लहकी कलियाँ डाल पर ,आँगन छिटकी धूप
चौपाले रौशन हुईं ,बाल बृंद सुर भूप ॥
सगुन चिरैया भोर में, देती शुभ संदेश
पीहर आवे लाडली…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on February 25, 2015 at 11:30am — 9 Comments
आम्र मंजरी झूमती ,मादक महके बाग
-हर्षित कोयल कूकती,बौराया सा काग ।
बाबा देवर बन गए, फागुन में वो बात
ललचाये हर बाल मन,…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on February 24, 2015 at 10:30am — 17 Comments
आई भोर कोयलिया बोले मीठे गान में
पारिजात बागान में।
उषा ने अपना आँचल बाँधा
अरुण ने अपना वेग सम्हाला
चला दिवाकर बिहंसी किरणें
जग में सुंदर जादू है डाला ।
दिन सुस्ताता तुम्हें देख पहले पहल विहान में
पारिजात बागान में।
देख मुझे वो देहरी ठिठ्की
केशर हार वो हाथ में लाई
अभी-अभी बचपन बीता है
लेकिन गई नहीं तरुणाई।
पाला नहीं पड़ा है जब तक रूप और अभिमान में
पारिजात बागान…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on January 18, 2015 at 1:30pm — 10 Comments
जागा श्रमिक अभाव की चादर पीछे कर
चला अपने भाग्य से लड़ने डट कर
रेशमी विस्तर में सोने वालों,
तुमने कभी सुबह उठ कर देखा है ।
साहस की ईंटों को चुनता हैं अरमानों के गारे से
फिर भी खुशी चलती है दीवार पर, उसके आगे
संगमरमर के महलों में सुख से रहने वालों,
तुमने उनके भूखे पेटों को कभी देखा है ।
तारों की छांव में रोज सबसे आगे उठता
फिर भी जीवन की अरूढ़ाई ना देख पाता
तरुणाई श्रमिकों की पीने वालों,
इनके सिकुड़े…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on October 30, 2014 at 7:30am — 10 Comments
कविता
कविता हृदय की सहचरी है
भावों से भरी हुई रस भरी है।
जिंदा दिलों की रवानगी है
कविता कवि की वानगी है ।
कविता अपने दिल से उदार है
कवि के भावों की चित्रकार है ।
समेटती कई रहस्यों को अपने में
संवेदनावों पर करती प्रहार है ।
उगती है कलम के साथ कागज पर
पहुँच इसकी हृदय के उस पार है ।
कविता माला है भावों और शब्दों की
शुष्क मन को भी करती तार-तार है…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on October 19, 2014 at 10:00pm — 5 Comments
यादें
आज अचानक यूं ही
खिड़की के पास उग आई
मेरी यादों की बगिया
मनोरमता से भरी हुई।
मैंने देखा ..................
कुछ पुष्प पौधों ने जन्म लिया
अभी-अभी और जवान हो गए.
इठलाते हुए
उड़ रही थी भीनी-भीनी खुशबू
यादों की,
बगिया के हर कोने से
हर क्यारी में तने हुए थे
मधुर यादों के इन्द्र-धनुष
जो खिचते थे बरवश अपनी तरफ
हर एक पल ..............................
किसी ने मेरे हाथ…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on September 18, 2014 at 3:30pm — 8 Comments
बंसी का बजाना खेल भी है
गिरिवर का उठाना खेल नहीं
भक्तों के भारी संकट में
दुख दर्द मिटाना खेल नहीं है !!
एक विप्र सुदामा आया था
वो भेंट में तंदुल लाया था
पल भर में ही दीन दुखी को
धनवान बनाना खेल नहीं !!
कौरव दल द्रुपद दुलारी की
सुन कर पुकार दुखियारी की
दो गज की सारी में देखो
अंबार लगाना खेल नहीं !!
