(१२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ )
.
वफ़ा ढूंढते हो जफ़ा के नगर में यहाँ पर वफ़ा अब बची ही कहाँ है
बुझी है वफ़ा की मशालें दिलों से वफ़ा का नहीं कोई नाम-ओ-निशाँ है
**
यहाँ राज करते हवस के पुजारी किसी की नहीं है मुहब्बत से यारी
इधर बेवफ़ाओं का लगता है मेला कोई बावफ़ा अब न मिलता यहाँ है
**
इधर पैसा फेंको दिखेगा तमाशा अगर जेब ख़ाली मिलेगी हताशा
इधर है न…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 31, 2019 at 4:30pm — 2 Comments
2122-2122-2122-212
मतला:-
ख़ुश ही रहता हूँ शिकायत क्या करूँ क्या है अता।।
आदमी हूँ ख्वाहिशें होनी नहीं कम ऐ ख़ुदा।।
हुश्न-ए-मतला:-
तेरे ज़ानिब से मुझे जो भी मिला अच्छा लगा ।
मैं तो मुफ़लिस था मेरी हिम्मत कहाँ कुछ माँगता।।
मेरा दम घुटने लगा जब महफिलों की शान में ।
यार आया हूँ उठा कर दूर खुद का मकबरा।।
मेरी मैय्यत में गुलों की बारिशें अच्छी नहीं।
शाइरी के भेष में करने लगा था इल्तिज़ा।।
देख़ो उल्फ़त के…
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on May 31, 2019 at 12:20pm — No Comments
चुप होना चाहता हूँ ....
नहीं नहीं
बहुत हुआ
अब मैं चुप रहना चाहता हूँ
अंधेरों सा खामोश रहना चाहता हूँ
अब मेरे पास
न तो विचार हैं
न किसी भी विचार को
अभिव्यक्त करने के लिए शब्द
पता नहीं
क्यों मैं चुप नहीं रह पाता
बावजूद ये जानते हुए भी
कि मेरे बोलने से कुछ नहीं बदलने वाला
मैं निरंतर बोले जा रहा हूँ
न जाने किसे और क्या क्या
मैं नहीं जानता
मेरा इस तरह से लगातार बोलना
किस हद तक ठीक है…
Added by Sushil Sarna on May 31, 2019 at 12:00pm — 4 Comments
212 212 212 212
कीजिये मत अभी रोशनी मुख़्तसर ।
आदमी कर न ले जिंदगी मुख़्तसर ।।
इश्क़ में आपको ठोकरें क्या लगीं ।
दफ़अतन हो गयी बेख़ुदी मुख़्तसर ।।
नौजवां भूख से टूटता सा मिला ।
देखिए हो गयी आशिक़ी मुख़्तसर ।।
गलतियां बारहा कर वो कहने लगे ।
क्यूँ हुई मुल्क़ में नौकरी मुख़्तसर ।।
कैसे कह दूं के समझेंगे जज़्बात को ।
जब वो करते नहीं बात ही मुख़्तसर ।।
सिर्फ शिक़वे गिले में सहर हो गयी…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on May 30, 2019 at 6:30pm — No Comments
मर्म .....
कितनी पहेलियाँ हैं
हथेलियों की
इन चंद रेखाओं में
पढ़ते हैं
लोग इनमें
जीवन की लम्बाई
साँसों की गिनती
भौतिक सुख सुविधा
दाम्पत्य सुख
औलाद
सब कुछ पढ़ते है
नहीं पढ़ते
तो
प्राण बिंदु का मर्म
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 30, 2019 at 3:04pm — 1 Comment
बोझ उठाती हैअकेली माँ कई बच्चोँ का
कई बच्चोँ को मगर माँ भी बोझ लगती है
लहू से सींचकर जिसको बडा किया उसको
बहु के साथ ही रहने में मौज लगती है…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on May 30, 2019 at 3:00pm — No Comments
छंद सोरठा .......
अपनेपन की गंध, अपनों में मिलती नहीं।
स्वार्थपूर्ण दुर्गन्ध,रिश्तों से उठने लगी।1।
प्रथम सुवासित भोर, प्रीत सुवासित कर गई।
मधुर मिलन का शोर, नैनों में होने लगा।2।
तृषित रहा शृंगार, बंजारी सी प्यास का।
धधक उठे अंगार,अवगुंठन में प्रीत के।3।
जागे मन में प्रीत, नैन मिलें जब नैन से ।
बने हार भी जीत, दो पल में सदियाँ मिटें।4।
वो पहली मनुहार, यौवन की दहलीज पर।
शरमीली सी हार,हर बंधन…
Added by Sushil Sarna on May 29, 2019 at 1:23pm — No Comments
बुढ़ापा ...
