For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

August 2017 Blog Posts (144)

ग़ज़ल -- शरबती आंखों से अब पीना पिलाना फिर कहाँ

2122 2122 2122 212

वो तेरा छत पर बुलाकर रूठ जाना फिर कहाँ ।

वस्ल के एहसास पर नज़रें चुराना फिर कहाँ ।।



कुछ ग़ज़ल में थी कशिश कुछ आपकी आवाज थी ।

पूछता ही रह गया अगला तराना फिर कहाँ ।।



आरजू के दरमियाँ घायल न हो जाये हया ।

अब हया के वास्ते पर्दा गिराना फिर कहाँ ।।



कातिलाना वार करती वो अदा भूली नहीं ।

शह्र में चर्चा बहुत थी अब निशाना फिर कहाँ ।।



तोड़ते वो आइनों को बारहा इस फिक्र में ।

लुट गया है हुस्न का इतना खज़ाना फिर कहाँ… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 25, 2017 at 10:30pm — 2 Comments

शॉर्ट एण्ड स्वीट - लघुकथा / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

'गणेश चतुर्थी' के एक दिन पूर्व विद्यालय में प्रार्थना-सभा में, अपनी बारी आने पर, शिक्षक ने बड़े जोश में भाषण दे डाला। श्रीगणेश जी के गजानन रूप धारण से लेकर उनसे जुड़ी मान्यताएं बताकर वे उनके शरीर के भागों से जुड़ी शिक्षाप्रद मान्यताएं भी सुना ही रहे थे कि एक वरिष्ठ शिक्षक ने इशारा करते हुए भाषण रुकवा दिया। बहुत ही शांति के साथ भाषण सुनने के बाद उस अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के छात्रों ने तो ज़ोरदार तालियां बजायीं, लेकिन शिक्षकों ने नहीं। भाषण देने वाले शिक्षक को कुछ अजीब सा लगा।



कक्षा… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 25, 2017 at 7:10am — 14 Comments

दरगाह

प्रकाश को काटते नभोचुम्बी पहाड़

अब हुआ अब हुआ अँधेरा-आसमान ...

अनउगा दिन हो यहाँ, या हो अनहुई रात

किसी भी समय स्नेह की आत्मा की दरगाह

दीवारों के सुराख़ों में से बुलाती है मुझको

और मैं आदतन चला आता हूँ तत्पर यहाँ

पर आते ही आमने-सामने सुनता हूँ आवाज़ें

इस नए निज-सर्जित अकल्पनीय एकान्त में

अनबूझी नई वास्तविकताओं के फ़लसफ़ों में

और ऐसे में अपना ही सामना नहीं कर पाता

झट किसी दु:स्वप्न से जागी, भागती,…

Continue

Added by vijay nikore on August 25, 2017 at 6:49am — 23 Comments

ग़ज़ल (प्रथम प्रयास)

१२२ १२२ १२२ १२२

नहीं है यहाँ पर मुझे जो बता दे
सही रास्ता जो मुझे भी दिखा दे

ये कैसी हवा जो चली है यहाँ पर
परिंदा नहीं जो पता ही बता दे

चले थे कभी साथ साथी हमारे
पुरानी लकीरों से यादें मिटा दें

कभी तो मिलेगी ज़िन्दगी पुरानी
वफ़ा की ज्वाला यहाँ भी जला दे

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 24, 2017 at 9:00pm — 24 Comments

मफ़लरधारी (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

नेता, जनता और कुर्सी खेल के सामान हैं। जी हां, मदारी का खेल। नकलची बंदर-बंदरिया का खेल। तमाशबीन जनता का खेल। सादे या रंगीन मफ़लरधारी नेताओं का खेल। मीडिया द्वारा घेरे जाने का खेल। लेकिन यहां बंदर-बंदरिया नहीं नाच रहे हैैं। मफ़लरधारी नाचता हुआ थक कर 'ज़मीन' पर बैठा हुआ माथे पर हाथ धरे जनता को निहार रहा है। रस्सी से बंधी कुर्सी रूपी बंदरिया सजी धजी हुई है। ऐसे ही बंधी हुई जनता रूपी बंदर चीख कर कुछ कहने की कोशिश कर रहा है।



"अब कितना नाचोगे? मेरा मोह छोड़ दो, मुझे मुक्त कर दो! कुर्सी ने… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 24, 2017 at 6:39pm — 10 Comments

अंतर्मन भावना - लघुकथा

"बेटा साहब को आदाब करो।" खालिद ने उसे इशारे से कहा तो बच्चे ने हाथ उठा जरा सा सिर झुका दिया।



कई हफ्तों बाद वह खालिद के पास आया था। एक हादसे में अकेला रह जाने के बाद से खालिद, 'घाटी' की उस खंडहर बनी मस्जिद में तन्हा ही जिंदगी गुजार रहा था और अक्सर दहशतगर्दो से जुडी अहम खबरें उसे दे दिया करता था। बच्चे को साथ देख वह सहज ही उसके बारें में जानने को उत्सुक हो गया। "इस बच्चे का परिचय नही दिया तुमने खालिद मियाँ!"



