“वह दौड़ कर अपने बड़े भाई के गले से लग गया और बोला, भईया कितने दिनों बाद मिल रहा हूँ आपसे, बता नहीं सकता कितनी ख़ुशी हो रही है मुझे, बस इस महानगर में अपना ही घर खोजने में जरा सी दिक्कत हुई..हा हा ।“
“हाँ –हाँ ठीक है छोटे, और बताओ कैसे आना हुआ, सब ठीक तो है ना, और माँ-पिताजी कैसे हैं, एक-आध दिन तो रुकोगे ना?”
भाई की नीरसता को देखकर वह कुछ देर के लिए उलझन में पड़ गया पर मुस्कराते हुए बोला नहीं भईया आज ही निकल जाऊँगा, शाम की गाड़ी है, मैं तो बस आपको चाचा की लड़की की शादी का…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on February 9, 2016 at 8:30am — 11 Comments
शाम का समय था और गाँव के बाजार में अचानक किसी ने मास्टर जी की साईकिल को पीछे से पकड़ कर रोक लिया और बोला, “अरे पहचानिए–पहचानिए ।’’
“अच्छा रुकिये जरा नजदीक से देखने दीजिये -मास्टर जी ने अपना चश्मा लगाया और बोले -अरे रामजी मिश्रा, तुम! कब आये दिल्ली से? और बताओ, कर क्या रहे हो आजकल ?”
“रिक्शा ठेल रहा हूँ साले तुम्हारी कृपा से, साला जिंदगी नरक हो गयी है दिल्ली की सड़कों पर, जिसको देखो वही १-२ रुपयों के लिए लतिया कर चल देता है, न ढंग की जगह है रहने को, न…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 12:52am — 6 Comments
‘धुंध’ : हरि प्रकाश दुबे
“अरे आइये – आइये अवस्थी जी, आज इतनी सर्द शाम को आप मेरे घर, वाह! अरे रुकिए पहले पीने के लिए कुछ लेकर आता हूँ, ये लीजिये ब्रांडी है, ठीक रहेगी । पर यह क्या, इतना पसीना क्यों आ रहा है आपको?”
“अरे कुछ ख़ास नहीं, बस थोडा सा घबरा गया था।“
ओह !..“ अवस्थी जी अब पहेलियाँ मत बुझाइये, ठीक –ठीक बताइये की हुआ क्या ?”
“क्या बताऊं चौधरी साहब ! आज अभी कुछ देर पहले, कुछ बाइक सवार लोगों ने मुझे रास्ते में घेर लिया, जबरन गाड़ी का शीशा खुलवाया और…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 26, 2016 at 12:15am — 10 Comments
क्यों लेटी हो गुमसुम सी,
सिर्फ एक अंगडाई दो मुझे ,
ऐसे न दो तुम विदाई मुझे,
रास आती नहीं जुदाई मुझे !
क्यों चुप हो सन्नाटे सी,
कभी तो सुनाई दो मुझे
लें आती थी खुशबू तुम्हारी,
फिर वही पुरवाई दो मुझे !
सर्द रातों में रजाई ओढ़ातीं,
फिर वही रजाई दो मुझे
जिससे चिराग रोशन करतीं,
फिर वही दियासलाई दो मुझे !
जिससे मन में सुर घोलतीं
फिर वही शहनाई दो मुझे
जिससे गीत लिखे थे…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 1, 2016 at 7:15pm — 2 Comments
“सुनंदा .सुनंदा, सुन तो सही, इतनी उदास क्यों है?”
“कुछ नहीं माँ बस सर में थोडा दर्द है !”
“अच्छा ठीक है तू नहा कर आ मैं तेरे सर की मालिश कर देती हूँ !”
“तुम भी न माँ हर बात के पीछे ही पड़ जाती हो .... सुनंदा ने चिल्लाते हुए कहा !”
“तेरी रगों में मेरा ही खून दौड़ रहा है सुनंदा, मैं सब समझ रहीं हूँ, तूने अपने पिता की म्रत्यु के बाद उनके दवाई बनाने के कारखाने को इतने अच्छे से संभाला, कभी भी तूने मुझे उनकी कमी महसूस नहीं होने दी, आज अगर वो जिन्दा होते तो भी क्या तू ऐसे…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on June 27, 2015 at 9:07am — 6 Comments
पुष्प अधखिले : हरि प्रकाश दुबे
ओस की बूंदों में भीग कर
श्रृंगार नया मन रूप का कर
सूरज की रोशनी में चमकते हुए
खूब इठलाते हैं, पुष्प अधखिले !
मंदिर- मज़ार में चढाए जाते है
प्रभु चरणों मै अर्पित हो कर
मन में एक विश्वाश जगा
फूले नहीं समाते हैं, पुष्प अधखिले !
प्रिय को समर्पण की चाह में
किताबों में रख दिए जाते है
प्रेम के इज़हार और इंतज़ार में
सूख कर भी मुस्कराते हैं, पुष्प अधखिले…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on June 24, 2015 at 4:50pm — 8 Comments
“सुनो, याद है न यह जगह!”
“जी याद है ,यहीं तो माँ जी की उनके इच्छा के अनुसार हमने अस्थि विसर्जन किया था !”
“और वो दुर्घटना ?”
“कैसे भूल सकती हूँ ,आज भी याद है वो दुर्घटना ,हम दोनों तो कार के नीचे दबे हुए थे ,और उसके बाद दोनों के ही एक –एक पैर काटकर किसी तरह डाक्टरों ने हमारी जान बचाई, और मां जी ने अपना सब रुपया –पैसा और जेवर हमारे इलाज में लगा दिया और उनकी दी हुई ये अंतिम निशानी ,ये बैसाखी हम दोनों का सहारा बन गयीं !”
“तुम्हें पता है मैं बार –बार यहाँ क्यों आता…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 30, 2015 at 1:32am — 3 Comments
“सुनो ! अमर से बात हुई क्या ?”
“नहीं, क्या बात करूँ , कुछ सुनता ही नहीं ,अब तो लगता है दिन में भी पीने लगा है ?”
“पर अमर की माँ मैं तो समझ ही नहीं पा रहा की वो ऐसा क्यों करने लग गया ? बाहर तो लोग उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते !”
“अरे आप भी ना , जानकर भी अनजान क्यों बन जातें हैं ? वही उस लड़की का चक्कर है सारा, मैं कहे देती हूँ, ये लड़का हमारी परम्परा को संस्कारों को मिट्टी में मिला देगा एक दिन, इकलौता ना होता तो कसम से इसका गला दबा देती !”
“कौन, अरे वो बेबी ,…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 18, 2015 at 8:44pm — 9 Comments
“वो देख सामने जहां सूरज निकल रहा है , वहीँ अपना घर है, बेकार में भटका मैं दर –दर, सबने कितना समझाया था, मां - पिता और पत्नी कितना रोई थी, पर मुझे तो भगवान की तलाश करनी थी, पर कहीं नहीं मिला बल्कि लोगों ने कभी भिखारी तो कभी ढोंगी समझा, अरे भगवान् कहीं होगा तो घर में भी मिल जाएगा, अब चल वहीँ काम और ध्यान करेंगे ,चल बेटा अब घर चलें ,तूने भी बड़ा साथ निभाया , वो देख सामने नाव भी आ रही है चल तेज़ चल, और आज ही ये गेरुआ वस्त्र इसी गंगा माँ को समर्पित कर दूंगा !”
“इतना सुनते ही उस साधु का…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 15, 2015 at 9:00pm — 14 Comments
“साहब एक जरूरी बात करनी है !”
“देख नहीं रहे हो कितना व्यस्त हूँ ,अभी मेरे पास किसी भी बात के लिए समय नहीं है,जाओ बाद में आना !”
“पर साहब लगता है आपकी पत्नी के पास भी समय नहीं है, उनका अभी कुछ देर पहले ही एक्सिडेंट हो गया है, और मैं उनको अस्पताल में.. और उनके पर्स से आपका विजिटिंग कार्ड मिला, आपका फ़ोन बंद था ,तभी मुझे अपने सब काम छोड़कर आपको बताने आना पड़ा !”
