जब घिर बदरा रिम झिम बरसे , तब दादुर नाचे बन मोर | |
पवन बहे जब झूम झूम के , तब घासें झूमें झकझोर | |
चाँद छुप छुपआये गगन में , जनु चाँदनी छुपे हर ओर | |
आया है मन भावन सावन , सब कजरी गावें चहुओर | |
डाली झूम जनु गुनगुनायें , कोयल भी गाये दिल… |
Added by Shyam Narain Verma on July 27, 2013 at 5:30pm — 5 Comments
मैंने बस धीरज माँगा था,तुमने ही अधिकार दिया;
कितने पत्थर रोज़ तराशे,फिर मुझको आकार दिया।
बादल,बरखा,बिजली,बूँदें,क्या कुछ मुझमें पाया था;
पथ-भूले को इक दिन तुमने,दिग्दर्शक बतलाया था।
लेकिन मेरे पथ पर चलना,श्रद्धा लाना शेष रहा।
धड़कन के दरबान बने तुम,मन तक आना शेष रहा॥
आशा को थकन नहीं होती,इच्छा को विश्राम कहाँ;
जब तक साँसों में उष्मा है,जीवन को आराम कहाँ।
कण-कण जमते हिमनद में भी,बाक़ी रहता ताप कहीं;
मनभावन आलिंगन में भी,छू जाता संताप…
Added by Ravi Prakash on July 27, 2013 at 5:30pm — 7 Comments
सम्मानीय सादर नमन !!
Added by arvind ambar on July 27, 2013 at 8:30am — 9 Comments
१-सहनशीलता
उत्पीडन की क्रीडा से उत्पन्न श्रान्ति से
पिंग बने टहल रहे
अकारण ही रंज रुपी हरिका खे रहे
मोषक को पोषक कहते
वाह!सहनशीलता की पराकाष्ठा
शायद!
खुद को काकोदर के मुख में फसा
मंडूक मान बैठे है
२-लिखता रहा
हृदयतल के तड़ाग से
अनकहे शब्द
अकुलाहट के साथ
बुलबुले बन
निकलते रहे निकलते रहे
पीड़ा है क्या ? नहीं तो
प्रेम है
विरह है
पता नहीं
फिर भी मै …
Added by ram shiromani pathak on July 26, 2013 at 8:30pm — 20 Comments
पावस का इस बार भूमि पर
प्यार बहुत उमड़ा है।
लेकिन क्या सुख संचय होगा?
संशय नाग
खड़ा है।
मक्कारी, गद्दारी, लालच,
शासन के कलपुर्ज़े।
बूँद-बूँद को चट कर देंगे,
घन बरसे या गरजे।
भरे सकल जल-स्रोत लबालब,
सागर ज्वार चढ़ा है।
मगर उसे नल नहलाएगा?
चिंतित मलिन
घड़ा है।
बन मशीन मानव ने भू के,
रोम-रोम को वेधा।
क्यों कुदरत फिर क्षुब्ध न होगी,
रुष्ट न…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 26, 2013 at 7:27pm — 17 Comments
जल उठा मन का दिया
प्रियतम! मिले हो जब से !
भोर हुयी है जीवन में
तमस रात थी कब से !
सांसो में तेरी ही खुशबु
तुझको पाया जब से !
फूल खिले मन-उपवन में
बीता पतझड़ जब से !
रक्त वाहिनी मद्धम मद्धम
छुआ है तुमने जब से !
जितेन्द्र 'गीत'
मौलिक/अप्रकाशित
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 5:30pm — 15 Comments
पोखर छल छल जल भरे ,धुले धुले मैदान|
काई ने पहना दिए , हरित नवल परिधान||
धरती अंतर में छुपा,दादुर जीव विचित्र|
नव चौमासे ने कहा ,बाहर आजा मित्र||
मुक्तक फूटें मेघ से ,टपर टपर टपकाय |
प्यासा चातक चुन रहा,चरुवा भरता जाय||
…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 26, 2013 at 4:30pm — 13 Comments
काश!
