मत्तगयन्द सवैया. (सात भगण और दो गुरु )
1.
वक्त बली अति सौम्य तुला रख नीति- सुप्रीति सदा पगता है.
काल अकाल विधी - विधना सबके सब मूक बयां करता है.
मीन - नदी अति व्यग्र रहें, बगुला नित शांत मजा चखता है.
वक्त समग्र विकास करे पर, मानव सत्य नहीं गहता है.
2.
स्नेह मुहब्बत संग दया समता, करुणाकर ही रखते हैं.
क्रूर कठोर अघोर सभी जन में, सदबुद्धि वही फलते हैं.
रावण कौरव कंस बली हिरणाक्ष,…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 3, 2015 at 8:30pm — 4 Comments
अजनबी लाशें..
पाठशाला में पढाती
आँंखें खोल कर,
सृ-िष्ट की सबसे सुन्दर कृति
नारी का हृदयंगम पाठ
अक्षर-अक्षर निर्वस्त्र, लिजलिजा भाव
भाषा नि:शब्द!
पर, संवेदना के पहाड़े याद नहीं होते।…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 3, 2015 at 7:30pm — 4 Comments
गज़ल....खार रचता आदमी....
बह्र... 2122 2122 212
खुद को खुद से कब समझता आदमी.
जीत कर जब हार कहता आदमी
मौन में संजीवनी तो है मगर
मैं हुआ कब चुप अकडता आदमी.
आस्मां के पार भी खुशियां दुखी,
हर कदम पर शूल सहता आदमी.
फूल-कलियां मुस्कराती हर समय,
देवता को भेंट करता आदमी.
आदमी ही आदमी को पूजता,
आचरण पशुता अखरता आदमी.
प्यार में सम्वेदना …
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2015 at 8:17pm — 14 Comments
मत्तगयन्द सवैया // सात भगण + दो गुरू
बालक बुद्धि यही समझे, अखबार सुधार किया करते हैं।
जूठन खीर न दूध गिरे, इस हेतु बिछा भुइ को ढकते है।।
आखर-आखर कालिख ही, मन सोच-विचार भली कहते हैं।
मानव नित्य प्रलाप करे, अखबार प्रशासन ही छलते हैं।।
के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2015 at 7:08pm — 4 Comments
सम्प्रदायिक दंगा...
चौराहों पर भीड़ अकड़ कर
भड़ास निकालती
दूकानें घबराकर छिप जाते बन्द डिब्बों में
जनानी खिड़कियां दुबक जातीं
देर सुबह तक.....शायद अनि-िश्चत काल के लिए
बिना पंख की हवाएं बिखेरतीं, सौरभ-अफवाहें
अर्ध्द खुली मर्द खिड़कियां, अवाक!
शहर की गली, सड़क सब सॉय-सॉय
...फुफकारते काले नाग
शोक में, सब्जियां - फल सब दॉए-बॉए
नालियों में अपनी सूरतें देखतीं
सड़कों के मध्य चप्पलें दहाड़े मार कर रोती
जूते फटेहाल…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 8:30pm — 14 Comments
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 8:11pm — 12 Comments
किराए का घर--
शरीर,
लोभी और भोगी
सदैव आकर्षक, चकमक
किराए का घर
हवस की दीवारों पर टिकी
अहं - विकार की छत
बिखरी श्वेत चॉदनी पर चढा़ता
चाटुकारिता का रंग
टाड़-अलमारियों से झॉंकते
छल और कपट
सब मौन है।
ताख का टिमटिमाता दिया
किराएदार
आत्मा का वर्चस्व, संयमी-उद्यमी
र्निलिप्त कर्मो का प्रदाता
सॅवारता है सभी प्रकोष्ठ, सभ्य आचरण भी
बन्द खिड़कियो से चिपका
विवेक का वातानुकूलित सयंत्र
अनुरक्षण के दायित्व से…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 15, 2015 at 10:51pm — 6 Comments
हिंदी-साहित्य
साहित्य,
दर्पण सा मजबूर
इसका अपना कोई अक्स नहीं होता
रूप-रंग, वेष-भूषा, आकार-प्रकार
सब शून्यवत
अदृश्य आत्मा सा भाषा हीन
भावनाओं की आकृतियां अनुभव से सराबोर
आंसुओं में दर्द के बीज
संगठित मोतियों का वजूद
दफ्न हो जाते होंठो के कोर पर
संवेदनहीनता के मरूस्थल गढ़ते नई भाषा
साहित्य की आत्मा
पत्रकारिता की देह में ऐंठती मूॅछ
उगलती भाषाओं की जातियां, भ्रम....क्लीष्टतम रस
क्षेत्रीयता के कलश हवाओं में लटके
मुंह…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 29, 2015 at 12:22pm — 13 Comments
जीवन.....
