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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २८

जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई

नदी समन्दर के पास आकर मर गई

 

रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया

दिन निकला तो लंबी रात किधर गई

 

आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच

इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई

 

दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे

अबके बरस छत की कलई उतर गई

 

जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें

दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई  

 

हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे

इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई…

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Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 11:43pm — 18 Comments

" समय "

समय के साथ सब बदलता गया , यादें धुंधली होती चली गयी. वो दिन जब स्कूल जाने की चिंता तो थी ; मगर उसी के साथ बेफिक्र ज़िन्दगी जिसमे न तो घर गृहस्ती की चिंता और न ही काम धंधे की फिक्र थी. ये कहानी राजस्थान के एक ऐसे गरीब ब्राह्मन परिवार के लड़के की है जिसका नाम " रवि " था , मगर जो अपने परिवार में रौशनी नहीं कर सका .माँ बाप ने उसके लिए अपनी सारी जिंदगी यूँ ही गुज़ार दी .. समय बीतता चला गया वो अपनी जिंदगी के २१ साल पूरे कर चुका था और उसे जिस मुकाम पर पहुंचाने का सपना उसके माँ बाप का था वो कभी पूरा…

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Added by Mukesh Sharma on September 17, 2012 at 11:00pm — 6 Comments

निरा बेवकूफ

सचिवालय के बड़ा बाबू सिन्हा साहब के घर पुलिस आई हुई थी | उनके लड़के को गिरफ्तार करने के लिये | लड़का बी.ए पार्ट वन का छात्र था और उसपर अपनी सहपाठिन के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में झूठी गवाही देकर अदालत को गुमराह करने, साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने तथा भोले-भाले निर्दोष युवकों पर बेबुनियाद इल्जाम लगा के उन्हें फंसाने की साजिश करने का आरोप साबित हो चुका था |

घर के बाहर मोहल्लेवालों की अच्छी-खासी भीड़ जमा थी | पड़ोस के शर्मा जी भी अपने कुछ जान-पहचानवालों के साथ खड़े ये तमाशा…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 17, 2012 at 9:11pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २७

क्या अदा वो खामुशीसे हर ख्याल पूछे है

इक नज़रसे ही सारे दिल का हाल पूछे है

 

राहगीरोंको भी खबर कुछहै हमारे इश्ककी

वरना, क्या थी रकीब की मजाल, पूछे है

 

वो समझ पाता जो खुद राज़ वा करनारहे

है बहुत आसाँ कि सवालपे सवाल पूछे है   

 

हो गुरूर हुस्नपे पे इतना नहींकि एकदिन

जाती बहारसे पतझड़ उसका ज़वाल पूछेहै  

 

रोज़ तुलूअ होना और फिर गुरूब होजाना

आफ्ताबोमेह्र देखके तू क्या कमाल पूछे है…

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Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 8:30pm — No Comments

मेरा दर्द

बहार आने पे चमन में फूल खिलते हैं 
जब तलक महक औ रंगे जवानी हो 
संग चलने दिल मिलने को मचलते हैं 
छाती है जब खिजां गुलशने ए बहारां में 
पराये तो क्या अपने भी रंग बदलते हैं 
था अकेला चला काफिला बढ़ता गया 
मकसद एक कभी जुदा जुदा 
जमाने का भी अब बदला चलन यारों 
मिल गयी उन्हें मंजिले मक़सूद 
मील के पत्थर के मानिंद मैं तनहा रह गया 

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on September 17, 2012 at 7:00pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नभचर रोये सारी रात

 कल रात फिर यही हुआ बादलों और दामिनी ने कहर  ढाया मूसलाधार पानी बरसा घर के पीछे की दीवार से लगा पेड़ जिस पर परिंदों का बसेरा था चरमरा कर टूट गया अचानक बहुत दिन पहले लिखी ये कविता जो मेरी कविता संग्रह ह्रदय के उद्द्गार मे भी प्रकाशित हुई ,याद आ गई आदरणीय admin जी की अनुमति हो तो कृपया पोस्ट करदें आपकी आभारी| 

बादलों ने कहर बरपाया…

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Added by rajesh kumari on September 16, 2012 at 6:22pm — 12 Comments

मैं चाँद सा सुंदर हुआ नहीं....

मेरे कमरे की खिड़की से खुला आकाश दिखता है,

कल रात ही मैंने ये महसूस किया की,

तारों से भरे काले आकाश में,

एक चाँद हर रोज इंतज़ार मेरा करता है,



लेटे लेटे ही अपने बिस्तर पर,

मैं बातें उससे अक्सर किया करता हूँ,

वो भी रूप बादल हर रोज आता है,

अभी चंद रोज पुरानी ही है मुलाक़ात हमारी,



तब छोटा सा ही तो था, फिर बढ़ते…
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Added by पियूष कुमार पंत on September 16, 2012 at 9:30am — 4 Comments

हिन्दी की दुर्दशा....

मोम सी कोमल ही थी वो माँ,

जो अब मॉम कहलाने लगी है,

अच्छा भला, चलता फिरता, हिलता डुलता,

पिता न जाने कैसे डैड हो गया है.....

ये अंग्रेजी के खेल में, ये शब्दों के मेल में,

हिन्दी से बच्चा आज कुछ दूर हो चला है,

ये व्यवसायिकता की होड है,

ये आधुनिकता की अंधी दौड़ है,

अपनी मातृभाषा से जिसने दूर किया है,

यही अनदेखी एक दिन,

बहुत हम सब को  रुलाएगी,

जब सारे रिश्ते, सारे नाते और सारे संस्कार,

ये…

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Added by पियूष कुमार पंत on September 15, 2012 at 9:49pm — 1 Comment

दरख्त

जीवन की थकान ,लम्बी राह

और वो छोटी छोटी सी पगडंडियाँ ,

जो पहले से नहीं बनी थी

मुझे राह दिखने ..

मेरे थके हुए पैरो ने ..

बना ली थी .उस मंजिल

की चाह में जो अंतहीन थी

वो तपती धूप और

पैरो के छाले..

टीस नहीं उठती यह सोचकर ...

हाँ टीस उठती है ,की

वो दरख्त देखता रहा , जड़ वहीँ

और मेहरूम  रहा….. मै भी

उसकी छाव से …..

मुसाफिर हूँ यही सोचकर

रचनाकार -सतीश…

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Added by Satish Agnihotri on September 15, 2012 at 9:00pm — 6 Comments

चाँद का जीवन....

चाँद का जीवन भी,

कितना मोहक है,

अद्भुद कितना है,

ये चाँद का जीवन, 



जन्म से ही दिखता है,

जैसे एक चेहरा मुस्कुराता हुआ,…

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Added by पियूष कुमार पंत on September 15, 2012 at 7:35pm — 1 Comment

सम्पूर्ण ओ बी ओ परिवार की ओर से आप सभी मित्रों को अभियंता दिवस की हार्दिक बधाई !

(गीतिका छंद आधारित मुक्तक)

हो बधाई बंधु अग्रज, याद अब प्रतिदिन यहाँ.   

जन्मदिन शुभ आपका मिल, कर मनाते जन यहाँ.

आप मानक थे यहाँ इं-,जीनियर के रूप में. 

विश्वेश्वरैया मोक्षगुंडम, सर नमन वंदन यहाँ..

--अम्बरीष श्रीवास्तव

Added by Er. Ambarish Srivastava on September 15, 2012 at 1:52pm — 7 Comments

हमारी मातृ भाषा

जान अपनी
पहचान अपनी
है हिंदी भाषा
.................
खाते कसम
हिंदी दिवस पर
है अपनाना
.................
हिंदी हमारी
मिले सम्मान इसे
है मातृ भाषा
.................
शान यह है
भारत हमारे की
राष्ट्र की भाषा
.................
मित्र जनों को
हिंदी दिवस पर
मेरी बधाई

Added by Rekha Joshi on September 14, 2012 at 2:35pm — 7 Comments

इस जग में जो सबसे सुन्दर वो मेरी भाषा हिंदी है

हिंदी दिवस की शुभकामनाओं सहित ये रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ





ये गंगा सी निर्मल पावन ये स्वर रुपी कालिंदी है

इस जग में जो सबसे सुन्दर वो मेरी भाषा हिंदी है



ये सुन्दर सरल सजीली है,

भाषा ये बहुत सुरीली है

ये नव रस और छंदों से युक्त

मन भावन मधुर पतीली है



ये भारत माँ के माथें में सूरज सी दमके बिंदी है

इस जग में जो सबसे सुन्दर वो मेरी भाषा हिंदी है



ये प्रेम की मीठी भाषा है

भारत की प्राण पिपासा…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 14, 2012 at 1:02pm — 7 Comments

हिंदी - हिंदी दिवस

एक मेरी कल्पना , एक मेरी अर्चना
हिंदी में ही स्वर सजें, हिंदी में ही गर्जना
माथे की बिंदी भी कही क्यूँ , ढूँढती अस्तित्व अपना
क्यूँ नहीं हमने निभाया माँ , भाष्य का दायित्व अपना

बहके हुए है हम सदा से , भाषा इंगलिस्तान में
बोलने में क्यूँ लाज आये, हिंदी हिंदुस्तान में
राष्ट्र के माथे की बिंदी , क्यूँ सभी हम नोचते
क्यों नहीं ये प्रण भी लेते , हिंदी में ही बोलते


 

Ashish Srivastava ( Sagar Sandhya ) 

Added by Ashish Srivastava on September 14, 2012 at 12:30pm — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
क्यों मुझको हैं झकझोर रहे?

