्नी. सुबह तड़के ही सभी घर से निकल जाते और गोधूली बेला तक सभी वापस आ जाते.

एक दिन क्या हुआ कि पति और बच्चे तो आ गये लेकिन भिखारन को आने में देर हो गयी . उसके आते आते रात के आठ बज गये. सभी भूखे थे. अतः भिखारन ने जल्दी से चावल की हांडी चूल्हे पर रख दी. चावल जब पक गया तो उसने अपने पति और बच्चों को पहले खिला दिया. बाद में जब वह खाने बैठी तो देखा हांडी में चावल के साथ एक छिपकली भी पक गयी है. भिखारन के…

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Added by coontee mukerji on May 8, 2013 at 12:00pm — 9 Comments

माँ का पल्लू

माँ का पल्लू



मेरा छोटा भाई हमेशा मेरी माँ का पल्लू थामे रहता .माँ जहाँ भी जाती वह पल्लू पकड़े साथ साथ चलता . कभी कभी तो माँ को जब बाथरूम जाना होता तो और मुश्किल में पड़ जाती. कभी माँ खीज कर कहती – छोड़ो पल्लू बेटा ! इतना अपशकुन क्यों करते हो ? अगर मैं मर गयी तो क्या करोगे ?

अबोध बालक तो कुछ नहीं समझ पाया कि मृत्यु क्या…

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Added by coontee mukerji on May 7, 2013 at 6:00pm — 9 Comments

नर-नारी संवाद



कहता है नर सदियों से

‘’ हे नारी !

पड़े सागर तल में

सीप में जो मोती द्वय

या ‌‌– तुम्हारे दो नयन हैं ! .

तुम रूपजाल हो या –

तुम्हारे अंग – अंग में

प्रकृति अटकी हुई है .’’

नारी कहती है

हे नर !

‘’ मैं ही अक्ष हूँ .

मैं ही आँसू

मोती भी

और सीप भी हूँ -

तुम्हारे लिये ही

मैं रोती हूँ, हँसती हूँ,

सजती हूँ, गाती हूँ

समझो न मुझे तुम रूपजाल

मैं प्रकृति की छाया हूँ

मही मेरी जननी है ‘’

( नर-नारी…

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Added by coontee mukerji on May 6, 2013 at 10:00am — 8 Comments

देवता ! मुझे शरण दो

देवता ! मुझे शरण दो !

अस्सी साल की बुढ़िया ,

लाठी टेकती आयी ,

गुहार करने

मंदिर आंगन द्वार .

हाथ उठाकर ,

घण्टी भी बजा न सकी .

जर्जर काया जीवन से त्रस्त ,

और दुखित -

अपनों से सतायी हुई, उपेक्षित .

माँग रही थी मृत्यु का वरदान ,

पर – देवता सोये थे निश्चिंत .

कम्पित कर जोड़े ,

साथ न दे रही थी

थर्राती वाणी.

‘’ मैया ! घर जाओ ‘’ बोले पुजारी

‘’ कहाँ जाऊँ बेटा, कहीं नहीं कोई ‘’.

जो कुछ था लूट लिया…

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Added by coontee mukerji on May 4, 2013 at 7:13pm — 8 Comments

एक सवाल

(1)

कब मैंने तुमसे

वादा किया था कोई

अपने को मैंने कब बंधन में बाँधा

जो किया , तुमने ही किया

हर सुबह आलस्य तजकर

पूजा की थाल सजा

अरूणोदय होता तेरे दर्शन से .

(2)

मिथ्या लगी

जग की सारी बातें

जब मैंने तुमसे प्रीत की

अब क्रोध करूँ या मान करूँ

या करूँ अपने आप पर दया

रीति रिवाजों के नाम पर

खींच दी तुमने सिंदूर की लम्बी रेखा

भाग्य ने लिख दी माथे पर मृत्युदण्ड

चेहरे पर घूँघट खींचकर .

(3)…

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Added by coontee mukerji on May 2, 2013 at 11:30am — 17 Comments

एक लड़की पगली सी

एक लड़की पगली सी -

खड़ी रहती हर सुबह छ्त पर अकेली,

कभी बालों को सँवारती,

होंठों में कुछ गुनगुनाती रहती.

सूरज जब दहलीज पर आता

दे जाता आभा रेशम सी,

सुनहरी किरणों से नहाती औ’

खुशियों से झूम झूम जाती.

एक लड़की भोली सी -

टहलती हुई छ्त पर भरी दोपहर

बालों को फूलों से सजाती,

पवन का झोंका आता ठहर-ठहर

डोल जाती वह कोमलांगिनी

शर्माती, हुई जाती कुछ सिहर-सिहर.

