For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी's Blog (199)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४१ (बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़: "बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की")

बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़

(वज़न- फायलातुन फायलातुन फायलातुन फाएलुन)

---------------------------------------------------------

मुलाहिजा फरमाएं:

 

बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की

हुस्नवालों की दलीलें हैं मिरे किस काम की

 

कब हुई तस्लीम मेरी इक ज़रा सी इल्तेजा

दास्तानें कब हुईं मंसूख तेरे नाम की

 

जाग जाओ सोने वालो अपने मीठे ख्वाब से   

घंटियाँ बजने लगी हैं शह्र में आलाम की

 

पीछे पीछे नामाबर…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 19, 2012 at 11:51pm — 8 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३९ (जैसे कोई अतीत दबे पाँव आपके पीछे पीछे ही हमसवार है)

ऐतिहासिक इमारतों में कितना आकर्षण समाया है. इक पूरी ज़िंदगी और ज़माने का कोई थ्री डी अल्बम हों ये जैसे. ख्यालों की लम्बी दौड़ लगानेवालों के लिए गोया ये फंतासी, रूमानियत, त्रासदी, और न जाने किन किन रंगों के तसव्वुरात की कब्रगाह या कोई मज़ार हैं ये इमारतें.

 

ज़िंदगी जीते हुए जितनी हसीन नहीं लगती उससे कहीं अधिक माजी के धुंधले आईने में नज़र आती है. जैसे गर्द से आलूदा किसी शीशे में कोई हसीन सा चेहरा पीछे से झांकता नज़र आ जाए और हम खयालों में मह्व (खोए), हौले से अपनी उंगुलियाँ आगे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 13, 2012 at 11:19am — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४० (आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई)

आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई

यूँकि ये मरके भी आज़ादीका उन्वाँ न हुई

 

तू जो इक रात मेरे पास मेहमाँ न हुई

ज़िंदगी आग थी पे शोलाबदामाँ न हुई  

 

ज़िंदगी तेरे उजालों से दरख्शां न हुई   

ये ज़मीं चाँद-सितारोंकी कहकशाँ न हुई

 

बात ये है कि मिरी चाह कामराँ न हुई

एक आंधी थी सरेराह जो तूफाँ न हुई

 

दौरेमौजूदा में आज़ादियाँ आईं लेकिन

लैला-मजनूँकी तरह और दास्ताँ न हुई

 

याद तुझको न करूँ…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 9:00pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३९ (हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं )

कैद कब तक रहोगे अपनी ही तन्हाइयों में

ढूंढें मिलते नहीं ज़िंदा बशर परछाइयों में

 

हक़का रिश्ता ज़मींसे है, ये खंडहर कहते हैं

सब्ज़े होते नहीं अफ्लाक की बालाइयों में  

 

खुशबूएं जम गईं गुलनार के पैकर में ढलके

कल की बादे सबा क्यूँ खोजते पुरवाइयों में

 

हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं

ज़र्द पड़ जाते हैं गुलदस्ते की रानाइयों में

 

फूल वा होते हैं, निकहत बिखर ही जाती है

फर्क कुछ भी नहीं है प्यार और…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 5, 2012 at 11:46am — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३८ (मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं)

मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं

बच्चे सयाने हो गए मुझको खबर नहीं

 

वो प्यार क्या कि रूठना हँसना नहीं जहां

ऐसा भी क्या विसाल कि ज़ेरोज़बर नहीं

 

दरिया में डूबने गए दरिया सिमट गया

तेरे सताए फर्द की कोई गुज़र नहीं

 

उनके लिए दुआ करो उनका फरोग हो

जिनपे तुम्हारी बात का होता असर नहीं   

 

रहता हूँ मैं ज़मीन पे ऊँची है पर निगाह

रस्ते के खारोसंग पे मेरी नज़र नहीं

 

सबको खुदाका है दिया कोई न…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 3, 2012 at 9:59am — 3 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३७ (बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई )

 

दर पे हमारे शाम इक इठला के रह गई

हमको तुम्हारी दास्ताँ याद आके रह गई

 

बहरोवज़न के खेल भी हमने समझ लिए

बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई

 