था कंस बड़ा अत्याचारी
देता था सबको दुख भारी
उसको जा मारा मथुरा…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on August 17, 2014 at 3:00pm — 29 Comments
बहुत सह लिये तानें
बेबुनयादी ....नारी का धूमिल अस्तित्व
कांति विहीन सा लागने लगा
पुरुष के झूठे प्रलोभन में-
उलझती सी गई स्त्री
पुरुषों की पेचीदे फरमाइशों में
ऊपरी बनावट में बेचारी इतनी
उलझी कि अपने भीतर की -
सुंदरता को खो बैठी ।
एक विचार विमर्श ने उसको झकझोरा
जब उसे अपने, होने का भान हुआ
तो स्त्री बागी हो गई
घायल शेरनी की तरह
उसने अब ये कह डाला --
की नारी जापानी गुड़िया…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on August 8, 2014 at 11:30pm — 9 Comments
तुम्हारा पहला प्यार
सरिता के दोनों तटों को सहलाता कल-कल करता –
अबाध गति सा बह रहा था हमारा प्यार।
वसंती हवा की मदिर सुगंध लिए उन्मुक्त-
सी थी हमारी मुस्कान,
धुले उजले बादलों में छुपती-छुपाती –
इंद्र्धनुष जैसी थी हमारी उड़ान ।
हवा के झौंके ने सरकाया था दुपट्टा मुख से-
तुम अपलक निहारते रहते,
बस तुम ही हो मेरा पहला प्यार-
धीरे से मधुर शब्दों में कहते ।
आखिर वो सलौना सा दिन आ ही गया,
जिस का…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 30, 2014 at 6:00pm — 20 Comments
जाने कहाँ विलुप्त हो गए बचपन के एहसास
हमसे बहुत दूर हो गए ममता भरे हाथ।
जिस प्यार के तले सीखा था जीने का अंदाज
अकेला छोड़ उड़ गए सुनहरे परवाज़
अपने जज़्बातों का मुकाम पाने को
बेताब है अपना नया घरौदा बनाने को
क्या पता किससे मिले, बिछड़े किसी से
कौन कहेगा तू रहना खुशी से,
जमाने की हाफा-दाफी ने भुला दिया-
अपनों के प्यार की दौलत को
ऊंचा उठने के मनोरथ ने मिटा…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 29, 2014 at 11:30pm — 18 Comments
क्यों होती बेटियाँ
थोड़ी पराईं सी ?
होती हैं बेटियाँ
माँ की परछाईं सी।
घर से वो निकलें जब
थोड़ा सा सहम-सहम
करती वो गलती बुरे
लोगों पर रहम कर
क्यों होती बेटियाँ
थोड़ी पछताईं सी?
जग करता मुश्किल
उनकी हर राहें
करतीं हैं पीछा शातिर निगाहें
क्यों होतीं बेटियाँ
तोड़ीं घबराईं सी ?
पैरों में उनके रिश्तों की पायल
तानें देके सभी करते हैं घायल
क्यों होती…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 24, 2014 at 8:30pm — 4 Comments
आई बरखा झूमती
कलियों का मुख चूमती
पवन झकोरे सर-सर करते
डाली –डाली झूमती
आँगन की महके है माटी
गमले में तुलसी लहराती
बैठ झरोके टुक –टुक देखूँ
भीगी मोरें नाचती
अंबर पर मेघों का पहरा
श्याम रंग फैला है गहरा
मेघों की धड़के है छाती
पपीहा टेर सुहाती
महक उठी कृषकों की पौरें
धीमी हो गई रहट की दौड़ें
गीली हो गई दिन और रातें
नई उमंगें झाँकती
मौलिक व…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 14, 2014 at 11:00pm — 10 Comments
मन मेरे तू क्या होता?
जो मुझको तू भा जाता
कर लेता मुझको दीवाना
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे तुलसी दल होता
मोहन के मस्तक पर सोहता
पा जाता जीवन निर्वाण
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे जमुना जल होता
कृष्णा के तन को छू जाता
पा जाता तू सम्मान
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे तू हरिपथ होता
प्यारे के चरणों को छूता
पा जाता सुजीवन सोपान
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे तू दर्पण होता …
Added by kalpna mishra bajpai on May 21, 2014 at 11:00pm — 12 Comments
क्या भूलूँ क्या याद करूँ ?
सब परछाईं सा लगता है
कब पूछा किसने हाल मेरा
किसने मुझ को दुलराया था
हर काम यहाँ मेरा नसीब
सब कुछ हमको ही करना था
क्या बोलूँ क्या न बोलूँ ?
बस मौन साध के रहना है
घर छोड़ के आई बाबुल का
सोचा ये आँगन मेरा है
पर कोई नहीं जिसे अपना कहूँ
है देश यहाँ बेगानों का
क्या सोचूँ क्या ना सोचूँ ?
बस चंद दिनों का मेला है
सब जन करते निंदा मेरी
करना था वो करती आई
गर फिर भी…
Added by kalpna mishra bajpai on May 19, 2014 at 10:30pm — 22 Comments
बेकार अख़बारों की ढेरी जैसा
खाली दूध की थैली व बोतल -सा
मन की उपलब्धियों का -
माल बिक सकता है ?
