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All Blog Posts (19,126)

पीड़ा

प्रिय ! कुछ अव्यक्त पीड़ा

तुम समझ पाते

यदि तुमसे कह दूँ

ये मेरा प्रेम न होगा

अन्तर्मन कर रहा यह

सस्वर करुण पुकार

तुम से छिपा कर

कुछ जख्म सी लिए हैं

कुछ अभी भी बाकी है

स्नेह मरहम रख देते

उन जख्मों पर

सपनों को सँजो लेते

मिल कर बुने थे जो

बनाने को नवनीड़

सुनीड़ दुर्लभ सा

मांग लूँ तुमसे

ये मेरा प्रेम न होगा

प्रिय ! कुछ अव्यकत पीड़ा ......... अन्नपूर्णा बाजपेई

 

मौलिक…

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Added by annapurna bajpai on August 1, 2013 at 7:18pm — 10 Comments

दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

मेरे मन का तुम आकर्षण हो

इस ह्रदय का तुम स्पंदन हो

तुम कुमकुम हो तुम चन्दन हो

तुम ताजमहल से सुन्दर हो

 

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो

दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

 

तुम ही हो मेरा प्रेम राग

तुम ही हो मेरी प्रेम आग

मै भ्रमर बना तुम हो पराग

तुम मन मंदिर का हो चिराग

 

बस तुम ही मेरी प्रियतम हो

दुनिया में तुम सुन्दरतम हो

 

तुम ध्येय मेरे जीवन का हो

तुम ध्यान मेरे प्रतिपल का…

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Added by Aditya Kumar on August 1, 2013 at 6:43pm — 5 Comments

जब जब नये फूल आते |

आती है जब ग़म की आँधी  , डूबता खुशी का किनारा | 
मंजिल पाने की चाहत में , कोई जीता या हारा |
कुछ सोचें कुछ हो जाता है , मारा जाता है बेचारा |
हार जीत के लालच  में  ही , बस…
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Added by Shyam Narain Verma on August 1, 2013 at 2:26pm — 9 Comments

मन में भरे मिठास (दोहे)

धन की खटिया छोड़ दे, मोह नहीं रख पास

तन मन चंगा रख सके, मन में भरे मिठास |

 

समय मौत ग्राहक कभी, आ टपके अनजान

इन्तजार करना नहीं, इनकी फिदरत जान |

  

मात पिता स्व यौवन का,सदा करे सम्मान, 

जाने पर फिर ना मिले,सहजे रखकर ध्यान | 

 

छोडो चिंता अतीत की, चिंतन में हो आज,

समय व्यर्थ गँवाय नहीं, झट निपटावे काज |

 

उत्तम संग संगीत का, संत संग हो बात,

दोस्त बने सह्रदय के, दुनिया को दे मात |

 

विद्या…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 1, 2013 at 1:30pm — 19 Comments

लघु कथा - झूठ

अजान सुन हामिद की नींद खुली, उसे याद आया कि उसके मालिक ने आज रात वध हेतु एक गाय लाने को कहा है. हामिद मालिक से पैसे ले बाजार से गाय खरीदकर आ रहा था. रास्ते में हामिद कभी गाय को पानी पिलाता तो कभी हरी घास खिलाता । गाय को बृक्ष की छाया में बांध खुद भी आराम करने लगा .थके होने के वजह से  उसकी आँख  लग गयी. अचानक आँख खुलने पर वह घबरा कर गाय ढूंढने लगा, तभी उसकी नजर मंदिर के अहाते में गाय पर पड़ी. वह गाय को…

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Added by shubhra sharma on August 1, 2013 at 11:30am — 25 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल :अरुण कुमार निगम

ये माना चाल में धीमा रहा हूँ

मगर जीता वही कछुवा रहा हूँ ||

बुझाई प्यास कंकर डाल मैंने

तेरे बचपन का वो कौवा रहा हूँ ||

कभी बख्शी थी मेरी जान उसने

छुड़ाया शेर को,चूहा रहा हूँ ||

कुँये में शेर को फुसला के लाया

बचाई जान वो खरहा रहा हूँ ||

मेरे बचपन न फिर तू आ सकेगा

तेरी यादों से दिल बहला रहा हूँ ||

आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)

शम्भूश्री अपार्टमेंट,विजय नगर,जबलपुर…

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Added by अरुण कुमार निगम on August 1, 2013 at 8:48am — 12 Comments

मुझमें बसी मेरी कविता है तू

"रचा न जिस वास्ते तुझे खुदा ने

उस रंग में कभी खुद को न रंग

दुनियादारी है रवायत दुनिया की

दुनियादार न बन दुनिया के संग

निश्चल ये दिल है ,चंचल जैसे

छलछल कलकल बहता पानी है

थम न जाना किसी मराहिल पे

दरिया की तो रविश ही रवानी है

खिलखिलाते देखता हूँ तुझे जब भी

याद आता है मुझको अपना बचपन

क्या बख्त होगा उस घर आँगन का

तेरे क़दमों से जो हो जायेगा गुलशन



खुदा न बशर ,न हूर न फ़रिश्ता है तू

अन्तर्मन में…

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Added by Kedia Chhirag on August 1, 2013 at 8:30am — 2 Comments

ग़ज़ल

मैं वाकिफ हूँ ,हकीकत से, ज़माने की 

इसे आदत, है चिढ़ने की,चिढ़ाने की ...

