आओ ज़रा शहर निहारें
चमचमाती सड़कों पर
चमचमाती कारें
ऊँचे ऊँचे दीप्ति खंभ
अँधेरे को पीते
बड़े बड़े लट्टू
रग रग में संचरित होता दंभ
सुन्दर बाग़
ये महल अटारी
मशीन भारी भारी
और कुछ बड़ी बीमारी
सब तन रहा है
गाँव गाँव
अब शहर जो बन रहा है
बढ़ रहा है
धीरे धीरे
अटारी पर अटारी
तानी जा रही हैं
जो प्रगति की निशानी
मानी जा रही है
बेशुध हुआ सा आदम
भागा जा रहा है
अरमानों के…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2013 at 1:00pm — 6 Comments
साथी!
जिस राह पे चलकर तुम जाते
वह राह मनचली
क्यों मुड़ के लौट नही आती ...
ये बैरन संध्या
हो जाये बंध्या
न लगन करे चंदा से
न जन्में शिशु तारे
बस यहीं ठहर जाये
ये शाम मुंहजली
जो मुड़ के लौट नही पाती ...
श्वासों के तार
ताने पल पल
न टूट जायें
ये अगले पल
ले जाओ दरस हमारा
दे जाओ दरस तुम्हारा
यह लिखती पत्र पठाती
यह राह मनचली
जो मुड़ के…
Added by वेदिका on June 5, 2013 at 11:00am — 25 Comments
(मत्तगयन्द सवैया छन्द ७ भगण २ गुरु)
सोच विचार करें अब भोग प्रसार कुनीति नहीं घटती हैं
मानव में पशु वास हुआ लख स्वार्थ प्रवृत्ति नहीं नटती हैं
वृक्ष चिरें वह वृक्ष नहीं नित भूमि भुजा सुन लो फटती हैं
गाय कटें वह गाय नहीं प्रिय नित्य यहाँ बस माँ कटती हैं
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
सर्वथा मौलिक सर्वथा अप्रकाशित
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on June 5, 2013 at 10:36am — 11 Comments
Added by Abid ali mansoori on June 5, 2013 at 9:54am — 17 Comments
भले ही आज जीवन में, तेरे कायम अँधेरा है
इसी दुनिया में ही लेकिन, कहीं रौशन सवेरा है
मै इक ऐसा परिंदा हूँ, नही सीमाएं है जिसकी
मेरी परवाज़ की खातिर, ये दुनिया एक घेरा है
कभी हिंदू कभी मुस्लिम. रहे हैं हारते हरदम
सियासत खेल ऐसा है, न तेरा है न मेरा है
कुतरते ही रहे है देश को, हरदम जहाँ नेता
इसे संसद न कहियेगा, ये चूहों का बसेरा है
न जलती है न मरती है, महज़ कपड़े बदलती है
“ऋषी” इस रूह की खातिर, ये जीवन एक डेरा है …
Added by Anurag Singh "rishi" on June 5, 2013 at 7:30am — 13 Comments
विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून: क्या हम आप इसमें कहीं शामिल हैं? इस वर्ष खाद्यान्न की झूठन छोड़ने और संरक्षण न करने से होती बर्बादी को रोकने पर दृष्टि है.ध्येय नारा है: सोचो, खाओ, बचाओ. …
Added by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on June 5, 2013 at 6:00am — 9 Comments
इश्क में हो गये है शेर सब
शेरनी की गरज पर ढेर सब
है बनी शायरी अब फुन्तरू
आम से हो गये है बेर सब
हां कलम भी कभी हथियार थी
चुटकुला अब, समय का फेर सब
जे छपे, वे छपे, हम रह गये
चाटने में हुई है देर सब
खो गये मीर, ग़ालिब, मुसहफ़ी
लिख रहे है खुदी को जेर सब
~अमितेष
मौलिक व अप्रकाशित
फुन्तुरु - मजाक
मीर - मीर तक़ी 'मीर'
ग़ालिब - असद उल्लाह खां ग़ालिब
मुसहफ़ी - शैख़ गुलाम हम्दानी मुसहफ़ी
Added by अमि तेष on June 4, 2013 at 11:19pm — 10 Comments
अडिग खड़ा है
चिर स्थिर
पुष्प से लदा
धरा से आलिंगन करता
तरुवर की निः स्वार्थ सेवा
सम भाव
वाह!
सब को देखने दो कुछ क्षण
रजत जड़ी ओस की डाल
चंचल है
हिला देती है बयार
तुम भी आओ मधुप
प्रतीक्षारत है कली
मृदुल होंठो के मकरंद पी लो
अरे ! ये क्या ?
मेघ भी उतर रहे हैं
हँसते हुए
शांत सरोवर
सरिता
बूदों संग मिलकर
अद्भुत संगीत सुनायेंगे
दादुर की व्याकुलता तो देखो…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on June 4, 2013 at 10:00pm — 21 Comments
पुष्प वाटिका बीच मुदित, बाला मन को मोह
सुमन पंखुरी सुघर मृदुल , श्यामा तन यूँ सोह!