कोई कबाड़ी वाला आएगा।
ये सब ले जाएगा,
पूरा-का-पूरा कबाड़ उठ जाएगा
सच्ची सजावट सुथरी हो कर निखरेगी
हर चीज यथावत रखी हुई चमकेगी ।
मन की उपलब्धियों की इस ढेरी में
टूटे-फूटे शीशों और कनस्तर जैसा-
मुरझाया हुआ विश्वास,
फटे-पुराने जूतों सा-
बदरंग स्वाभिमान ,
टूटी -फूटी काँच की बोतल…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on May 3, 2014 at 4:00pm — 14 Comments
खिलना नहीं है बाग में
मिलना है जिसको खाक में
ध्यान में उसका धरूँ
कितने दिनों के वास्ते ?
विश्वास अपनों का धरूँ
उपहास अपना क्यों करूँ ?
इतिहास अपना ही लिखूँ
कितने दिनों के वास्ते ?
अवसाद सपनों पर करूँ
फरियाद अपनों से करूँ
नित याद में खोई रहूँ
कितने दिनों के वास्ते ?
अभिमान मन की भूल है
अरमान मन की चूक है
इस चूक को वरदान समझूँ
कितने दिनों के वास्ते…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on April 8, 2014 at 11:00pm — 22 Comments
न जानें कितने जीवन से परिक्रमा
ही तो करती आई हूँ ,
क्या पाया ?क्या खोया ?
पता नहीं भूली हूँ माया के जाल में ।
बस एक मेरा "मैं "
तैयार रहता मुझ पर हर दम,
कहता, मैं ही हूँ सबसे अच्छा ।
पर ये क्या सच है ?
नहीं ये हमारे "मैं "
का ही भ्रम है ।
घूमी हूँ यहाँ से वहाँ ,
लगाईं हैं कई जन्मों की
परिक्रमाएँ,
चुनी हैं मायेँ कई,
हर पल माना खुद को सही।
क्या ये सच है?…
Added by kalpna mishra bajpai on March 27, 2014 at 6:45pm — 5 Comments
संध्या बेला मधुरिम पल है
लाल कपोल लिए तन सूरज
ढलता पल-पल छिन-छिन हर पल
सहलाती पद उसके संध्या
करती सेवा उसकी रज-रज।
मृग़ छौने थक जाते चलकर
दिवा चली सुस्ताने पल भर
स्वप्निल सपने देती संध्या
सब को मंजिल तक पहुंचाकर।
बीता वासर बिछी चाँदनी
वृक्ष खड़े अलसाए लत-पत
खग और विहग पुकारे हरि को
वन्य माधुरी फैली इत-उत।
सोचो संध्या गर ना होती
तो क्या सो पाते हम जी भर?
कर पाते,…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 18, 2014 at 9:00pm — 6 Comments
१११ १११२ ११ १११, १११२ ११११ ११
9-) मान बड़ाई सब चहे, कितनी इसकी हद।
दूजे को देते नहीं, पोषत खुद का मद॥
10-) मात-पिता व गुरु से, हर दम बोलत झूठ।
आपा भीतर झांक लो, हरि जाएगा रूठ॥
11-) ज्ञान क्षुदा उर में लिए, ढूंढत फिरत सुसंग।
उर की आंखे खोल लो, जग में भरो कुसंग॥
12-) धन दौलत कुछ न बचे, तब तक मन में चैन।
चरित्रिक बल सबल है, ना हो तुम बेचैन॥
13-) जनम-मरण के…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 14, 2014 at 2:30pm — 3 Comments
(मौन) शब्द से सभी परिचित है .... कौन नहीं जनता इस शब्द की विशालता को.....
आज 22 अप्रेल है पूरा एक साल हो गया दोनों को गए हुए, सुधा मन ही मन बुदबुदा रही थी।जरा चाय लाना बालकनी से पति ने आवाज लगाई। चाय तो बनी और पी भी रहे थे दोनों लेकिन सुधा क्षुब्ध, अकेली, बेचैन सी लग रही थी।आज का उजला-उजला नरम सबेरा भी अपना जादू न चला पा रहा था, महेश ने सुधा को हिलाते हुए कहा कहाँ हो? यहीं मीठी ...... क्या हो गया है तुमको ?
सुधा नम आँखों से महेश की ओर देख कर बोली गर ना पढ़ाते…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 12, 2014 at 11:00pm — 9 Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |