ये पल पल
गहराता कभी न
खत्म होने वाला
सन्नाटा
नहीं ....ये शान्ति नहीं है
चुप्पी भी नहीं है
न ....विराम है
ज़िन्दगी का
बहते समय का, गुज़रते दिनों का
फिर क्यूँ ये
ठहरा सा लगता है
जैसे
बांध के टांग दिया है
दीवार पर
इन बीतते दिनों को
शामों को, रातों को और
अलगे हर दिन को
कभी कभी
यूँ लगता है जैसे
कई सालों से यही है समय
यही था और इसी तरह…
ContinueAdded by Priyanka singh on July 2, 2014 at 6:30pm — 14 Comments
अपने बच्चों को सिंकते हुए भुट्टे और बिकते हुए जामुनों को ललचाई नज़रों से देखते हुए वो मन मसोस कर रह जाती थी। आज उसे तनख़्वाह मिली थी, उसके हाथों में पोटली देख कोने में खेलते हुए दोनों बच्चे खिलौने छोड़ दौड़ पड़े। तभी बीड़ी पीते हुए पति ने उससे कहा-“ला पैसे, बहुत दिनों से गला तर नहीं हुआ”... “लेकिन आज मैं बच्चों के लिए...” “तड़ाक!..." "तो तू मेरे खर्च में कटौती करेगी?” पोटली जमीन पर गिरी, जामुन और भुट्टे मैली ज़मीन सूँघने लगे और... माँ पर पड़े थप्पड़ से सहमे हुए बच्चे अपना गाल सहलाते हुए पुनः अपने…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 2, 2014 at 1:00pm — 17 Comments
कल हुआ जो वाक़या, अच्छा लगा।
हाथ तेरा थामना अच्छा लगा।
जिस्म तो काँपा जो तूने प्यार से,
कुछ हथेली पर लिखा, अच्छा लगा।
देखकर मशगूल हमको इस कदर,
चाँद का मुँह फेरना अच्छा लगा।
घाट रेतीले जलधि के नम हुए,
मछलियों का तैरना अच्छा लगा।
आसमाँ में बिजलियों की कौंध में,
बादलों का काफिला अच्छा लगा।
नाम ले तूने पुकारा जब मुझे,
वादियों में गूँजना अच्छा लगा।
बर्फ में लिपटे…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on July 2, 2014 at 11:00am — 17 Comments
पत्नी की म्रत्यु के २ वर्ष बाद ही बीमार रहने लगे मथुरा के संभ्रांत और संपन्न परिवारके श्री काशी प्रसाद जी का
८५ वर्ष की उम्र में देहांत हो गया | रात को शौक जताने आयेरिश्तेदार दुःख की घडी में सांत्वनाजता रहे थे, तभी
उस परिवार की बहुएँ…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 2, 2014 at 9:30am — 18 Comments
समय बीतता गया...
समय की आँधी क्रान्तियात्रा-सी
धुन्धले पड़ते
प्रतीक्षा और मृत्यु के सीमान्त
लड़खड़ाता साहस, विश्वास
ऐसे में स्नेह को आँधी में
दोनों हाथों से लुटा कर
कुछ मिलता है क्या
आत्मपीड़न के सिवा ?
अकेलापन
कसैलापन रसता
बचा रह जाता है
बीतती मुस्कान ओंठों पर
खाली बोतलों के पास
टूटे हुए गिलास-सी पड़ी ...
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-- विजय निकोर
(मौलिक…
ContinueAdded by vijay nikore on July 2, 2014 at 8:30am — 24 Comments
2122 1122 22
बिजलियाँ हैं न हवा सावन में
गुज़री बेआब घटा सावन में
गर्म रातें ये सहर भी बेचैन
यूँ बुरा हाल हुआ सावन में
गुल खिले हैं न शिगूफ़े हँसते
है न रंगों का पता सावन में
खेत तालाब शजर भी सूखे
आसमाँ सूख गया सावन में
मुन्तज़िर सर्द फुहारों के अब
थक गई है ये फ़िज़ा सावन में
याद आती है हवा की ठण्डक
सब्ज़रंगी वो रिदा सावन में
मुन्तज़िर= इन्तज़ार…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 2, 2014 at 8:11am — 16 Comments
आज कुछ....
आहट सी हुई, उस बंद
वीरान अन्धेरें से कोने में
जहाँ कभी
खुशियों की रौशनी थी
क्यों..?
आज उस बेजान लगने वाली
बंजर भूमि में
नमी सी आ गई
और दिखने लगा
एक आशा का अंकुरण
उस अंकुर में
जो कभी
हमने मिल कर
बोया था
हमारे वर्तमान और भविष्य
की छाँव
और फल के लिए
हाँ..! कुछ तो बाकी है
जो अमिट रहा
शायद....!