होना था दिल के टूटने के बाद और क्या

ज़िदमें ही ज़ीस्त ख्वाबको झुठलाके रह गई

 

बेबस हुए कुछ इस तरह किस्मतके हाथ हम

तेरी निगाहेनाज़ भी समझा के रह गई

 

मुझको तिरी बेजारियों का कुछ गिला नहीं

मेरी भी ज़िंदगी अना दिखला के रह गई  

 

गुंचे शगुफ्ता…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 10:00pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३६ (साबुन की तरह इश्क भी इकरोज़ गल गया)

ऐसा लगता है कि इस ग़ज़ल की बह्र तरही मुशायरे २७ की ग़ज़ल की ही है. रदीफ़ तो वही है, पर काफिया अलग. मैंने शेर वज़न और बह्र में कहने की कोशिश तो की है, पर मेरे आलिम दोस्त ही बताएंगे कि मैं कोशिश में कितना कामयाब हुआ.

 

लम्हा-ए-दीदनी-ओ-नज़ारा-ए-पल गया

वो माह बनके अर्श पे आया निकल गया

 

गर्दूं में शब की चांदनी हौले से आ बसी

रोज़ेविसालेयार भी आखिर में ढल गया

 

मिटने लगे हैं फर्क अब दिन रात के सभी

मौसम हमारे शह्र का कितना बदल…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 9:43am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३५ (हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले)

निस्बतें यूँ बढ़ीं हमसे ज़माने की हौले हौले

खुलती गईं सब तहें अफ़साने की हौले हौले

 

हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले

कीमतें कुछ यूँ बढ़ीं आशियानेकी हौले हौले

 

बस्तियोंमें भी नशा-सा होने लगा है सरेशाम

दीवारें टूटने लगी हैं मयखाने की हौले हौले

 

फर्क मिट गए हस्पतालों और होटलोंके अब

सूरतें बदल गईं हैं शिफाखाने की हौले हौले

 

ये कोई प्यार नहीं हैकि दफअतन हो जाता

आदतें आईं दुनिया से निभाने की…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 26, 2012 at 8:42am — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३४ (न आइन्दा साथ जाए और न हाल साथ जाए )

न आइन्दा साथ जाए और न हाल साथ जाए

मैं जहां कहीं भी जाऊं तेरा ख्याल साथ जाए

 

न मग्रिबको देखता हूँ न मश्रिकको चाहता हूँ

न जनूब मेरी ज़मीं हो, न शिमाल साथ जाए

 

जो मज़ा है हमको तेरी फ़ुर्कत की सोजिशों में

वो मज़ा कहाँ मयस्सर जो विसाल साथ जाए

 

ये दुआ है मेरे दिल से कोई बद्दुआ न निकले

न कैदेहस्ती अजल हो कि मआल साथ जाए 

 

चलो इल्तेफात टूटी और गिले भी ख़त्म सारे

न जवाब कोई बाकी और न सवाल साथजाए…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 23, 2012 at 4:36pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३३ (सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है)

उम्र कब तलक गिराबांरेनफस को उठाती है

कमरेकी हवा भी अब खिड़कियों से जाती है 

 

माहोसाल गुज़रे दिलके अंधेरों में रहते रहते

तारीकियोंसे भी अब कोई रौशनीसी आती है 

 

तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह

सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है

 

मुझमें भी हैं हसरतें इक आम इंसाँ की तरह

माना कि मैं एक बेमाया दिया हूँ पे बाती है

 

एक उज़लतअंगेज शाम तेरे गेसू में आ बसी  

एक अल्साई सुबह तेरी आँखोंमें मुस्कुराती है…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 23, 2012 at 11:07am — 13 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३२ (यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को )

यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को

कि शर्म आ जाती है शहरों में गुम उजालों को

 

गरीबोगुरबा की तमकनत तो है बस आँखों में

जो देखके आ जाती है ऐवाँ में रहने वालों को

 

मैं शाइरोफलसफी हूँ, तसव्वुर ही काम है मेरा

मैं ख़्वाबोंके सीमाब पैरहन देता हूँ ख्यालों को  

 

न दे मुझ को शराब न सही जो तेरी मरज़ी है

पे ये भी बतादे मैं क्या बोलूं सुबूओप्यालों को 

 