शैशव,बचपन ,जवानी
छूट जाती है
बहुत पीछे
जब आता है
बुढ़ापा
छूट जाता है
हर मुखौटा
हर आयु का
जब आता है
बुढ़ापा
बहुत लगती है
प्यास
बीते हुए दिनों की
तृषा की ओढ़नी में
तृप्ति की तलाश में
युगों के बिछोने पर
उड़ जाता है तोड़ कर
काया की प्राचीर को
अंत में
अनंत में
ये
पावन
बुढ़ापा
सुशील सरना
मौखिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 28, 2019 at 1:00pm — 2 Comments
वादियाँ ख़ामोश ख़ामोशी भरा है ये सफ़र
अब दरख़्तों से भी हम डरने लगे हैं किस क़दर
यूँ मचा कर शोर करते हैं परिंदे अहतिजाज
इस जगह पर ही हुआ करता था अपना एक घर'
जिस जगह हमने गुज़ारी थी महकती शाम, अब
ज़ह्र फैला उस जगह तो कैसे हम रोकें असर
फूल भी बेनूर से क्यों दिख रहे हैं बाग में
ख़ूबसूरत से चमन कोतो खा गयी किसकी नज़र
वो पुराने दिन हमें जब याद आते हैं कभी
ढूँढने लगते हैं…
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on May 28, 2019 at 1:00pm — 4 Comments
(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )
.
रंज-ओ-ग़म हो न अगर आँखें कभी रोती क्या ?
बेसबब साहिल-ए-मिज़गाँ पे नमी होती क्या ?
**
ज़ख़्म ख़ुद साफ़ करें और लगाएं मरहम
ज़ख़्म क़ुदरत किसी के ज़िंदगी में धोती क्या ?
**
चन्द लोगों के नसीबों में लिखी है ग़ुरबत
ज़ीस्त सबकी ग़मों का बोझ कभी ढोती क्या ?
**
बाग़बाँ फ़र्ज़ निभाता जो तू मुस्तैदी से
तो कली बाग़ की अस्मत को कभी खोती क्या ?
**
क्यों किनारे पे कई बार सफ़ीने डूबे
इस तरह रब कभी क़िस्मत किसी की…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 28, 2019 at 12:30am — 4 Comments
सब ग़मों को भुला दिया जाए
थोड़ा सा मुस्कुरा दिया जाए
अश्क़ मैं पी चुका बहुत यारो
जामे उल्फ़त पिला दिया जाए
.
लो सियासत बदल गयी अब तो
हुक़्म उनका सुना दिया जाए
आँधियाँ तेज जब चलें, खुद को
अपने घर में बिठा दिया जाए
अब जलाकर 'अमर' बसेरा तुम
कह रहे ग़म भुला दिया जाए
"मौलिक और अप्रकाशित"
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on May 27, 2019 at 6:00pm — 4 Comments
विदाई से पहले : 4 क्षणिकाएं
क्या संभव है
अनंतता को प्राप्त करना
महाशून्य की संख्याओं को
विलग करते हुए
........................................
उड़ने की तमन्नाएँ
आशाओं के बवंडर के साथ
भेदती रही नीलांबर को
अपने कर्णभेदी
अश्रुहीन रुदन से
......................................