हरी पत्तियो से ढके
और फलों से लदे
पंछियोंं के घने बसेरे
आस-पास वृहद सागर सा लहराता वन,
आल्हादित हैं पवन-बहारें
सॉझ-सवेरे झंकृत होते
पंछियो के कलरव स्वर
नदियों की कल-कल,
आते-जाते नट कारवॉ
उड़ते गुबार, मद्धिम होती रोशनी, आँख मींचते बच्चे
तम्बू में घुस कर खोजते, दो वक्त की रोटी...
पेट की आग का धुआँं, करता गुबार
रूॅधी सांसों के कुहराम
आधी रोटी के लिए करते द्वन्द
तलवारें चमक जाती, बिजली सी
धरा…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 27, 2015 at 10:30pm — 14 Comments
तरही गजल...
बह्र....122 122 122 122
तरानाा फॅसाना नया चाहता हूँ
तुम्हीं से मुहब्बत-वफा चाहता हूँ।
चमन, फूल-कॉटों सभी से निभाया,
रहा दोष फिर भी क्षमा चाहता हूँ।
हॅसीं खाब-जन्नत-बहारें तुम्हीं से,
तरो ताजगी की हवा चाहता हूँ।
कदम चूम कर नित्य सजदा करूं मैं,
मेरी जिन्दगी की दवा चाहता हूँ।
खयालों में अक्सर बहुत चोट खाये,
मिलो रूबरू फलसफा चाहता हूँ।
हुआ वक्त घायल ये इन्सा-जमीं भी,…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 27, 2015 at 8:00pm — 15 Comments
एकाकीपन
उदासियां--!
मन के कोनो अतरों में जीती
सुबह -दोपहर-सायं
एकान्त की काकी, एकाकी
क्यों ? न पालती अपने नौलिहाल
रस-छन्द-अलंकारों को
अलसाई तन्द्रा
इन्द्रधनुषी रंग में रॅगती- कोरी चुनरी
ईर्षा,-द्वेष, छल-कपट से टॉकती
अहं के चमकते सितारे
अति निष्ठुर ।
हथेली की उॅगलियों में फॅसी ध्रुम द-िण्डका
रह-रह कर जलती- बुझती.....कुढ़ती
आवारा काले बादलों सा उगलती ....धुआँं
कलेजों के टुकड़ाें की धौंकनी बढ़ जाती…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 24, 2015 at 9:30am — 5 Comments
गीतिका छंद......गीतिका छ्न्द में 14-12 के क्रम में कुल 26 मात्राएं होती हैं. इस छंद की प्रत्येक पंक्ति की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं व चौबिसवी मात्राएं अनिवार्य रूप से लघु ही होती हैंं.
मां सरस्वती - वन्दना
शारदे मां वर्ण-व्यंजन में प्रचुर आसक्ति दो।
शब्द-भावों में सहज रस-भक्ति की अभिव्यक्ति दो।।
प्रेम का उपहार नित संवेदना से सिक्त हो।
हर व्यथा-संघर्ष में भी क्रोध मन से रिक्त हो।।1
वृक्ष सा जीवन हमारा हो नदी की भावना।
तृप्त ही…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 23, 2015 at 11:00pm — 4 Comments
भूकम्प....
यादों के शहर में
मुॅह बिचकाती सड़कें
दरक कर उलाहना देतीं ....दीवारें खिसियाती
जमीं पर भटकते अबोध सितारे
औंधें मुॅह धूल चाटतीं ऐतिहासिक धरोहरें
झुके वृक्ष कुछ और झुक कर पूछना चाहते....कैसे हो?
भूकम्प के झटकों से टेढ़ा हुआ चॉद
चॉदनी धू-धूसरित....
