कौन अपने है कौन पराये
बात हमे ये
भ्रमित और झकजोर
क्यूँ जाए
विरह के जब
मेघ मंडराए
एकल बैठ के
हम अश्रु बहाए
वेदना ने
बेहाल किया जब
असहाए तब
स्वयं को पाए
जग की रीत
है बड़ी पुरानी
हर पीड़ित की
यही कहानी
व्यथा दे जब
हमें सताये
समक्ष स्वयं के
कोई न पाए
जीवन देता
सबक सिखायें
सत्य का तब
बोध करायें
अपना…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on September 26, 2012 at 12:07pm — 2 Comments
"गलती हमारा या हमारे आदमियों का नहीं है रमाकांत बाबू"| बाहुबली ठेकेदार तिवारी जी, डीएसपी रमाकांत प्रसाद को लगभग डाँटते हुए बोले| "हम उसको पहिलहीं चेता दिए थे कि ई रेलवे का ठेका जाएगा तो ठेकेदार दीनदयाल राय के पास जाएगा नहीं तो नहीं जाएगा, लेकिन उ साला अपनेआप को बहुत बड़का बाहुबली समझ रहा था| अब खैर छोडिये, जो हो गया सो हो गया| जो ले दे के मामला सलटता है, सलटाइए|"
"आप समझ नहीं रहे हैं सर| बात खाली हमारे तक नहीं है कि आपका कहा तुरंत भर में कर दें| हमारे ऊपर भी कोई है, उप्पर से ई मीडिया…
ContinueAdded by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 26, 2012 at 11:32am — 2 Comments
क्या लिखूँ अब मैं
सब तो लिख दिया मैंने
अपने दिल की बाते
टूटे ख्वाबों की यादे
सब..............
क्या लिखूँ अब मैं................
सब तो लिख दिया मैंने.............................
जिन्दगी----- कल भी तो ऐसी ही थी
कुछ भी तो नही बदला
कल भी जी रहे थे बिन अपनों के हम
और आज भी तो जी ही रहे है............
कुछ भी तो नही बदला
क्या लिखूँ अब मैं......
सब तो लिख दिया मैंने..............
जब सीखा था अपने दिल को कागज़ पर…
Added by Sonam Saini on September 26, 2012 at 11:00am — 5 Comments
तू एक ऐसा ख़्वाब है
जिस्म में ढलता ही नहीं
मेरा ही हमसाया
जो मेरे साथ चलता ही नहीं !
किस मोम से बना
मेरे ताप से पिघलता ही नहीं
कितना बे असर हो गया
ये दिल जो संभलता ही नहीं !
नम हो गया अंश वक़्त का
हाथ से फिसलता ही नहीं
जम गए नासूर वफ़ा के
अब मरहम फलता ही नहीं
************************
Added by rajesh kumari on September 26, 2012 at 10:30am — 16 Comments
Added by Neelam Upadhyaya on September 26, 2012 at 10:30am — 2 Comments
निस्बतें यूँ बढ़ीं हमसे ज़माने की हौले हौले
खुलती गईं सब तहें अफ़साने की हौले हौले
हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले
कीमतें कुछ यूँ बढ़ीं आशियानेकी हौले हौले
बस्तियोंमें भी नशा-सा होने लगा है सरेशाम
दीवारें टूटने लगी हैं मयखाने की हौले हौले
फर्क मिट गए हस्पतालों और होटलोंके अब
सूरतें बदल गईं हैं शिफाखाने की हौले हौले
ये कोई प्यार नहीं हैकि दफअतन हो जाता
आदतें आईं दुनिया से निभाने की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 26, 2012 at 8:42am — 6 Comments
कवि का काम है।
जो नहीं कहा गया हो,
अब तक जमाने में,
वो कहा जाये।
पिछला कहा हुआ
सच रहे,बचा रहे।
उससे आगे कुछ कहा जाये।।
आदमी बोलता रहे
आदमी चुप न होने पाये।
पानी से पत्थर को काटा जाये।
खुद को बार-बार डाँटा जाये।।
दूसरों से प्यार किया जाये
आदमी को आदमी ही रहने दिया जाये।
आदमी बहुत बेहतर है।
मशीन भी बनाई जाये।
लेकिन ज्यादा न चलाई जाये।
अपनी आँखों में ही,
सबकी आँखों को लाया जाये।
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।सुजान
Added by सूबे सिंह सुजान on September 25, 2012 at 11:30pm — 3 Comments
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही
धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही
शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को
समझ गए रिक्शे भी भीड़ के इशारों को
बच्चो के खेल सब कमरों में गए बिखर
ठिठक गए चौराहे भी खम्भों के इधर उधर
सुलग उठे हल्के हल्के बल्बों के मन उदास
शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का…
Added by ajay sharma on September 25, 2012 at 11:30pm — No Comments
मासिक वेतन मीत है पेंसन है सम्बन्ध |
जीवन अंधी खोह है न सूरज न चंद |
इअमाई लोन का है वेतन पर राज | |
टीडीएस इस कोढ़ को बना रहा है खाज|
कन्याये है कैजुअल लड़के अर्जित आवकाश | |
इक तरसती मोह को दूजा देता त्रास | |
काम सभी छोटे बड़े जब लगते है खास |
आकस्मिक की छुटिया करती है उपहास ||
आकस्मिक , अर्जित सभी जब हो गयी उपभोग |
मना रहे है छुटिया बना बना कर रोग | |
महगाई के बोझ से बोनस गया लुकाय |
ऐसे में एस्ग्रीसिया मरहम…
Added by ajay sharma on September 25, 2012 at 10:30pm — 1 Comment
वो लोगों के दिलों में झाँकता है |
वो कुछ ज्यादा ही लंबी हाँकता है ||
चला रहता है, वो कुछ खोजने को |
वो नाहक धुल-मिटटी, फाँकता है ||
न जाने, किस जहाँ में, है वो रहता |
वो अपनी, हद कभी न लाँघता है ||
परखता है, न जाने, किस तरह वो |
कसौटी कौन सी, पे जाँचता है ||
वो साँसों कि तरह, लेता है आहें ||
वो जब चादर, ग़मों कि, तानता है ||
वो कहता है कि, हर बन्दा, खुदा है |
खुदा को, कब खुदा, वो मानता है ||
'शशि' कुछ मशवरा, उस से ही ले लो |…
Added by Shashi Mehra on September 25, 2012 at 8:30pm — 1 Comment
रखा जो आपने रुख पे नकाब हल्का हल्का सा
चमकता चाँद दिखता आफताब हल्का हल्का सा
झुकी पलकें उठी दीदाबराई करने के खातिर
हया छलकी बढाने को शबाब हल्का हल्का सा
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 25, 2012 at 11:34am — 2 Comments
कभी कभी इस दिल में सिसक उठती थी,
की शायद वो दिन भी आयेंगे जब हम भी अपना घर बनायेंगे !
