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गीत : जब तुम बसंत बन थीं आयीं... संजीव 'सलिल'

गीत :

जब तुम बसंत बन थीं आयीं...

संजीव 'सलिल'

*

जब तुम बसंत बन थीं आयीं...

*

मेरा जीवन वन प्रांतर सा

उजड़ा उखड़ा नीरस सूना-सूना.

हो गया अचानक मधुर-सरस

आशा-उछाह लेकर दूना.

उमगा-उछला बन मृग-छौना

जब तुम बसंत बन थीं आयीं..

*

दिन में भी देखे थे सपने,

कुछ गैर बन गये थे अपने.

तब बेमानी से पाये थे

जग के…

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Added by sanjiv verma 'salil' on January 10, 2012 at 10:00am — 1 Comment

ग़ज़ल

सामान उठाते हैं

अब लौट के जाते हैं

दिल मेरा दुखाने को

अहबाब भी आते हैं

ये चाँद-सितारे भी

रातों को रुलाते हैं

जो टूट के मिलते थे

वो रूठ के जाते हैं

मैं उनका निशाना हूँ

वो तीर चलाते हैं

हम अपनी उदासी को

हँस-हँस के छुपाते हैं

की ख़ूब अदाकारी

पर्दा भी गिराते हैं

.......दीपक कुमार

Added by दीपक कुमार on January 10, 2012 at 12:25am — 10 Comments

सूरज भी कतराने लगा

बेवफा होना तेरा क्या क्या सितम ढाने लगा

अब तो मैं मंदिर में भी जाने से घबराने लगा

हो अलग तुमने जला डाली थी मेरी याद तक

मैं तेरी तस्वीर से दिल अपना बहलाने लगा

भोर की पहली किरण मैंने चुराकर दी जिसे

दूसरे के घर को अब वो फूल महकाने लगा

सर्द रातों में लिपट जाता था कोहरे की तरह

मैं बना सूरज तो दुःख का चाँद शरमाने लगा

घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई

मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा

 

 

 

………………………………….. अरुन…

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Added by Arun Sri on January 9, 2012 at 2:00pm — 4 Comments

तुम्हारी याद में..... तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारी याद मे........

मैं खोयी थी अपने इन्द्रधनुषी सपनों में

अचानक बादलों की एक गडगडाहट ऩे

मुझे तुमसे मिला दिया|

लेकिन मैं कभी मन से

तुम्हारी न बन सकी|

तुम्हारा नियंत्रण मेरी देह पर था,

परन्तु मन आज भी

उन्ही इन्द्रधनुषी सपनों मे

रंगा हुआ था |

धीरे धीरे हमारे बीच दूरियाँ बढ़ने लगी,

बात बेबात तकरारे बढ़ने लगी,

आँगन मे गुलाब के साथ

कैक्टस भी फलने फूलने लगा|

और एक दिन

जब तुम चले गए

मुझे छोड़कर तन्हा

कहीं दूसरे…

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Added by dr a kirtivardhan on January 8, 2012 at 9:00pm — 1 Comment

सपना

सपना ---

लंगड़े की बैशाखी,बच्चे का खिलौना,

रेल आई -रेल आई,लेकर दौड़ा छोना |

.

सुख की परिभाषा उस बच्चे से पूछो,

ना खाने को रोटी,ना सोने का बिछोना|

.

खेलता है फिर भी,रुखी रोटी खा,

मांगता नहीं वह कार या खिलौना|

.

देखा है मैंने उसको सपने सजाते,

खुले गगन तले चाहता है वह सोना|

.

धरती से अम्बर उसकी सीमाएं हैं,

देखता है सबको रोटी का वह सपना|

.

.

डॉ अ कीर्तिवर्धन…

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Added by dr a kirtivardhan on January 8, 2012 at 8:30pm — 8 Comments

कोख का दर्द



मेरी कोख नहीं हुई

अभी तक उजली

क्योंकि उसने दी नहीं…

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Added by mohinichordia on January 8, 2012 at 8:47am — 8 Comments

अमीरी और गरीबी की समीकरणें

इंसान खोज चुका है वे समीकरणें

जो लागू होती हैं अमीरों पर

जिनमें बँध कर चलता है सूर्य

जिनका पालन करती है आकाशगंगा

और जिनके अनुसार इतनी तेजी से

विस्तारित होता जा रहा है ब्रह्मांड

कि एक दिन सारी आकाशगंगाएँ

चली जाएँगी हमारे घटना क्षितिज से बाहर

हमारी पहुँच के परे

ये समीकरणें रचती हैं एक ऐसा संसार

जहाँ अनिश्चितताएँ नगण्य हैं



खोजे जा चुके हैं वे नियम भी

जिनमें बँध कर जीता है गरीब

जिनसे पता चल जाता है परमाणुओं का… Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 7, 2012 at 11:58pm — 3 Comments

