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दुःख

तृष्णा की कोख से जन्मा

वासनाओं के साये में पला

एक मनोभाव है दुःख ;

सांसारिक माया से भ्रमित

षटरिपुओं से पराजित

अंतस की करुण पुकार है दुःख ;

स्वार्थ का प्रियतम

घृणा का सहचर

भोगलिप्सा की परछाई है दुःख ;

वैमनस्य का मूल्य

भेदभाव का परिणाम

आलस्य का पारितोषिक है दुःख ;

अधर्म से सिंचित

अमानवीय कृत्यों की

एक निशानी है दुःख ;

कलुषित मन की

कुटिल चालों का

सम्मानित अतिथि है दुःख ;

निरर्थक संशय से उपजी

मानसिक स्थिति का

एक नाम…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 5, 2012 at 8:23pm — 22 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २४

ये जो शहरेवीराँ ये बस्तीएतन्हाई है  

आदमोहव्वाकी यही दौलतेआबाई है

 

चलिए रखके अपनी रफ़्तार पे काबू

ख्यालोंका शह्र है आबादीहीआबादी है  

 

कोई रोटी चाहे फूली, या न फूली हो

तवे से आखिर उतार ही दी जाती है

 

ख्वाबोंसे लाख बनाऊं घरौंदे जीने के

सफ़र लंबाहै और मुकाम इब्तेदाई है

 

तू फ़िक्रज़दा होती है तो यूँ लगता है

एक चिड़या है, बिल्ली से घबराती है

 

नसही तू तेरे नामसे वाबस्तगी सही

तुझसे…

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Added by राज़ नवादवी on August 5, 2012 at 7:00pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३२

कोई दिन यूँ ही उदास सा बारिश का, इक नीम के दरख्त सा खड़ा, बिना परिंदों का, न ही कोई फूल महकते, न ही कोई चिड़िया चहकती, बस बारिश की बूंदों को टपकाते ख्यालों से चुप, ऊँचाइयों को छूते शज़र, पानी और नमी से झुके-झुके.  

 

सुबह से बादलों के काले सायों का आँचल ओढ़ रखा है फ़ज़ा ने, घरों ने भी जैसे खामोशी की बरसाती ओढ़ रखी है, पहचाने घर भी पराए से लगते हैं. गली में कुत्ते भी भागते छुपते शायद ही नज़र आते, लोग भी कम ही दीखते हैं नुक्कड़ की दूकानों के इर्द गिर्द, गाड़ियों ने भी गोया आज…

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Added by राज़ नवादवी on August 5, 2012 at 3:30pm — 2 Comments

खून चूसना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है

जैसाकि हम सभी जानते हैं कि मच्छर खून चूसते हैं।बरसात के मौसम में गंदगी के कारण इनकी संख्या और भी बढ़ जाती है,ये हमें और भी पीड़ा पहुंचाने लगते हैं।कुछ समय पहले की बात है मच्छरों से पीड़ित कुछ उपद्रवी आन्दोलनकारी मच्छरों के खून चूसने की क्रिया पर प्रतिबंध की मांग करने लगे।वो "खून मत चूसो कानून" पारित करवाने की जिद पे अड़ गये।तत्कालीन कठमुल्ला भारत सरकार ने उन उपद्रवियों की जिद मानते हुए बिल पास कर दिया।मच्छरों के क्रिया-कलाप पर प्रतिबंध लगा दिया गया।उनकी गिरफ्तारियां होने लगी।उनसे सुरक्षा के लिए… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 5, 2012 at 2:00pm — 14 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
नेताजी (कुण्डलिया)

नेताजी (कुण्डलिया)
 

नेताजी का हो गया, कवियित्री से ब्याह,

नेतानी कविता लिखें, उनकी निकले आह,

उनकी निकले आह, सुनें जब भी वो दोहा,

लिखना विखना छोड़ पकाना सीखो पोहा,

चलो डार्लिंग किटी, रमी में जीतो बाजी,

समझाते हैं मस्त, नेतानी को नेताजी .......

Added by Dr.Prachi Singh on August 5, 2012 at 1:30pm — 28 Comments

निशब्द

खामोश हूँ

शांत सागर सी 
भीतर हलचल 
 
इक हूक 
सीने में उठती 
ज्वालामुखी सी 
 
प्यार किया 
दिल से चाहा
पर…
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Added by Rekha Joshi on August 5, 2012 at 1:24pm — 20 Comments

मित्रता दिवस को समर्पित छह दोहे

सारे रिश्ते देह के, मन का केवल यार

यारी जब से हो गई , जीवन है गुलज़ार



मन ने मन से कर लिया आजीवन अनुबन्ध

तेरी मेरी मित्रता  स्नेहसिक्त सम्बन्ध



मित्र सरीखा कौन है, इस…

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Added by Albela Khatri on August 5, 2012 at 1:00pm — 38 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये......