आरजू मै करु मिलने की, और वो रुबरु हो जाये ।
काश ! मेरी मोहब्बत की, ऐसी तासीर हो जाये ।।
न शिकवा ना शिकायत हो कोई भी खुदा से ।
काश! ऐसा हर कोई खुश नसीब हो जाये…
ContinueAdded by बसंत नेमा on July 26, 2013 at 2:00pm — 9 Comments
बहर : हज़ज़ मुरब्बा सालिम
......... १२२२, १२२२ .........
अलग बेशक हुए मजहब,
सभी का एक लेकिन रब,
नज़र में एक से उसके,
भिखारी हो भले साहब,
जिसे जितनी जरुरत है,
दिया उसको उसे वो सब,
सभी को एक सी शिक्षा,
खुदा का बाँटता मकतब,
(मकतब : विद्यालय)
मुसीबत में पुकारे जो,
चले आयें बने नायब,
(नायब : सहायक)
अजब ये दौर आया की,
हुई है सभ्यता…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 25, 2013 at 9:23pm — 13 Comments
आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,
सादर वंदे !
ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति…
ContinueAdded by Admin on July 25, 2013 at 8:00pm — 26 Comments
मेरे दादाजी को श्रद्धांजली स्वरूप कुछ पंक्तियाँ
पिता!
तुम छत थे
ढह गये
तीव्र उम्र तूफान से
दरक गयीं दीवारें
लगाव ख़त्म
आपसदारी 'थी'
'है' नही
न कोई बचाव
धूप से
या बारिश से
शीत से
या गैरों से
न रहा घर
रह गया ढेर
ईंटों का
तुम थे 'एक छत'
हम 'चार दीवारें'
मिटा दिया हमने
अहसास
तुम्हारे होने का
तुम गये, शेष
एक प्रश्न
अवशेष …
Added by वेदिका on July 25, 2013 at 8:00pm — 19 Comments
बहर में लिखने का प्रथम प्रयास
2 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2
.
जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
प्यास मेरी अधूरी यही रह गई
आशियाने बहे ना डगर ही मिली
सूचना आसमानी धरी रह गई
घोर तांडव हुआ खैर पा ना सके
फूल तोडा गया बस कली रह गई
ये कयामत चली लेखनी की तरह
ख़्वाब टूटे मगर चोट भी रह गई
ये ख़ुशी नागवारी खुदा को हुई
तो अकड़ आदमी की धरी रह गई
पेड़ काटे अगर तो सही त्रासदी
पेड़ रोपे…
Added by Sarita Bhatia on July 25, 2013 at 7:30pm — 15 Comments
जब तुम साथ न थे
प्रेम सुप्त पड़ा था
दिल मे दर्द बड़ा था
मरहम था तेरे पास
जब तुम साथ न थे ...............
हर रोज एक आशा
कब होगे मेरे पास,
मेरा दिल तेरे पास
तेरा दिल मेरे पास
जब तुम साथ न थे ..............
राह तकती थी अँखियाँ
सूनी सी थी पगडंडियाँ
न महकती थी फुलवारियाँ
बढ़ती जाती थी दुश्वारियाँ
जब तुम साथ न थे ....................
तेरा मुझको…
ContinueAdded by annapurna bajpai on July 25, 2013 at 5:00pm — 9 Comments
कभी न आएँगे तेरे दर पे
कि तेरे बिना
जीना मंजूर है हमें
कभी न ताकेंगे तेरे राह
कि तेरे बिना
जीना मंजूर है हमें।
एक आशियाना मिला था,
एक फूल खिला था,
जो मुरझा गया समय से पहले
उस फूल को लेकर
अब मैं कहाँ जाऊँ।
जिसमे सजानी थी
बचपन की यादें,
समेटनी थी कुछ खुशियाँ
तेरे साथ उन खुशियों को
ढूंढने अब मैं कहाँ जाऊँ।
एक शाम बितानी थी तेरे संग
दुनिया को भूलकर
आसमान छूना था,
उन सपनों को लेकर
अब मैं कहाँ…
Added by Lata tejeswar on July 25, 2013 at 4:00pm — 12 Comments
सोचता हूँ
क्या होगा
इस नीले आकाश के पार
कुछ होगा भी
या होगा शून्य
शून्य
मन सा खाली
जीवन सा खोखला
आँखों सा सूना
या
रात सा स्याह
कैसा होगा सबकुछ
होगी गौरैया वहां?