यही तो रिश्ता होता…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2014 at 2:05am — 10 Comments
तख़्त के साथ -साथ
तख्तियां बदलती हैं.
वक़्त के साथ -साथ
सख्तियां बदलती हैं.
सत्ता के साथ- साथ
चाप्लूसियां बदलती हैं.
अल्हडों के साथ-साथ
फब्तियां बदलती हैं.
धर्मों के साथ-साथ
भ्रांतियां बदलती हैं.
भोंहों के साथ-साथ
भृकुटियां बदलती हैं.
सन्दर्भों के साथ-साथ
अभिव्यक्तियाँ बदलती हैं.
सम्हालते सम्हालते
परिस्थितयां बदलती हैं.
कन्धों के साथ-साथ
अब अर्थियां बदलती है.
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व…
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 2, 2014 at 12:31am — 6 Comments
भूख
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भूख हायकु
विचलित है मन
शब्द मनन|
पत्तल झूँठा
चाट भरता पेट
अमीर शेष|
झूठन चाट
शांत की उदराग्नि
कुत्तों के संग|
भृत्य लाड़ले ...सेवक
अवशेष भोजन
भूख मिटाते|
सगाई-शादी
क्यों भोजन…
Added by savitamishra on July 1, 2014 at 9:00pm — 6 Comments
स्वप्न
पावस-अमावस में, निविड़ में बीहड़ में
साहस की मूर्ति बनी कृष्ण अभिसारिका I
नीर नेत्र-नीरज में धर्म वृत्ति धीरज में
श्रृद्धा भक्ति भाव भरी आयी सुकुमारिका I
देखा प्रिय पंथ में खड़े है अड़े भासमान
धाय गिरी अंक मे अधीर हुयी चारिका I
चौंकि उठी उसी क्षण स्वप्न सुख भंग हुआ
हाय ! कहाँ कान्ह वे तो जाय बसे द्वारिका I
मुक्ति-चतुष्टय
(भारतीय दर्शन में चार प्रकार की मुक्ति मानी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 1, 2014 at 7:00pm — 22 Comments
जब यादों की शबनम रोती है
तब सारी शब नम सी होती है
मेरी परवाह करे क्यों दुनिया
ज़ख्मो पर वाह सदा होती है
जगमग देखी जो मेरी दुनिया
जग मग में खार पिरोती हैं
प्रिय तम में उसको छोड़ गया
वो प्रियतम की खातिर रोती है
मूसा फिर आये राह दिखाने
राह…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on July 1, 2014 at 4:00pm — 11 Comments
प्रेम स्पंदन ....
नयन आलिंगन.....
अपरिभाषित और अलौकिक.....
प्रेम स्पंदन//
मौन आवरण में ....
अधरों का अधरों से....
मधुर अभिनंदन//
महकें स्वप्न....
नेत्र विला में....
जैसे महके.....
हरदम चंदन//
मेघ वृष्टि की.....
अनुभूति को ....
कह पाये न....
प्रेम अगन में....
भीगा ये तन//
विछोह वेदना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 1, 2014 at 2:00pm — 24 Comments
मन के भावो को
कल्पना की कलम से
कोरे कागज़ पर
उतारता हूँ.
शब्दों की आड़ में,
चिंता के झाड़ से
बचाई "संवेदना" को
संवारता हूँ,
कागज की नाव पर
सपनो के सागर में
सच की पतवार लिए
हिलकोरे खाता हूँ.
डूबना -उतराना तो
खेल है जीवन का
जाने क्या आश लिए
क्षितिज तक जाता हूँ.
विजय प्रकाश शर्मा.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 1, 2014 at 11:00am — 14 Comments
फिर वही कहानी “नारी व्यथा”
आज फिर सुर्ख़ियों में पढ़कर एक नारी की व्यथा,
व्यथित कर गयी मेरे मन को स्वतः
नारी के दर्द में लिपटे ये शब्द संजीव हो उठे हैं
इस समाज के दम्भी पुरुष
कभी किसी दीवार के पार उतर के निहारना
नारी और पुरुष के रिश्ते की उधडन नजर आएगी तुम्हे
कलाइयों को कसके भींचता हुआ, खींचता है अपनी ओर
बिस्तर पर रेंगते हुए, बदन को कुचलता है
बेबसी और लाचारी में सिसकती है,
दबी सहमी नारी की देह पर ठहाकों से लिखता है, …
Added by sunita dohare on July 1, 2014 at 1:30am — 19 Comments
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