 

कैसे – कैसे मंजर आये प्राणप्रिये

अपने सारे हुये पराये प्राणप्रिये |



सच्चे की किस्मत में तम ही आया है

अब तो झूठा तमगे पाये प्राणप्रिये |



ज्ञान भरे घट जाने कितने दफ्न हुये

अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये |



भूखे - प्यासे हंसों ने दम तोड़ दिया

अब कौआ ही मोती खाये प्राणप्रिये |



यहाँ राग - दीपक की बातें करता था

वहाँ राग – दरबारी गाये प्राणप्रिये |



सोने…

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Added by अरुण कुमार निगम on August 5, 2012 at 10:31am — 12 Comments

हरिगीतिका छंद एक प्रयास.

(चार चरण, १६ + १२ =२८ मात्राएं और अंत में लघु गुरु)

 

हरि जनम हो मन आस  लेकर, भीड़ भई  अपार  है/

हरि भजन गुंजत चहुँ दिसी अरु,भजत सब नर नार हैं//

झांझ बाजै है झन झनक झन , ढोल की  ठपकार  है/

मुरली बाजत  मधुर  शंख  ही,  गुंजाय   दरबार …

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Added by Ashok Kumar Raktale on August 4, 2012 at 10:30pm — 11 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
कुछ कह मुकरियाँ

1.

उस बिन दुनिया ही धुंधलाए 

नयना दुख-दुख नीर बहाए,

है सौगात, नायाब करिश्मा,

ऐ सखि  साजन ? न सखी चश्मा l



2.

नज़र नज़र में ही बतियाए,

देख उसे मन खिल खिल जाए,

सुबह शाम उसको ही अर्पण,

ऐ सखि साजन? न सखी दर्पण l



3.

साथ बिताएँ रैन दोपहरी ,

बातें करता मीठी…
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Added by Dr.Prachi Singh on August 4, 2012 at 6:30pm — 33 Comments

"न जाने भला या बुरा कर रहा है"

न जाने भला या बुरा कर रहा है;

वो चिंगारियों को हवा कर रहा है; (१)



वो मग़रूर है किस कदर क्या बताएं?

हर इक बा-वफ़ा को ख़फ़ा कर रहा है; (२)



नहीं उसको कुछ भी पता माफ़ कर दो,

वो क्या कह रहा है, वो क्या कर रहा है; (३)



वो नादान है बेवजह बेवफ़ा की,

मुहब्बत में दिल को फ़ना कर रहा है; (४)



है जिसने भी देखा ये जलवा तेरा उफ़,

वो बस मरहबा-मरहबा कर रहा है; (५)



भुला दी हैं मैंने वो माज़ी की बातें,

तू अब बेवजह तज़किरा…

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Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on August 4, 2012 at 5:30pm — 26 Comments

कहानी ( जज़्बातों का जनाज़ा )

कहानी
 
जज़्बातों का जनाज़ा
6 अगस्त 2012 को मेरी प्यारी नानी का चवर्ख कुल्लू हिमाचल में होना निश्चित हुआ था I हम लोग देहली में रहते हैं , दफ्तर के कार्यों की…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 4, 2012 at 4:54pm — 5 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३१

ज़िंदगी क्या है? बचपन गुज़र गया, जवानी बीत गई, ज़ईफ़ी उफ़ुक़ (क्षितिज) पे आ चुकी है. बेफिक्री, नाइल्मी, मासूमी, और मौजोमस्ती के दौर अब रहे नहीं; मआशी (आर्थिक), इज्देवाजी (दाम्पत्य), इन्फिरादी (व्यक्तिगत), कुनबाई (पारिवारिक), और समाजी फिक्रों के तानेबानों में पल पल की राह ढूँढते रहते हैं. हमें किसकी तलाश रहती है, दिल क्यूँ कभी खुश तो कभी रंजोगम (दुःख और दर्द) से माज़ूर (व्यथित) होता है, इक ही सूरत को पहने माहौल कभी क्यूँ दिलकश तो कभी दिल पे गराँ (भारी) लगते हैं?