या फिर यूँ ही किराये के मकान में अपना सारा जीवन बिताएंगे !!
माता-पिता की जिम्मेदारियां इतनी थी की ऐसा ख्वाब भी उन्हें नसीब न था..
कभी हम भी यही सोचा करते थे की क्या हम भी कभी उनका हाथ बटा पाएंगे !!
जिम्मेदारियों के साथ-साथ बढ़ती महंगाई का साया था..
चाहते हुए भी कभी घर का सपना बुनना शायद सपने की परछाई थी !
माँ की बीमारियों के साथ, पढाई का खर्च भी उठाना था…
Added by Mukesh Sharma on September 24, 2012 at 11:06pm — 4 Comments
राह में पड़ी चट्टान ,
चढ़कर पार करूँ,या
इसे हटाकर नयी राह,
नया दस्तूर बना दूँ,
दोनी ही विकल्प,
खड़े सामने .......
...........................................
भविष्य की चिंता छोड़ ,
इतिहास बनाने हम .....
चले वर्तमान का ..
दामन थामने...
और जब चट्टान
हटा दी राह से ,
इतिहास पीछे खड़ा ,
सराह रहा था ..और
भविष्य सामने खड़ा
मुस्कुरा रहा था......!!!!!
रचनाकार -सतीश अग्निहोत्री
Added by Satish Agnihotri on September 24, 2012 at 10:30pm — 11 Comments
दिल्ली का तुम हाल तो देखो
सरकार की,
जनता को दी
सौगात तो देखो
एक ओर है बढ़ी मंहगाई
उस पर फिर भ्रष्टाचार
की मार तो देखो
बिजली ने जो हल्ला बोला
छीन गया सबका
मुहँ निवाला
हो गया फिर डीजल,
पेट्रोल भी महँगा
सबके घर का
बजट बिगाड़ा,
केरोसीन फ्री जो
दिल्ली किया है
महँगा फिर
एल पी जी किया है
जोर का झटका
होले दिया है
सारी जनता को
बेहाल किया है
ऐसा तौहफा…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on September 24, 2012 at 5:37pm — 3 Comments
"मन"
सुबह सुबह
चिड़ियों का कलरव
झरने का कलकल
ठंडी हवाओं के झोंके लयबद्ध तान
कोयल की कूक
मुर्गे की बांग
ये सब संगीत है या शोर
प्रकृति का
ये सब मन की दशा पे निर्भर है
कभी ये सब संगीत लगता है
पटरी पे दौड़ती
सरपट लोहपथगामिनी का
चीखता निनाद भी
और कभी इक सुई का गिरना भी
कर्कश स्वर सा
शोर सा
मन स्वाभविक वृत्तियों में जकड़ा हुआ है
किन्तु है…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 24, 2012 at 1:59pm — 10 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 24, 2012 at 11:30am — 24 Comments
Added by ajay sharma on September 23, 2012 at 10:30pm — 9 Comments
एक प्रयास 'मत्त सवैया' यानी 'राधेश्यामी छंद' का......
सरकार नहीं यह चेत रही, महँगाई जान जलाती है |
रोटी भी मुश्किल होय रही, दिन रात रुलाई आती है | |
हर पक्ष - विपक्ष नहीं अपना, सब अपना काम बनाते हैं |
हैं दुश्मन…
Added by VISHAAL CHARCHCHIT on September 23, 2012 at 10:05pm — 10 Comments
Added by Pushyamitra Upadhyay on September 23, 2012 at 9:53pm — 6 Comments
निश्चेष्ट धरा को
अपनी गोद में उठाए
समुद्र हाहाकार कर उठा
थरथराते होंठो से
अस्फुट से शब्द लहराए
अ...ब...और ...स...हा... न...हीं जा...ता..
वि...धा....ता!!
अशांत समुद्र ज्वार को
सम्भाल नहीं पा रहा था
फिर भी धरा को समझा रहा था
आओ सो जाते हैं
सब कुछ भूल जाते हैं
आदि से लेकर अंत तक
कहाँ रह पाए मर्यादित
मनुज की तृष्णा और लालसा से
सदैव रहे आच्छादित
आज जबकि काल की जिह्वा
लपलपा रही…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 23, 2012 at 9:37pm — 5 Comments
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