ख्वाह न हो कोई जवाब न कोई हल इस हाल

ज़माना देखेगा…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 21, 2012 at 8:20pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३१ (गुफ्तगूबराएऔरतको ज़मीनोबहर क्या)

दो कदम चलके रुक गए वो सफ़र क्या

जहां लौट के न जाया जाए वो घर क्या

 

जो नहो उसकी इनायत तो मुकद्दर क्या

कि बुरा क्या बद क्या और बदतर क्या

 

जो न जाए तेरे दरको वो राहगुज़र क्या

और जहां पड़े न तेरे कदम वो घर क्या

 

तेरे बगैर सल्तनत क्या दौलतोज़र क्या

जो नहुआ तेरा असीरेज़ुल्फ़ वो बशरक्या

 

देखती हैं यूँ हजारहा निगाहें शबोरोज़ हमें  

जो दिल को न चीर जाए वो नज़र क्या

 

ज़िंदगी जिस तरहा हो…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 11:53pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३० (हमने कब यह सोच कर लिखा कि जो लिखा वो कोई गज़ल है)

हमने कब यह सोच कर लिखा कि जो लिखा वो कोई गज़ल है

चलनेवालेकी मंजिलपे नज़र है, नकि वो हवाओं में या पैदल है

 

अंदाज़ेतसव्वुर ने बदले हैं तरीकाए-तालीम-ओ-फहम दौरेके दौर  

कल जोकोई होगा बढ़के असद वो आज फकत बाशक्लेहमल है

 

बंदिशेबह्र-ओ-रदीफ़ोकाफिए के बगैर भी हो सकते हैं कलामेपाक

अल्लाहने जो बनाई है ये कायनात वो इक वाहिद सौतेअज़ल है   

 

शह्रमें होती हैं बसाहटें मकानोकस्बाओबाजारोशाहराह, क्याक्या

पे जाँ पे दिललगे मेरा वो…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 6:00pm — 9 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३८ (मेरी पत्नी)

(अंग्रेज़ी की डायरी से हिन्दी में अनूदित)

---------------------------------------------------

मेरी पत्नी,

 

प्रेम सदैव हमारे अंदर है, अपनी गहराई में, बाहर नहीं. ‘मैं’ द्वारा इस तथ्य को आत्मसात कर लिए जाने  तक कि यह ‘मैं’ स्वयं भी इस आतंरिक प्रेम से बाह्य है, यह प्रेम अपने से बाहर नाना रूपों में अभिव्यक्ति की खोज में प्रयत्नशील बना रहता है. जब ‘मैं’ द्रवीभूत और अनन्य हो जाता है, इसके साथ ही वो सब कुछ जो इस ‘मैं’ से बाहर परिलक्षित है. तब प्यार के अतिरिक्त कुछ भी शेष…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 10:44am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २९ (हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं)

मर्गोजीस्त के राज़ मेरे सीने में कैद हैं

हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं

 

खुशी होती तो मर न गए होते कब के

जीरहें है कि गममें मुब्तलाओमुस्तैद हैं   

 

दिल कोई तिफ्लहै पूछे है तेरी तस्वीरसे

इक मुझ को ही तेरे दीदार क्यूँ नापैद हैं  

 

रोज़ेकारेमाशी शामेमैकशी शबेख्वाबीदगी 

न जाने हम कबसे बामशक्कत बाकैद हैं

 

'राज़' की उम्र हुई है, पे अन्वार बाकी है

जुज़ आँखकी पुतली सारे उज़व सुफैदहैं

 

©…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 18, 2012 at 10:31pm — 8 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २८

जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई

नदी समन्दर के पास आकर मर गई

 

रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया

दिन निकला तो लंबी रात किधर गई

 

आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच

इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई

 

दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे

अबके बरस छत की कलई उतर गई

 

जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें

दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई  

 

हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे

इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 11:43pm — 18 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २७

क्या अदा वो खामुशीसे हर ख्याल पूछे है

इक नज़रसे ही सारे दिल का हाल पूछे है

 

राहगीरोंको भी खबर कुछहै हमारे इश्ककी

वरना, क्या थी रकीब की मजाल, पूछे है

 