बच्चे छोटे थे…

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Added by राज़ नवादवी on August 4, 2012 at 2:10pm — No Comments

किसान

किसान,

प्रतीक अथक श्रम के

अतुल्य लगन के ;

प्रमुख स्तंभ

भारतीय अर्थव्यवस्था के,

मिट्टी से सोना उगानेवाले

आज उपेक्षित हैं

परित्यक्त हैं…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 4, 2012 at 10:45am — 12 Comments

हे मनुज! तुम दिया बनो

हे मनुज! तुम दिया बनो
वो दिया...जो जलता है
प्रकाश के लिए, 
नवनिर्माण के लिए,
भटके को राह दिखाने के लिए,
प्रभु की आराधना के लिए,
हे आर्य! आत्मसात कर लो
इसके गुणों को,
अपना लो इसका स्वभाव,
प्रतीक बनो क्रांति के आगमन का,
सूचक हो परिवर्तन का,
मिटा…
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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 3, 2012 at 10:00pm — 12 Comments

मर्यादा

अगर हम उन्हें अपना नहीं मानते 

तो ये रिश्ते बनते कैसे 

हर वक़्त हर पल , हम और तुम 

इश्क की आग में जलते कैसे 

क्यूँ दस्तक देती रोज़ हमारी चौखट पर

क्यूँ चौंकते हम रोज़ तुम्हरी आहट पर 

दर्पण में हर बार तुमहरा चेहरा था 

मन , जल में रह जल बिन सा था 

जब नाम खुदा का लेते थे , 

पर नाम तेरा ही आता था 

हर बार बुझी सी आँखों में…

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Added by Ashish Srivastava on August 3, 2012 at 9:00pm — 4 Comments

एकांत सुहाना लगता है

जिस राह में तुम साथ न हो ,

रास्ता वीराना लगता है

यूँ तो हजारों थे साथ मगर

फिर भी अकेलापन लगता है

जब तन्हाई में तनहा होता हूँ 

यादों की मुंडेर पर बैठकर

यादें चुनने लगता हूँ 

उस बिखरे सन्नाटे में

तुमसे बातें करने लगता हूँ 

जानता हु की तुम मुझसे दूर बहुत

लेकिन अहसास तुम्हारा लगता है

आंसू सूख गए शायद

या किसने रोका होगा

आँखों में सागर मुझको

बंधित…

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Added by yogesh shivhare on August 3, 2012 at 7:30pm — 9 Comments

अँधेरा

अँधेरा 

कदम खुद ही चलते हैं 
अँधेरे के निशा ढूंढ़ने !
रोक न पायें जब खुद को,
हम अँधेरे को क्यों दोष दें !
उजाला हर किसी की ओढ़नी
हम अँधेरे को ही ओढ ले !
उजालों ने थकाया हमें 
निगाहों ने लुटाया हमें !
कदमो ने…
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Added by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on August 3, 2012 at 6:30pm — 5 Comments

"टै" बोलने का इंतजार (लघुकथा)

बच्चे ने पूछा - दादी, आप भगवन को प्यारी कब होंगी ? बूढी दादी बोली-बेटा,भगवान् की पूजा करना ही अपने हाथ में है,बाकी सब भगवान पर है | बच्चे ने फिर पूछा- दादी आप "टै" कब बोंलेगी ? दादी कुछ देर विस्मय से बच्चे को गुहारती रही,फिर सोच कर बोंली- सौरभ बेटे "टै" बोलने से क्या होता है ? चल तू कहता है तो अभी ही बोल लेती हूँ -टै | इस पर सौरभ बोंला - दादी. रात को माँ पापा से कह रहा था कि आप नयी कार कब खरीदोंगे | मम्मी-पापा बात कररहे थे कि दादी के पास बहुत सारा धन है | पर जब वह "टै" बोल जायेगी तब ही…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 3, 2012 at 5:30pm — 13 Comments

कभी जब दिल से दिल का ख़ास रिश्ता टूट जाता है

कभी जब दिल से दिल का ख़ास रिश्ता टूट जाता है॥

तो फिर लम्हों में सदियों का भरोसा टूट जाता है॥

 

भले जुड़ जाये समझौते से पहले सा नहीं रहता,

मुहब्बत का अगर इक बार शीशा टूट जाता है॥

 

क़ज़ा की आंधियों के सामने टिकता नहीं कोई,

सिकंदर हो कलंदर हो या दारा टूट जाता है॥

 

कभी हिम्मत नहीं हारा जो मीलों मील उड़कर भी,

कफ़स में क़ैद होकर वह परिंदा टूट जाता है॥

 

यूं चलना चाहते तो है सभी राहे सदाक़त पर,

मगर…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on August 3, 2012 at 5:00pm — 15 Comments

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