चंद फुटकर शेर :

अंदाज़ क्या खूब हैं उनकी नज़रों के या रब,

किस अंदाज़ से वो नज़र अंदाज़ किया करते हैं |
                    -x-
अदा होती गयीं ज्यों-ज्यों वफ़ा की किश्तें,
और भी साफ़ होते गए स्वार्थ के रिश्ते |
                    -x-
एक बस में बैठ, माँ तो चली गयी अपने घर,
मेरा मन अब भी रोता भटकता, बस-स्टैंड पर |
                    -x-
दिन भर…
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Added by AjAy Kumar Bohat on January 7, 2012 at 9:00pm — 6 Comments

रामलू- लघु कथा.

मेरे गाँव का रामलू .बचपन से ही जरा आपराधिक प्रवृत्ति का था.बड़ा हुआ तो पुलिस यदा-कदा उसके पीछे रहती थी. कुछ दिनों बाद वह गायब हो गया.कालान्तर में एक घटना हुई .मै शहर किसी काम से गया.वहां किसी बाबा का प्रवचन चल रहा था.उत्सुकतावश ,भीड़ देख मै भी पंडाल में घुस गया.कड़ा पहरा था मंच के इर्द-गिर्द.बाबा पे मेरी नज़र पड़ी तो मै..अवाक्!!! अरे!ये तो अपना रामलू ही है!!!! इतना बदल गया!!
जो नहीं बदला वो ये कि-मंच पर पुलिस अब भी उसके पीछे थी.
--अविनाश बागडे.

Added by AVINASH S BAGDE on January 7, 2012 at 7:00pm — 2 Comments

उन्हें देख कर सूरत पे जलाल आए

जब भी तुझको पाने का ख्याल आए |

पाए किस तरह ज़हन में सवाल आए ||

.

छोड़ कर हिया वो आ लगे गले से ,

जब उनसे हम पूछने उनका हाल आए |

.

बिन उनके तो हम बैठे रहें बुझे से ,

उन्हें देख कर सूरत पे…

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Added by Nazeel on January 7, 2012 at 12:00pm — 3 Comments

पहले सी मासूमियत

याद आता है

अपना बचपन,

जब  हम उड़ान में रहते थे

बेफिक्री के असमान में रहते थे

दिन गुजरता था बदमाशियों में

पर रात अपने ईमान में रहते थे !

याद आता है,

दिन भर तपते सूरज को चिढाना

आंधियो के पीछे भागना

उनसे आगे निकलने की कोशिश करना

जलती तेज हवाओं से हाथ मिलाना,

और फिर ..............

पता ही नही चला कि

कब माँ की कहानियों की गोद से उठकर

हमारी नींद सपनो के आगोश में चली गई !



दिन से अच्छी थी रातें

हमेशा से

और…

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Added by Arun Sri on January 7, 2012 at 11:00am — 6 Comments

सामयिक दोहे

सामयिक दोहे:-
------------   ---------- 

कमर-तोड़ महंगाई पे,बारम्बार चुनाव!

एक गोद में सिसक रहा,उसपे भारी पांव.
------------   ----------   -----------------  --
फिर चुनाव आये सखी,झरने लगे बयान.
अपने-अपने नेता है,अपनी-अपनी तान.
------------   ----------   -----------------  --
लोकपाल है शोक में,जोक मारते लोग.
खुद होकर पाले नहीं ,नेता कोई रोग.
------------   ----------  …
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Added by AVINASH S BAGDE on January 6, 2012 at 7:58pm — 15 Comments

प्यास बुझती नहीं ..

प्यास बुझती नहीं ..

देश था परतंत्र

गुजरे ज़माने की बात है

मुद्दतों बाद तुमसे मुलाकात है.

गुलामी की ज़ंजीर डली थी पाँव मे.

तपती धूप

दोपहरी जेठ की

कौन बैठता था छाओं में.

पर प्यास तो थी

जीभ पर नहीं

ज़हन में…

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Added by Dr Ajay Kumar Sharma on January 6, 2012 at 12:00pm — 3 Comments

तुझ बिन ...

तुझ बिन जिंदगी हमसे, कुछ ऐसे फिसल रही है ,

ज्यों कतरा कतरा जान, हर दम निकल रही है .