“अरे भाईसाहब जल्दी ले चलो मुझे आपका बहुत एहसान होगा !”
“समय की परिभाषा बदल चुकी थी !”
© हरि प्रकाश…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 11, 2015 at 9:04am — 13 Comments
“बहन रो क्यों रही हो !”
“मेरा बेटा.... कहकर, वह अभागी माँ और जोर –जोर से रोने लगी !”
“सखी, पहले ये आँसू पोंछ लो,..अब बताओ, हुआ क्या था ?”
“लाख समझाया , पर नहीं माना, गलत लोगों का साथ , पैसे की भूख, वो और उसके दोस्त रोज आरी लेकर निकल जाते और अपने दादा - परदादा से भी पुराने जमाने के पेड़ काटकर बेच आते, अरे कितनी बार कहा था यह प्रकृति हमारी माँ है, ये पेड़ हमारे जीवनदाता ! “
“ फिर !”
“फिर क्या .. एक दिन उन्होंने वो बड़ा सा पेड़ काटा और वो पेड़, मेरे बेटे पर ही…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 3, 2015 at 12:22pm — 7 Comments
“गुरु देव !”
“हाँ बोलो बेटा !”
“लेखन में आपने बहुत कुछ सिखा दिया पर !”
“पर क्या ?”
“पर लगता है आप कहीं चूक गए !”
“अच्छा ! कैसे और तुम्हे ऐसा क्यों लगा ?”
“मेरे लेखन मैं वो बात नहीं आ पा रही है !”
अब गुरु जी थोड़ी देर तक सोचते रहे और तभी एक आवाज़ आई ...पटाक !
शिष्य का गाल लाल हो चुका था , आँख के आगे तारे दिखाई देने लगे .
“अब बोलो बेटा !”
“जी ,समझ गया गुरूजी, बस यही ‘झन्नाटा’ नहीं आ पा रहा था !”
© हरि प्रकाश…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on April 19, 2015 at 9:30pm — 10 Comments
“आपकी लड़की हमको बहुत पसंद है !”
“ बहुत –बहुत शुक्रिया आप दोनों का !”
“ बस बहन जी, थोडा लेन- देन की बात भी...!”
“हाँ-हाँ क्यों नहीं, भाई-साहब, बहन जी बताइये- बताइये ?”
“ अरे आप तो जानती हीं हैं आजकल का चलन, और फिर मेरा लड़का अच्छा खासा सरकारी इंजीनीयर है , कम से कम ४० लाख नकद और एक गाडी तो बनती ही है !” …
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on April 15, 2015 at 9:43pm — 10 Comments
एक पतंग
भर रही थी
बहुत ऊँची उड़ान
विस्तृत गगन में
जैसे, जाना चाहती हो
आसमान को चीरती, अंतरिक्ष में
लहराती, बलखाती, स्वंय पर इठलाती
दे ढील दे ढील, सभी एक स्वर में चिल्ला रहे थे !
कई चरखियाँ
खत्म हो गयीं
सद्दीयों के गट्टू
मान्झों के गट्टू
गाँठ, बाँध-बाँध कर
एक के बाद एक ऐसे जोड़े गए
जैसे ये अटूट बंधन है ,कभी नहीं टूटेगा
वो काटा, वो काटा पेंच पर पेंच लडाये जा रहे थे !
तालियाँ…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on April 6, 2015 at 1:59am — 7 Comments
“ कवि सम्मलेन का भव्य आयोजन हो रहा था, सभागार श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था , देश के कई बड़े कवि मंच पर उपस्तिथ थे, मंच संचालक महोदय बार –बार निवेदन कर रहे थे की अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना का पाठ करें, इसी श्रृंखला में उन्होंने कहा, अब मैं आमंत्रित करता हूँ, आप के ही शहर से आये हुए श्रधेय कवि विद्यालंकार जी का, तालियों से सभागार गूँज उठा !”