वो समझ पाता जो खुद राज़ वा करनारहे

है बहुत आसाँ कि सवालपे सवाल पूछे है   

 

हो गुरूर हुस्नपे पे इतना नहींकि एकदिन

जाती बहारसे पतझड़ उसका ज़वाल पूछेहै  

 

रोज़ तुलूअ होना और फिर गुरूब होजाना

आफ्ताबोमेह्र देखके तू क्या कमाल पूछे है…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 8:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २६

तेरे बगैर मज़ाभी क्या आये जीने का

शराब न हो तो क्या हो आबगीने का

 

तेरी ज़ुल्फ़से दोचार नफ्स मांग लेतेहैं

तेरेही इश्कने काम बढ़ाया है सीने का   

 

तू नमाज़ी है तो पाबन्द है औकातका

मैं खराबाती हूँ कोई वक्त नहीं पीनेका

 

नतुम न दरियएइश्क पार करनेको है

नाखुदा है खुदा काम क्या सफीने का

        

राज़ ज़रा संभल के खर्च करो मआश

अभीतो पूरा महीना पड़ा है महीने का    

 

© राज़…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 11, 2012 at 7:45am — 6 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३७ (मेरी बेटियों की जोड़ी को लिखा एक पत्र )

राज़ नवादवी: मेरी बेटियों की जोड़ी को एक पत्र

-------------------------------------------------- -----------

 

मेरी प्यारी बेटियों साशा और नाना,

 

मुझे आप दोनों की दुनियावी तकलीफों और दर्द के बारे में जानकार बहुत दुःख है. मुझे ऐसा लगता है कि घर से मेरा मुसलसल (लगातार) दूर रहना भी इनकी एक वजह है, मगर शायद फिलहाल मेरी ज़िंदगी कुछ ऐसी है कि इसमें जुदाई और फुर्कत (विरह) का साथ अभी और बाकी है.

 

मेरी दरख्वास्त है कि कभी अपना हौसला मत खोना क्यूंकि…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 9, 2012 at 2:03pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३७ (मेरी बेटियों की जोड़ी को लिखा एक पत्र )

राज़ नवादवी: मेरी बेटियों की जोड़ी को एक पत्र

-------------------------------------------------- -----------

 

मेरी प्यारी बेटियों साशा और नाना,

 

मुझे आप दोनों की दुनियावी तकलीफों और दर्द के बारे में जानकार बहुत दुःख है. मुझे ऐसा लगता है कि घर से मेरा मुसलसल (लगातार) दूर रहना भी इनकी एक वजह है, मगर शायद फिलहाल मेरी ज़िंदगी कुछ ऐसी है कि इसमें जुदाई और फुर्कत (विरह) का साथ अभी और बाकी है.

 

मेरी दरख्वास्त है कि कभी अपना हौसला मत खोना क्यूंकि…

Continue

Added by राज़ नवादवी on September 9, 2012 at 2:03pm — 4 Comments

Monthly Archives

2019

2018

2017

2016

2013

2012

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"धुंध गहरी और खाई दिख रही है  अब तरक्की में तबाही दिख रही है। बोझ से घायल हुआ सीना जमीं…"
28 minutes ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"सहर्ष सदर अभिवादन "
12 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, पर्यावरण विषय पर सुंदर सारगर्भित ग़ज़ल के लिए बधाई।"
15 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय सुरेश कुमार जी, प्रदत्त विषय पर सुंदर सारगर्भित कुण्डलिया छंद के लिए बहुत बहुत बधाई।"
15 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय मिथलेश जी, सुंदर सारगर्भित रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।"
15 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
15 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
19 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई सुरेश जी, अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर कुंडली छंद हुए हैं हार्दिक बधाई।"
21 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
" "पर्यावरण" (दोहा सप्तक) ऐसे नर हैं मूढ़ जो, रहे पेड़ को काट। प्राण वायु अनमोल है,…"
22 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। पर्यावरण पर मानव अत्याचारों को उकेरती बेहतरीन रचना हुई है। हार्दिक…"
23 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-163
"पर्यावरण पर छंद मुक्त रचना। पेड़ काट करकंकरीट के गगनचुंबीमहल बना करपर्यावरण हमने ही बिगाड़ा हैदोष…"
23 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service