आस भरे मासूम नयन, क्यों मुझको हैं झकझोर रहे?
हो निराश क्यों विस्मित मन, तक आशा की यह डोर रहे?
*
मैं खुद बेबस पंछी हूँ,
नाज़ुक पर, कैद सलाखों में,
आखिर क्या विश्वास जगा,
पाऊँगी बेबस आँखों में ?…
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Added by Dr.Prachi Singh on September 14, 2012 at 11:30am — 19 Comments

हर भारतीय का आत्म गौरव है हिंदी

 हिंदी दिवस पर समस्त ओ बी ओ के सम्मानित सदश्यों का हार्दिक शुभ कामनाए 

समस्त लोगो की जुबान पर है हिंदी
हमारी गजल हमारी कविता है हिंदी  
जन जन की रग रग में बसी है हिंदी  
समूचे भारत राष्ट्र की पहचान है हिंदी
राष्ट्र प्रेम को दर्शाती मेरी भाषा है हिंदी
प्यार का…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2012 at 11:00am — 10 Comments

सम्पूर्ण ओ बी ओ परिवार की ओर से आप सभी को हिन्दी दिवस की बहुत-बहुत बधाई व अनंत शुभकामनाएं !

हिन्दी अपनी जान है, हिन्दी है पहचान.

देश हमारा हिन्दवी, प्यारा हिन्दुस्तान.

प्यारा हिन्दुस्तान, जहाँ भाषा का मेला.

सबको दें सम्मान, करें नहिं कोई खेला.

'अम्बरीष' हो गर्व, देख माथे की बिंदी.

दुनिया भर में आज, छा रही अपनी हिन्दी..

--अम्बरीष श्रीवास्तव

Added by Er. Ambarish Srivastava on September 14, 2012 at 9:30am — 16 Comments

चार कह मुकरियाँ

(१) फूटे बम चल जाए गोली,

नहीं निकलती मुँह से बोली |

बाहर आता खाने राशन,

क्या भई चूहा? नहिं रे "शासन" ||

(२) ताने घूँघट औ शरमाए,

तड़पा के मुखड़ा दिखलाए |

रोज दिखाए जलवा ताजा,

क्या मेरी भाभी? नहिं तेरा "राजा" ||

(३) चलते पूरी सरगर्मी से,

सुनते ताने बेशर्मी से |

बातों से पूरे बैरिस्टर,

क्या कोई लुक्खा? नहिं रे "मिनिस्टर" ||

(४) बातों से लगता है झक्खी,

नहीं भिनकने आती मक्खी |

डांटे मैडम बँधती घिग्गी,

क्या कोई पागल? नहिं रे…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 14, 2012 at 8:18am — 6 Comments

कविता

शब्द उड़ते हैं कल्पनाओ में तो कविता बनती है,
चाँद होता है जब घटाओ में तो कविता बनती है,
यु तो हो जाती हैं बस राहतें दवा जो काम करे,
दर्द होता है जब दवाओ में तो कविता बनती…
Continue

Added by Brajesh Kant Azad on September 14, 2012 at 12:00am — 5 Comments

समाज सुधारक

भ्रष्टता के इस युग में

हर कोई समाज सुधारक है,

देखता है, विचारता है

समाज में व्याप्त घृणित बुराइयों को,

करता है प्रतिकार पुरजोर तरीके से

हर एक बुराई का,

लड़ता है सच के लिए,

बावजूद, क्यों अंत नहीं होता

किसी भी बुराई का,

बल्कि बढ़ती जा रही

बुराइयाँ, दिन-प्रतिदिन,

वजह मात्र एक,

हरेक मनुष्य सुधारता औरों को,

नहीं दिखती किसी को भी

कमियाँ अपनी,

करते नजरअंदाज

अपने अवगुणों को,

कैसे सुधरेगा समाज

जब…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 13, 2012 at 10:30pm — 10 Comments

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