मलबे के नीचे दबे विदीर्ण स्वर अतिशांत
प्रकृति भी सहम उठती।
अडिग अट्टालिकाएं चकनाचूर
बिछड़े आँखों के नूर
भाग्य स्वयं को कोसते.....तो, संवेदनाएं मूक।
मैदानों…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 20, 2015 at 8:00pm — 8 Comments
विकासवाद का चरित्र
सड़क, गली, कूचों व मैदानों में
उन्मादी संक्रमण मस्ती करते
विकल, प्राण पखेरू
समूहों में फड़फडाते- गिड़गिडाते
गगन, हवा, दीवारों में सिर मार कर डूब जाते
सागर, सरोवर, ताल, नदी, झीलों में
बजबजाता विकासवाद
अशिष्ट पन्नियों से ।
दलदल में कमलदल, दलगत उन्मुक्त पर
स्थिर, मूक, भावहीन संज्ञाएं
क्रियाशील भौंरे सब हवा हो गए
गुम गयीं - तितलियॉं
सौन्दर्य निगलती- वादियॉं
दिशाएं- दिशाहाीन, पूर्णत: शुष्क पछुवा पर निर्भर…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 18, 2015 at 9:08pm — 16 Comments
चुने कंट............शक्ति छंद
दिये से दिये को जलाते चलें।
बढी आग दिल की बुझाते चलें।।
रहे प्रेम का जोश-जज्बा सदा।
चुने कंट सत्यम गहें सर्वदा।।1
नहीं दीन कोई न मजबूर हों।
सभी शाह मन के बड़े शूर हों।।
न कामी न मत्सर सहज प्यार हो।
बहन-भ्रात जैसा मिलन सार हो।।2
यहां सिंधु भव का बड़ा क्रूर है।
लिए तेज सूरज मगर सूर है।।
यहाँ तम मिटा कर खड़ा नूर जो।
बुलाता उन्हे पास, हैं दूर जो।।3
भिगोते रहे अश्रु…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 16, 2015 at 5:00pm — 2 Comments
दृढ़ता में
भूखे श्रमिकों के श्रम रखते
विकास की नींव
सफलता के केतु आकाश को ढक देते
धरा से गगन को चूमती अट्टालिकाएं उकेरतीं,
झुग्गियों का दर्द
आलसी, धुंध चढ़ जाता ऊपरी मंजिल तक
धूल में लिपटे श्रमिक झाड़ देते
लोभ, इच्छा और आवश्यकताएं भी
श्रम, अटल सत्य-
तनिक भी अपेक्षा नहीं रखती।
टेढ़ी-मेढ़ी सकरी पगड-िण्डयां
स्वयं राजपथ होने का दंभ भरतीं
हुंकारती, अहं के आकार-प्रकार
बहुआयामी अपेक्षाएं- लक्ष्य से कोसों आगे,
दूर की सोच सदैव…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 8, 2015 at 9:25pm — 11 Comments
सत्य.....
पंच महाभूतों की आस्था
विज्ञान भी मानता- शोध में,
वेद-पुराणों, महाकाव्यों के आधार बिन्दु
जीवन के सेतु-बंध,
उपकृत करते-
क्षित, जल, पावक, गगन व समीर
एक दूसरे के पूरक
महाकाश से घटाकाश तक सर्वत्र व्यापी
तल-वितल, अतल भी
धारण करते पिण्ड स्वरूप.....अखण्ड ब्रह्म,
कण-कण रोमांच से भरपूर
क्षर कर भी सृजन के चंद्र-सूर्य
चक्राकार आवृत्ति के द्विगुण- सघन तम व तेज
विस्तारित करते रहस्य
आकार लेते, आभाष - अनुभव…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 4, 2015 at 8:30am — 14 Comments
सत्यांजलि
धन्य धन्य हे मात तू, धन्य हुआ यह पूत।
असहायों की मदद कर, यश-धन मिला अकूत।।1
क्षितिज द्वार पर नित्य ही, कुमकुम करे विचार।
स्वर्ण किरण के जाल में, क्यों फॅसता संसार।।2
उपकारी बन कर फलें, ज्यों दिनकर का तेज।
दिन भर तप कर दे रहा, रात्रि सुखद की सेज।।3
धर्म कार्य जन हित रहे, चींटी तक रख ध्यान।
मात्र द्वेष निज दम्भ रख, ज्ञानी भी शैतान।।4
जनहित मन्तर धर्म का, स्वार्थी पगे अधर्म।
सच्चा सेवक त्यागमय,…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 30, 2015 at 9:30pm — 8 Comments
....जागते रहो
शहर के उस कोने में बजबजाता
एक बड़ा सा बाजार
जहॉ बिखरे पड़े हैं सामान
असहजता के शोरगुल में
तोल-मोल करते लोग
कुछ सुनाई नहीं देता
बस! दिखाई देता है, एक गन्दा तालाब
उसमें कोई पत्थर नहीं फेंकता
उसमे तैरती हैं...मछलियां, बत्तखें और
बेखौफ पेंढुकी भी
वे जानती है, और सब समझतीं भी हैं...
इस संसार में सब कुछ बिकाऊ हैं-
कुछ पैसे लेकर और कुछ पैसे देकर
यहां शरीर से लेकर आस्था तक, .....सब!
तालाब की मिट्टी में सने ...देव…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 27, 2015 at 9:42pm — 14 Comments
कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।
भूख लगे तो चिल्लाता यों, सारे जग का मालिक है वो।
शोषण का अपराध हृदय में, खोखल तना घना लगता वो।।
हाथ, पैर, मुख कर्म करे पर, अॅखियॉं मूंद करे बचकानी।
कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।। 1
दया-करूण की ममता देवी, निश्छल अन्तर्मन की वेदी।
नहीं जरा भी रूक पाती है, करूणा-ममता बरसाती है।।
जीवन भर उल्लास बॉंट कर, पीती सदा नयन से पानी।
कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।।…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 24, 2015 at 6:35pm — 3 Comments
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