.

बहुत मुश्किल हुनर है ये , भला सब को 

कहाँ आती कला रिश्ते निभाने की ...

.

सज़ा क्या दूँ तुम्हें आखिर बताओ तो 

मेरी आँखों से नींदों को चुराने की ...

.

बयां इक शेर में, हो सकता है जब सब 

ज़रूरत क्या तुम्हें किस्सा सुनाने की ..

.

इसे महसूस करिएगा…

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Added by Ajay Agyat on August 1, 2013 at 6:00am — 7 Comments

इक दिन

न था मैं तो भी जीवन था
न होउंगा तो भी जीवन रहेगा |
जीवन तो पाल है नाव की
धारा नहीं हवा के साथ बहेगा |

मेरा अक्स बन जाएगा इक दिन
टंगी हुई तस्वीर की तरह |
जिनकी वजह से हर्फ़ होंगे खामोश
जीने की वजह मेरा नाम न रहेगा|

मैं करता रहा अनदेखी, लगता रहा
नूर पे हर रोज़ एक ग्रहण |
क्यों चाँद को लाये नूर और मेरे बीच,
आँख का मेरे हर सितारा कहेगा|

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 1, 2013 at 1:00am — 1 Comment

सॉनेट/ आँधी

एक सुनहरी आभा सी छायी थी मन पर

मैं भी निकला चाँद सितारे टांके तन पर

इतने में ही आँधी आयी, सब फूस उड़ा

सब पत्ते, फूल, कली, पेड़ों से झड़ा, उड़ा

धूल उड़ी, तन पर, मन पर गहरी वह छाई

मन अकुलाया, व्याकुल हो आँखें भर आई

सरपट भागें इधर उधर गुबार के घोड़े

जैसे चित के बेलगाम से अंधे घोड़े

कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई

कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई

छप्पर, बाग, बगीचे, सब थे सहमे बिदके

मैं भी देखूँ इधर उधर सब ही थे…

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Added by बृजेश नीरज on July 31, 2013 at 10:00pm — 31 Comments

कुण्डलिया छंद [ तीज]

खुशियाँ लाया तीज है , गाएं गीत मल्हार
आंगन पींगों से सजे , झूलें कर श्रृंगार||
झूलें कर श्रृंगार ,ओढ के लाल चुनरिया
चूड़ियाँ हरी लाल , पहन झूमती गुजरिया||
आया श्रावण माह ,माँ ने पीहर बुलाया
मिले प्रेम उपहार, तीज है खुशियाँ लाया||

******************

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Sarita Bhatia on July 31, 2013 at 9:30pm — 9 Comments

आ जाओ

आकाश में काली घटा छाई,

आज फिर तुम्हारी याद आई।

लगा तुमने जैसे मुझे छू लिया,

जब चली झूमकर ये पुरवाई।

मन्द -मन्द चली शीतल पवन,

मन में जल उठी विरह-अगन।

मन को शीतल करने के लिए

वर्षा में भिगोया मैंने अपना तन।

नन्हीं-नन्हीं -सी बूँदें,ये जल की,

और मेरे विरह की ये जलन बड़ी।

अब तो आकर मुझे लगा लो अंग,

बस यही सोच रही  मैं खड़ी -खड़ी।

जाने कब साकार होगी ये कल्पना,

कब होगा पूरा मेरा सुन्दर सपना?  

है जो मुझसे अभी तक  पराया-सा,…

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Added by Savitri Rathore on July 31, 2013 at 7:30pm — 2 Comments

इक दिया तुमने जलाया होता

इक दिया तुमने जलाया होता 

तम जरा सा ही हटाया होता 

हिन्द में रहते सभी हिंदी हैं 

भेद मजहब का मिटाया होता

 

साथ जीने में मजा आता है 

पाठ सबको ये पढ़ाया होता 

गर खता हमसे हुई माफ़ करो 

वाकया गुजरा भुलाया होता 

कुछ खुदा की यूं इबादत करते 

रोते बच्चे को हसाया होता 

चीरते हो बस मही का सीना 

गुल से आँचल भी सजाया होता 

दूध जिस माँ का पिया है तुमने

कर्ज  कुछ उसका…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on July 31, 2013 at 6:30pm — 12 Comments

बेबसी (कहानी)

            श्याम खुद को बहुत खुशकिस्मत मान रहा था | बात थी भी ऐसी, वो भयानक रात और दो दिन तक मची तबाही का मंजर एक पल के लिए भी तो उसकी आँखों से नहीं हटा था | जहाँ-तहां लाशे बिछी हुई थी और हर तरफ चीख पुकार |

श्याम अपनी पत्नी सुनीता चार बच्चो का पेट पालने के लिए एक खच्चर के सहारे खच्चर में माल ढोने का काम करता है और हर साल यात्रा सीजन में केदारनाथ परिवार सहित केदार बाबा की शरण में पहुँच जाता था | जहाँ पत्नी फूल प्रसाद बेचा करती है, और बच्चे होटल में बर्तन धोने का का काम और वो खुद खच्चर…

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Added by दिव्या on July 31, 2013 at 4:29pm — 7 Comments

तुम मेरी कौन हो

अनंत मनोभाव जब,

शब्द से क्यों मौन हो ?