पनघट पर सखिया सभी, करत किलोल ठठाहि ,
छलकत जल से गागरी, यौवन छलकत ताहि!
पुष्प बीच गूंजत अली, झन्न वीणा के तार .
तितली बलखाती चली, कली ज्यों करे श्रृंगार!
पीपल की पत्तियां भली, मधुर समीरण साथ,
देखत लोगन सुघर छवी, हिय हिलोर ले साथ.
पवन चले जब पुरवाई, ले बदरा को साथ
मन विचलित गोरी भई, आंचल ढंके न माथ…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on June 4, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
हम तुम रेल की बर्थ पर बैठे ठकड़ ठकड़ कितनी देर तक वो आवाजें सुनते रहे ...शायद तुम्हारे भीतर भी एक जीवन चल रहा था और मेरे भीतर भी पुरानी यादों का चलचित्र .... शायद उन यादों की कडुवाहट उनकी मिठास को सुनने वाला समझने वाला कोई न था .... कुछ जंगल हमारे साथ चलते थे और कुछ पेड़ पीछे छूटते जाते थे ...…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 4, 2013 at 9:30pm — 12 Comments
Added by anwar suhail on June 4, 2013 at 8:21pm — 7 Comments
Added by Abid ali mansoori on June 4, 2013 at 12:28pm — 14 Comments
एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी की मुहब्बतों के हवाले ....
वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे
पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे
मैं डर रहा हूँ कहीं वो न हार जाए मुझे
मेरी अना के मुक़ाबिल नज़र जो आए मुझे
मुझे समझने का दावा अगर है सच्चा तो …
Added by वीनस केसरी on June 4, 2013 at 1:00am — 32 Comments
गज़ल
बह्र : 2122 1212 22
जाल सैयाद नें बिछाया है
कैद में सोन पंछी आया है..
टीसता ज़ख्म पीपता रिश्ता
सब्र की आड़ में छिपाया है..
हारी बाज़ी पलट सका वो ही
संग…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on June 3, 2013 at 10:30pm — 25 Comments
ख्वाबों के दिन
ख्वाबों के दिन
कब मन को तड़पाते नहीं !
सुबह की पहली किरण
जब खिड़की पर थाप देती,
चिड़ियों की चहचहाहट से
जब खुलती हैं आँखें -
ज़िंदगी एक नयी करवट लेती हुई
बिस्तर की सलवटों पर
सिकुड़ी सिमटी सी , क्यों
तटस्थ हो जाती है ?
वक़्त का हर पल
एक सुनहरा ख्वाब दिखलाता है.
कुछ सपनों के दिन,
कुछ अधूरी रातें,
खुले नैनों के द्वार से
कहाँ दौड़े चले जाते है ?
एक कसमसाहट सी होती है -
अंगड़ाई…
Added by coontee mukerji on June 3, 2013 at 10:21pm — 11 Comments
Added by yatindra pandey on June 3, 2013 at 9:00pm — 4 Comments
बह्रे मुज़ारे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक़्बूज़ मख़्बून महज़ूफ़ो मक़्तुअ
1212/ 1122/ 1212/ 22
***********************
हमें अज़ीज़ मुजद्दिद की राह हो जाए;
नज़र में शैख़ की गर हो गुनाह हो जाए;…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on June 3, 2013 at 8:30pm — 20 Comments
Added by अरुण कुमार निगम on June 3, 2013 at 8:00pm — 12 Comments
दिल के करीब आइये कुछ तो बताइए
यूँ आग को सुलगा के भला क्यों बुझाइए ?
दुनिया के डर से आप को तनहा न छोडिये
बस आँख बंद कीजिए मुझमे समाइये
रोयी है बहुत आँख मुकम्मल ये जिंदगी
पलकों पे मेरी फिर नए सपने सजाइए
जीवन के ओर छोर का कुछ भी पता नही
यूँ जिंदगी में आइये वापस न जाइए
मुमकिन है थोड़ी गलतियाँ होती रही “ऋषी”
खुद को न ऐसे कोसिए न ही सताइए
अनुराग सिंह "ऋषी"
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
Added by Anurag Singh "rishi" on June 3, 2013 at 7:35pm — 7 Comments
हे मन.....
तोङ दे सारे बन्धन.
तोङ दे सारे घमन्ड,छोङ दे मद़ पाना हॆ तुझे अमरत्व का पद
चलना हॆ तुझे सदॆव. सतत
रहना हॆ सदा संघर्षमय प्रयासरत.
अगर तुम्हे बाँधगया कोई मायाजाल
तो कॆसे पाओगे वह शिखर विशाल
जिसके लिये तुम हो सदा से अधीर
फिर बार बार नही मिलेगा तुम्हे नश्वर शरीर
चलते ही रहना हॆ…
ContinueAdded by pankaj singh on June 3, 2013 at 7:30pm — 2 Comments
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