हँसती, कभी मुसकाती एक लड़की -

भोला बचपन गया, कब आया यौवन

समझ न…

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Added by coontee mukerji on April 27, 2013 at 12:05pm — 10 Comments

इंसान की फ़ितरत

इंसान की फ़ितरत

मुझे M B C (मॉरिशस ब्रॉड्कास्टिंग कॉर्पोरेशन) में स्पीकर पोस्ट के लिये एक साक्षात्कार देना था . उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी . मैं इंटरव्यू देकर बाहर खड़ी , बारिश के रुकने की प्रतीक्षा करने लगी . पानी था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था . एक तो जुलाई का महीना उस पर क्यूपीप की सरदी . ठंड से मेरे दाँत बजने लगे थे . मेरे पास ढंग का स्वेटर भी नहीं था जो साथ लेती . शाम के पाँच बज गये थे और अंधेरा भी होने लगा था. मैं चिंतित होने लगी थी अगर बस छूट जाएगी तो मैं क्या करूँगी ? इसी सोच…

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Added by coontee mukerji on April 23, 2013 at 9:27pm — 4 Comments

धरती का संताप

धरती का संताप

1

विलाप करती वसुमती – ‘ कह रही ‘

हे सागर ! उदधि महान !

उगता जब मेरे आँचल में

आकाश मण्डल दिशा

सूर्य चंद्र और नक्षत्र घटा

प्रताड़ित क्यों हूँ इतनी

बता !…

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Added by coontee mukerji on April 22, 2013 at 1:22pm — 11 Comments

आरती



मैं इतनी धार्मिक प्रवृत्ति की नहीं हूँ लेकिन नास्तिक भी नहीं हूँ . सारे धार्मिक त्योहार पूरी निष्ठा के साथ मनाती हूँ . मुझे भगवान की आरती सुनना बेहद अच्छा लगता है .

पिछ्ले साल की बात है . दिल्ली से हम लखनऊ रहने आ गये . शारदीय नवरात्र चल रहा था . हम पास के एक मंदिर में माँ दुर्गा की पूजा करने गये . आरती जब शुरू हुई तो आँखें बंद कर मैं पूरी तन्मयता से उसमें लीन हो गयी . आरती समाप्त हो गयी लेकिन मैं आँखें मूँदे ध्यानमग्न रही , तभी पण्डाल में हड़कम्प मच गया . मैं कुछ समझ पाती इससे पहले…

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Added by coontee mukerji on April 17, 2013 at 12:14am — 7 Comments

मेरा राम आयेगा

मेरा राम आयेगा

नित्य मुँह अंधेरे फूल चुन चुन

गली आंगन थी रही सजा,

एक आस एक चाह लिये

कही शबरी - '' मेरा राम आएगा ''.

शाम ढल जाती सूरज थकता

देकर अंतिम किरण जाता,

एक अटूट विश्वास बढ़ाता,

कहती शबरी - '' मेरा राम आएगा ''.

बचपन गया , जवानी बीती

पलक बिछाए राह निहारती,

प्रौढ़ा दिनभर मगन रहती

कहती शबरी - '' मेरा राम आएगा ''.

वन उपवन भी थक चले

बोले ' तू बूढ़ी हो गयी , जा

कहीं विश्राम कर , छोड़ ये जिद्द '

शबरी बोली -…

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Added by coontee mukerji on April 16, 2013 at 2:35am — 11 Comments

पत्थर



कारोलीन एक छोटा सा गाँव . यह उन्नीस सौ साठ की बात है . हमारे पड़ोस में एक औरत अपने

छः साल के बेटे के साथ रहने आयी . वह बहुत झगड़ालू थी . वह आये दिन किसी न किसी से लड़ाई करती रहती . वह जब भी किसीको निशाना बनाती अपने बेटे से कहती जाओ उसे पत्थर से

मारो . वह परित्यक्ता थी, अकेली थी , इसीलिये लोग कुछ नहीं कहते और उससे हर सम्भव दूरी बनाये रखते . लोगों की चुप्पी को वह कायरता समझ बैठी .

उसके घर के समीप एक बड़ा सा मैदान था . शाम के वक्त हम सभी गाँव के बच्चे उसमें खेलने जाते थे.…

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Added by coontee mukerji on April 9, 2013 at 11:01pm — 5 Comments

क्या आप मुझसे कहकर जाती हैं ?



सरला का छोटा सा सुखी परिवार था. वह बहुत ही अनुशासप्रिय थी. उसके दो बच्चे थे. एक बेटा एक बेटी. बेटा पाँच साल का था और बेटी तीन की. दोनों को अपने काबू में रखती थी सरला.

जब भी कहीं बाहर जाती बच्चों को घर के अंदर रहने की हिदायत देकर बाहर से मुख्य द्वार में ताला लगा देती. बच्चे जब तक बोलने लायक न थे सबकुछ ठीक चलता रहा. एक दिन सरला कहीं बाहर से आयी तो देखा बेटा घर में नहीं है. वह सारा घर छान मारी, आस पास देखा. मगर

बेटा कहीं भी नहीं मिला. वह परेशान होकर अपने पति को जब फ़ोन करना चाही…

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Added by coontee mukerji on March 31, 2013 at 2:00am — 9 Comments