तुम मेरी कौन हो ?

 

किंचित मुझे भी ज्ञान है,

किंचित जो तुमसे ज्ञात हो,

अनुत्तरित सा प्रश्न ये,

उत्तरित हो जाय, कि

आभास से समीपता,

पर दृष्टि से क्यों गौण हो ?

 

लगता मुझे कि ब्रह्म-सी,

नेत्र-शक्ति से परे,

अनुभवीय मात्र हो !

आत्मदर्शनीय, किन्तु

बाह्य हींन गात्र हो !

 

सत्य क्या ? पता नही,

किन्तु, कुछ अनुमान है…

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Added by पीयूष द्विवेदी भारत on July 31, 2013 at 4:04pm — 4 Comments

गरीब की भूख

आज सुबह मेरे दोस्त ने मुझे फोन किया  और कहा की आज एक विषय पर कहानी लिखो -गरीब की भूख , मुझे थोड़ी हैरानी हुयी, "ये क्या ! आज ये क्या विषय दे दिया 'गरीब की भूख ', ये तो निबन्ध लिखने का विषय है, इस पर कहानी कैसे लिखी जा सकती है "...थोडा विरोध था मन में, मगर जाने क्या हुआ, मैंने सोचा "चलो रहने देते है, देखते है, आज अपनी प्रतिभा को भी आजमाते है .... 
.
उसके बाद मैं अपने कार्यालय के लिये चल पड़ा, मगर आज मन बेचैन था, आखिर गरीब की भूख पर कोई कहानी…
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Added by Sumit Naithani on July 31, 2013 at 4:00pm — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४० (ओ मेरी नायिका)

ओ मेरी नायिका

-------------------

मोहिनी अदाएं,

मारक निगाहें,

कामिनी काया...

गजगामिनी, ऐश्वर्या,

गर्विता, हंसिनी,

हिरणी, सुगंधिता,

रमणी, अलंकृता,

मंजरी, प्रगल्भा, ....

क्या क्या कहूं तुझे.

 

मेरे प्रेम भाव का अवलम्ब,

अपने सौन्दर्य और यौवन से

मुझमें रति भाव जगाने वाली,

और अपनी अनुपस्थिति में

नित प्रतिदिन के कामों से विमुख कर

अपनी ही स्मृतियों के कानन में

मुझे…

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Added by राज़ नवादवी on July 31, 2013 at 3:32pm — No Comments

महिमा पैसो की

महिमा पैसो की

******************************

पर पैसो के मैने तो देखे नही ।

फिर क्यू वो कही पे ठहरता नही ॥

पकडते है दोनो हाथो से सभी ।

पर पकड मे किसी के वो आता नही ॥......... फिर क्यू वो कही पे ठहरता नही ॥…

Continue

Added by बसंत नेमा on July 31, 2013 at 3:30pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-५३ (स्लौटर हाउस)

रात के ग्यारह बजे मैं और मेरे दोस्त रदीफ़ भाई भोपाल से दिल्ली एअरपोर्ट पहुंचे! रदीफ़ भाई को जो रोज़े पे थे कल सुबह ‘सहरी’ करनी थी सो लिहाज़ा हम पहाड़गंज के एक ऐसे होटल में रुके जहाँ सुबह के तीन बजे खाना मिल सके. होटल पहुंचते- पहुंचते रात के बारह से ज़्यादा बज गए. सामान कमरे में रख मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की और चल पड़ा जो पास ही था- अपने कॉलेज के दिनों की कुछ यादों से गर्द झाड़ता हुआ. कुछ भी क्या बदला था- वही ढाबों की लम्बी कतार, जगह-जगह उलटे लटके तंदूरी चिकन की झालरें, तो कहीं शुद्ध…

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Added by राज़ नवादवी on July 31, 2013 at 9:26am — 2 Comments

ग़ज़ल : अरुन शर्मा 'अनन्त'

उमर भर साथ तू शामिल रही परछाइयों में,

सहा जाता नहीं है दर्द-ए-दिल तन्हाइयों में,

जरा सी बात पे रिश्ता दिलों का तोड़ते हैं,

उतर पाते नहीं जो प्यार की गहराइयों में,

भला इन्सान कोई दूर तक दिखता नहीं है,

बुराई घुल रही तेजी से है अच्छाइयों में,

जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,

जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,

निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,

गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 30, 2013 at 8:30pm — 22 Comments

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