मैं चाहता था
तुम्हें चाँद तक पहुंचाना
अपनी बाहों के घेरे में घेरकर
गिर गया स्वप्न
फिसल कर
आँखों के फलक से
हकीकत के…
Added by Sushil Sarna on May 27, 2019 at 11:44am — 4 Comments
221 1222 221 1222
किस्मत की लकीरों पर खुश-रंग चढ़ा दूँगा
मैं दर्द के सागर में पंकज को खिला दूँगा
ज्यादा का नहीं केवल छोटा सा है इक दावा
ग़र वक्त दो तुम को मैं खुद तुम से मिला दूँगा
कुछ और भले जग को दे पाऊँ नहीं लेकिन
जीने का सलीका मैं अंदाज़ सिखा दूँगा
कंक्रीट की बस्ती में मन घुटता है रोता है
वादा है मैं बागों का इक शह्र बसा दूँगा
आभास की बस्ती है, अहसास पे जीती है
जन जन के मनस में मैं यह मंत्र जगा…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 27, 2019 at 12:43am — 6 Comments
कितना अफ़्कार में मश्ग़ूल हर इक इन्साँ है
कोई बेफ़िक्र अगर है तो सियासतदाँ है
**
ख़ाक उड़ती है जिधर देखूँ उधर सहरा-सी
इस क़दर दिल का नगर आज मेरा वीराँ है
**
बात गुस्से में कही फिर से ज़रा ग़ौर तो कर
"जी ले तू प्यार के बिन " कहना बहुत आसाँ है
**
कोई अफ़सोस नहीं गर मेरी रुसवाई का
शर्म से क्यों हुई ख़म यार तेरी मिज़गाँ…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 26, 2019 at 9:30pm — 2 Comments
मैं मानता हूँ कि यदि विद्यालयीन पाठ्यक्रमों में हिंदी साहित्य विधाओं की छोटी रचनायें कहानियां आदि/अतुकांत कविताएं/ क्षणिकाएं/कटाक्षिकायें आदि सम्मिलित की जायें; योग्य हिंदी शिक्षकों द्वारा बढ़िया समझाई जायें, तो विद्यार्थी उन्हें अधिक पसंद करेंगे।
अभी विद्यालयों में हिंदी पाठ भलीभांति कहाँ समझाये जा रहे हैं? मुख्य कठिन विषयों…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on May 26, 2019 at 9:30am — No Comments
चौदहवीं पे कितना प्यारा लगता है।
कितना दिलकश ये नज़्ज़ारा लगता है।।
आँख मिलाए और कभी शर्माए तू।
चांद बता तू कौन हमारा लगता है।।
चांदनी हरदम पास हमारे रहती है।
चांद मगर क्यों हमसे पराया लगता है।।
तुझसे पहले आंखों में यह चुभते हैं।
तुझ पे क्यों तारों का पहरा लगता है।।
उसका अक्स जो पलकों में धर लेते हैं।
क़ैदी सा फिर चांद हमारा लगता है।।
आसिफ़ तुम दरिया बन जाते हो जो कभी।
उसमें तुम्हारा चांद…
Added by Asif zaidi on May 26, 2019 at 12:30am — No Comments
बहर :- 22-22-22-22-22-2
तुम हो शातिर तुमको ऐसा लगता है ।।
मेरी ओर से भी दरवाजा लगता है।।
मैं करता तुमसे कैसे दिल की बातें।
तुमको मेरा प्रेम ही' सौदा लगता है।।
वो मंदिर में गिरजाघर में मस्जिद में।
मुझमें तुझमें पहरा जिसका लगता है।।
वो पत्थर ख़ुद को समझे क़िस्मत वाला।
जिसको छैनी और हथौड़ा लगता है ।।
आन पड़े जब मुश्किल घड़ियां जीवन में।
एक रु'पइया एक हजारा लगता है ।।
हिन्दू मुस्लिम भाई…
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on May 24, 2019 at 5:46pm — No Comments
रैन पर कुछ शृंगारिक दोहे :
Added by Sushil Sarna on May 24, 2019 at 4:00pm — No Comments
1211-22-1221-212
दरोज बुझाया जलाया गया मुझे।।
कुछ और नहीं बस सताया गया मुझे।।
यूँ पहली नजर की मुहब्बत ही नेक थी ।
गलत है क़े रस्ता दिखाया गया मुझे।।
मुँड़ेर से महताब जैसा दिखाई दूँ।
वही एक रोगन चढ़ाया गया मुझे।।
मुझे भी यही दौर आसान कह रहा ।
वो दौर बता जो बताया गया मुझे।।
गुलाब सी खुश्बू बिखेरुं कभी कहीं।
कलम से कलम कर लगाया गया मुझे।।
आमोद बिन्दौरी /मौलिक अप्रकाशित
Added by amod shrivastav (bindouri) on May 24, 2019 at 1:28pm — No Comments
है कहाँ फूल जैसा खिला आदमी
हो गया है ग़मों का किला आदमी
मंदिरों, मस्जिदों में रहे ढूँढते
जब मिला आदमी में मिला आदमी
गाँठ दिल में लगी तो खुली ही नहीं
भूल पाया न शिकवा-गिला आदमी
…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on May 24, 2019 at 10:07am — 9 Comments
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