“तभी मंच संचालक महोदय ने उनके कान में कहा ‘सर कृपया १५ मिनट से ज्यादा समय मत लीजियेगा’ !”
“विद्यालंकार जी ने मंच पर आसीन कवियों एवम् श्रोताओं से…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on April 1, 2015 at 12:53am — 2 Comments
“ए बच्ची सुन,यहाँ जेल में किससे मिलने आई है !”
“जी सरकार ,अपने पिताजी से !”
“ पर तू तो भले घर की लगती है, और तेरा बाप जेल में, क्या हुआ था ?”
“साहब एक हादसा हो गया था !”
“कैसा हादसा ,कब ?
“ जी ,सब कहतें हैं मेरे पैदा होने के समय !”
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on March 30, 2015 at 9:52pm — 12 Comments
“कार से एक लड़की उतरी और बस स्टैंड की तरफ बढ़ी, एक बुजुर्ग से बोली, अंकल ये ‘मौर्या शेरेटन’ जाने का रास्ता किधर से है, बेटा आगे से जाकर दायें हाथ पर मुड़ जाना, जी शुक्रिया, तभी उसके कानों में एक मधुर संगीत गूँज उठा, “ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आँखे इन्हे देखकर जी रहे हैं सभी....! “
“उसने पलट कर देखा, रंगीन चश्मा लगाए हुए एक लड़का गा रहा था, बस देखते ही लड़की का पारा गर्म हो गया और तभी उसने उसे एक झापड़ दे मारा, ये ले!”
“बस इतना देखते ही वहाँ खड़े लोग उस पर टूट पड़े और चप्पल, लात,…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on March 28, 2015 at 3:12pm — 8 Comments
मैं हूँ बीमारे गम लेकिन ऐसा नहीं,
जैसे जुल्फ से जुल्फ टूटकर गिर पड़े !
मेरा दिल कांच की चूड़ियां तो नहीं,
एक झटका लगे टूटकर गिर पड़े !
मैं हूँ बीमारे गम …………
मेरे महबूब ने मुस्कराते हुए ,
नकाब चेहरे से अपने सरका दिया !
चौदहवीं का चाँद रात शरमा गया,
चौदहवीं का चाँद
जितने तारे थे सब टूटकर गिर पड़े !
मैं हूँ बीमारे गम …………
जिक्र जब छिड़ गया उनकी अंगडाई का,
शाख से फूल यूँ ,टूट कर गिर पड़े…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on March 26, 2015 at 9:00am — 16 Comments
दो विदाई, अब तो कहीं दूर निकल जाएँगे ,
अब तो ये गीत कहीं और जा के गाएँगे !
आदमी कुछ भी नहीं, एक एहसास तो है,
शुन्य जैसा ही सही, एक आकाश तो है !
टूटा बिखरा हो कहीं, एक विश्वास तो है,
इस हक़ीकत को हम ,अब न भुला पायेंगे !
दो विदाई, अब तो कहीं दूर निकल जाएँगे ,
अब तो ये गीत कहीं और जा के गाएँगे !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित
Added by Hari Prakash Dubey on March 24, 2015 at 2:57am — 14 Comments
नीली बत्ती की एक अम्बेसडर कार तेजी से आकर रुकी और ‘साहब’ सीधा निकलकर अपने केबिन में चले गए ! पीछे – पीछे ‘बड़े-बाबू’ भी केबिन की तरफ भागे ! तभी एक आवाज आई ,“ क्या बात है ‘बड़े-बाबू’ बड़े पसीने से लतपथ हो , कहाँ से आ रहे हो ?”
“ पूछो मत ‘नाज़िर भाई’ , नए ‘साहब’ के साथ गाँव- गाँव के दौरे पर गया था, राजा हरिश्चंद्र टाईप के लग रहें हैं, मिजाज भी बड़ा गरम दिख रहा है, आपको भी अन्दर तलब किया है , आइये , मनरेगा, जल-संसाधन और बजट वाली फ़ाइल भी लेते हुए आइयेगा ! “
“ठीक है, आप चलिए मैं आ रहा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on March 21, 2015 at 4:04am — 22 Comments
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