देह पर रेंगेंगी
चीटियाँ?
या होगा सब
इस पेड़ की तरह
निर्जन और उदास;
सागर की बूँद जितना
अकल्पनीय
बिना जाए
जाना कैसे जाए
और जाने को…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 25, 2013 at 10:30am — 18 Comments
(1)
औक़ात
भोर की दहलीज पर बैठा मैं,
ललचायी इच्छाएँ लेकर,
पर्वत निहार रहा था –
उनके शरीर से लुढ़क कर
वादियों में फैलती,
प्रभात की पहली किरण ने,
मुझे,
मेरी औक़ात बता दी.
(2)
दिन के झरोखे में बैठे
एक लम्बी सांस खींचे,
मैंने सूरज बनने की ठानी –
तैरते हुए बादल के
एक छोटे से टुकड़े की
छोटी सी छाँव ने,
मुझे,
मेरी औक़ात सिखा दी.
(3)
गोधूलि के धुँधलके में छिपकर
मैंने,…
Added by sharadindu mukerji on July 25, 2013 at 1:00am — 12 Comments
-एक दुधमुँहा प्रयास-
बहर -ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
पाँव कीचड़ से सने हैं और मंज़िल दूर है।
शाम के साए घने हैं और मंज़िल दूर है॥
तुम मिलोगे फिर कहीं इस बात के इम्कान पे,
फास्ले सब रौंदने हैं और मंज़िल दूर है॥
कौन हो मुश्किलकुशा अब कौन चारागर बने,
घाव ख़ुद ही ढाँपने हैं और मंज़िल दूर है॥
कल बिछौना रात का सौगात भारी दे गया,
अब उजाले सामने हैं और मंज़िल दूर है॥
धड़कनें भी मापनी हैं थामनी कंदील भी,
रास्ते…
Added by Ravi Prakash on July 24, 2013 at 10:30pm — 14 Comments
फिर कोई आग बुन
क्यों बुझा- बुझा सा है,फिर कोई आग बुन
छेड़ कर सुरों के तार ,फिर कोई राग चुन ।
गहन अँधेरी रात में.भोर कीआवाज़ सुन
नींद से जाग जरा,फिर कोई ख्वाब बुन ।
मन की हार, हार है,हार में भी जीत ढ़ूँढ़
हौंसला बुलंद कर ,फिर कोई आकाश चुन ।
वक्त रुकता नहीं कभी,वक्त की पुकार सुन
भूल जा कल की बात ,फिर कोई आज बुन ।
********
महेश्वरी कनेरी /मौलिक व अप्रकाशित रचना
Added by Maheshwari Kaneri on July 24, 2013 at 9:00pm — 11 Comments
बचपन, पंछी और किसान
बचपन
अकेला बचपन,
न कोई संगी न साथी.
मुँह अंधेरे माता पिता घर से निकल जाते,
कर जाते मुझे आया के हवाले;
शाम को वे घर आते थके मांदे,
मैं रूठती अभिमान करती
तब पिता बड़े प्यार से कहते-
‘’बेटे! हम काम करते हैं तुम्हारे ही
उज्ज्वल भविष्य के वास्ते.’’
पंछी
सूनी आँखें ताक रही थीं
सूना आकाश,
बंद मुट्ठी में भुरभुरी हो कर,
बिखर रहे थे ज़मीन पर,…
Added by coontee mukerji on July 24, 2013 at 1:32pm — 6 Comments
खिड़कियाँ घर की तुम खुली रखना
नजरें दर पे ही तुम टिकी रखना
फिर से परवाना न मिटे कोई
बज्म में शम्मा मत जली रखना
दिल मेरा रहता बेक़रार बड़ा
तुम जरा सी तो बेकली रखना
कैद मुझको तू कर ले दोस्त मेरे
जुल्फ की ही पर हथकड़ी रखना
है हवाओं में अब जहर बिखरा
तू मगर आदत हर भली रखना
आरजू दिल में बस मेरे इतनी
अपने दिल में ही अजनबी रखना
आशु वो देगा सौं न पीने…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 24, 2013 at 1:00pm — 10 Comments
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