हर आहट पे तू आया, गफलत मुझे सताती ,

ख्वाबों से घायल नींदें , हर पल संभल रही है .



तुझे बेवफा जो कहते, वो लोग हैं बहुत से ,

लोगों को तू दिखा दे, वो वफ़ा मचल रही है .

.

मैं जानता हूँ जानम , तेरी मजबूरियों को ,

तू एक बार आ जा, मेरी…

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Added by Dr Ajay Kumar Sharma on January 5, 2012 at 4:49pm — 3 Comments

मेरे मन

मेरे मन  !

तुमने अपनी खुशी खो दी ?

मायूस हो गये,

मुर्झा गये ?

किसी ने तुमको झिड़का

या दर्द दिया,

अपमानित, प्रताड़ित किया और

तुमने घुटने टेक दिये, क्यों ?

क्यों किसी की ओछी बातों से ,

अपशब्दों की बौछार से,

कठोर शब्दों के तीरों से

छलनी हो गये ?

कमज़ोर हो गये ?

समझना, वो शब्द

तुम्हारे लिए थे ही नहीं  

सिर्फ किसी को अपने

दिल की कड़वाहट निकालने का

माध्यम मिल गया था ।

सुना…

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Added by mohinichordia on January 4, 2012 at 3:30pm — 7 Comments

छन्न पकैया , मेहनत की है रोटी

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी से प्रभावित होकर मैंने भी  छन्न पकैया  में  कुछ लिखने का प्रयास किया है. मेरी मूल रचना में कुछ कमियाँ थी जो योगराज जी ने सुधारी, योगराज सर आपका बहोत बहोत शुक्रिया. वरिष्टजनों का मार्गदर्शन चाहूँगा !

 

.

छन्न पकैया , छन्न पकैया , मेहनत की है रोटी,

कहने को युवराज है, लेकिन बाते छोटी-छोटी ||१||

.

छन्न पकैया, छन्न पकैया , खूब बड़ी महंगाई

कुर्सी पे हाकिम जो बैठा , शुतुरमुर्ग है भाई…

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Added by shashiprakash saini on January 4, 2012 at 2:30pm — 17 Comments

बेटियाँ – छन्न पकैयावली

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी द्वारा इस मंच पर लाई गई इस विलुप्तप्राय विधा से प्रेरित हो मैंने भी चरणबद्ध तरीके से एक बेटी से सम्बंधित कटु सत्यों को रेखांकित करने प्रयास किया है ! वरिष्टजनों का मार्गदर्शन चाहूँगा !

 

 

छन्न पकैया छन्न पकैया सबकी है मत मारी

सर को पकड़े बैठ गए सुन बेटी की किलकारी

 

छन्न पकैया छन्न पकैया छीना है हर मौका

छोड़ पढाई नन्ही बेटी, करती चूल्हा चौंका 



 

छन्न पकैया छन्न पकैया जीवन भर…

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Added by Arun Sri on January 4, 2012 at 2:00pm — 17 Comments

कविता -नव युग की कामना

 ***********************************       
      नव युग की कामना 
**********************************

बीते कल का फ़साना                                          

नहीं दोहराना है जनाब 
नये युग का तराना 
अब गुनगुनाना है जनाब…
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Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on January 4, 2012 at 2:00pm — 10 Comments

क्या जलना नहीं आता..?

क्या जलना नहीं आता..?



जो लिखना चाहता था

वो चाहकर लिख न पाया

जो लिखता रहता हूँ

वो दिल को कहाँ भाता

यह मेरी…

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Added by Deepak Sharma Kuluvi on January 4, 2012 at 12:38pm — 9 Comments

चार रचनायें.....

  • (१) भूख

कभी-कभी मैं सोचता हूँ की

ये रोटियाँ, रोटियाँ न हो कर

जैसे कोई रबड़ हैं

जो मिटा देती हैं

भूख को,

लेकिन असल समस्या

तो उस कलम की है

जो लिखती जा रही है,

भूख, भूख, भूख.....

  • (२) मेरा नाम

मुक़द्दर में तू कैसे-कैसे ईनाम लिखता है

कहीं की सुबह, कहीं की शाम लिखता है |

करूँ तो करूँ कैसे तेरी इनायतों का शुक्रिया

कहाँ-कहाँ की रोटियों पे तू मेरा नाम लिखता है…

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Added by AjAy Kumar Bohat on January 3, 2012 at 7:00pm — 10 Comments

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