ऐसी ही एक शाम थी

ऐसी ही एक शाम थी

कुछ गुलाबी थोड़ी सुनहरी

सूर्य किरणें जल में तैरती

तरल स्वर्ण सी चमकीली

फैली थी घनी लताएँ

हरित पत्तों बीच गहरी

बैगनी फूलों की छाया

हृदय में थी ठहरी सी

मन झील सा शांत

इच्छाएँ थीं चंचल , अकिंचन

पहेलियाँ कितनी अनबुझी

तैर रही थी मीन सी

गोद में खुला पड़ा था

पत्र एक , किसी अंजान का

उपेक्षित सा यूँ ही

बरसों पहले था पढ़ा

कितनी रातें बीती थी

सपनों में भटकती थी

उपवन में कभी , कभी –

निविड़…

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Added by coontee mukerji on March 27, 2013 at 12:30am — 8 Comments

अकेली औरत





शोभना जितनी सुन्दर थी उतनी ही बेबाक और गर्वीली भी थी. वह अमरीका से उच्च शिक्षा प्राप्त थी. होम मिनिस्ट्री में बहुत ही ऊँचे पद पर आसीन थी. उसे शादी नाम से बहुत चिढ़ थी. जब वह पैंतीस साल की हो गयी तो एकदिन उसके पिता ने उससे कहा- “ शोभना ! अगर तुम्हें कोई पसंद हो तो बता देना मैं तुम्हारी शादी उसीसे कर दूँगा. ”

शोभना ने भी सोचा अब शादी कर ही लेनी चाहिये. अतः अपने पिता से बोली – “ठीक है पिता जी, लेकिन मुझे मेरे ही ग्रेड का वर चाहिये. ’’

शोभना स्वयं अपने वर की तलाश करने लगी.…

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Added by coontee mukerji on March 25, 2013 at 9:00pm — 6 Comments

रंगों के बाज़ार में खड़ी हूँ

रंगों के बाज़ार में खड़ी हूँ सखि !

मेरा घर सूना , आंगन सूना ,

बाग बगीचे , पेड़ पात सूना

दिन रात सूना, सूना मेरा आंचल,

पिया परदेश , संसार मेरा सूना.

होली रंगों की थाल लिये

द्वार खड़ी हँस रही , क्या करूँ सखि !

उदासी मेरा रूप श्रृंगार, हाय !

नौकरी बनी सौतन मेरी.

बिन बादल बरसात होती नहीं,

डाल पर मैना अब गाती नहीं -

उ‌ड़ता है रंग हर कहीं,

कोई रंग मुझको भाता नहीं.

फूलों की बरसात हो रही,

मेरे जूड़े में फूल लगता नहीं -

अंतहीन…

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Added by coontee mukerji on March 24, 2013 at 7:16pm — 5 Comments

उलझन

लुढ़क के वहीं आ खड़ी हुई ज़िंदगी

जहाँ थे कभी खड़े,

कदम थे कितने नपे तुले

किस राह पर , कहाँ फिसल के रह गये.

मुड़कर देखना क्या ?

सोच के पछ्ताना क्या ?

हवा भी कुछ ऐसी बही,

चट्टान ढलान में ठहरता क्या ?

दूर दूर तक था रेगिस्तान

नैनों में कितने रेत पड़े,

आँसू किसके बहकर रहे

अतीत के या आने वाले कल के.

फूलों पर चलते थे कभी -

कब पंखुड़ियाँ रह गये मुरझा के,

एक शुष्क पात भी नहीं रहा

देखूँ जिसे कभी नज़र भर के.

जिधर भी गये हाथ…

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Added by coontee mukerji on March 20, 2013 at 9:50pm — 7 Comments

पिघलता क्षण



जब ढल जाती है रात

कृष्ण-पक्ष की काली गह्वर सी अकेली,

एक सितारा टिमटिमाता हुआ

उलटा लटका सा नज़र आता है.

शय्या पर बैठी उनींदी,

एक सांस खींचती गहरी सी,

खोलती हूँ जब आँखें पूरी

दूर कहीं निगाह भटक जाती है.

निःस्तब्ध रात्रि और मेरा अकेलापन

अपने विचारों को समेटती,

अनगिनत नक्षत्रों को गिनती

रहती हूँ शून्य में खोई सी.

दूर कहीं बादल भटकते,

कुछ यादें शूल से चुभते,

बाग में पत्रहीन वृक्ष भीड़ में…

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Added by coontee mukerji on March 15, 2013 at 8:41pm — 4 Comments

नारी क्यों रोती है

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

 

मधुपों की प्रियतमा,

जग में जो अनुपमा,

शशि की किरणों की बाँहें थाम

कमलिनी निशा में खिलती है –

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू , नारी क्यों रोती है ?

 

सागर की उत्ताल तरंगें,

चट्टानों से टकराती लहरें,

होती हैं क्यों छिन्न-भिन्न !

क्या है यह नज़रों का भ्रम

क्षितिज की मृगतृष्णा लिये,

धरा गगन को छूती है –

सुंदर छवि पा,

नयन भर आंसू ,…

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Added by coontee mukerji on March 8, 2013 at 12:51am — 9 Comments

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