"कुछ ज्यादा तो मैं भी नहीं जानता साहब। बस यूँ समझिये, मेरी ही तरह… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2017 at 1:26pm — 13 Comments

लघुकथा--कॉमेडियन

"माँ , आज तुमको बताना ही होगा ?" राजू बोला ।
"क्या ?" माँ बोली ।
"यही कि तुम मेरे आज तक के किसी भी एक्ट पर नहीं हँसी । मेरे एक्ट पर तुम्हें हँसी क्यों नहीं आती ? मेरे एक्ट से लोगों के पेट में बल पड़ जाते हैं । सारा शहर मुझे " राजू द ग्रेट
कॉमेडियन " कहता है ।"
" बेटा , जब हमारी भूख , गरीबी , अभाव , पीड़ा और तेरे पिता की कैंसर से मौत ने तुझे ग्रेट कॉमेडियन बना ही दिया है तो मुझे हँसने की क्या ज़रूरत है ।" राजू की आँखों से आँसू छलक पड़े ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on August 23, 2017 at 10:00pm — 19 Comments

आज तू जो मुझे बदला सा नज़र आता है..............संतोष.

अरकान हैं 'फ़ाइलातून फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

आज तू जो मुझे बदला सा नज़र आता है
दोस्ती में तिरी धोका सा नज़र आता है

तूने छोड़ा था मुझे यार किसी की शह पर
इसलिये आज तू तन्हा सा नज़र आता है

ये तो शतरंज की बाजी है बिछाई उसकी
तू तो इस खेल में मुहरा सा नज़र आता है

है शिकन साफ़,शिकस्तों की तिरे माथे पर
तू हमें कुछ डरा सहमा सा नज़र आता है
#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by santosh khirwadkar on August 23, 2017 at 8:30pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - अब हक़ीकत से ही बहल जायें ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212   22 /122

मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें

अब हक़ीकत से ही बहल जायें

 

ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे

ता कि कुछ कैमरे दहल जायें

 

तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब

कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें

 

मेरे अन्दर का बच्चा कहता है  

चल न झूठे सही, फिसल जायें

 

शह’र की भीड़ भाड़ से बचते

आ ! किसी गाँव तक निकल जायें

 

दूर है गर समर ज़रा तुमसे

थोड़ा पंजों के बल उछल जायें

 

चाहत ए रोशनी में…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on August 23, 2017 at 8:11pm — 37 Comments

ग़ज़ल -

221 1221 1221 122



माना कि तेरे दिल की इनायत भी बहुत थी ।

पर साथ इनायत के हिदायत भी बहुत थी ।।



आते थे वो बेफिक्र मेरे शहर में अक्सर ।

तहजीब निभाने की रवायत भी बहुत थी ।।



महंगे मिले हैं लोग मुहब्बत के सफ़र में ।

यह बात अलग है कि रिआयत भी बहुत थी।।



चेहरे को पढा उसने कई बार नज़र से ।

महफ़िल में तबस्सुम की किफ़ायत भी बहुत थी ।।



वो हार गए फिर से अदालत में सरेआम ।

हालाकि नजीरों की हिमायत भी बहुत थी ।।



छूटी हैं… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 23, 2017 at 9:00am — 8 Comments

जब भी देखूँ वो मुझे  चाँद नज़र आता है: सलीम रज़ा रीवा

2122  1122  1122 22

जब भी देखूँ वो मुझे  चाँद नज़र आता है !

रोशनी बन के दिलो  जाँ मे समा जाता है !!



उस हसीं शोख़ का दीदार हुआ है जब से !

उसका ही चेहरा हरेक शै में नज़र आता है !!



मै मनाऊँ तो भला  कैसे मनाऊँ उसको !

मेरा महबूब तो बच्चो सा मचल जाता है !!



क्यूं भला मान लूँ ये इश्क़ नहीं है उसका !

छु्‍पके तन्हाई में  गीतों को मेरे गाता है !!



मैं तुझे चाँद कहूँ  फूल कहूँ या  खुश्बू !

तेरा ही चेहरा हरेक शै…

Continue

Added by SALIM RAZA REWA on August 22, 2017 at 11:00pm — 21 Comments

क्वैक कवि / किशोर करीब

डिग्री धारी एक कवि ने पूछा इक बेडिग्रे से

कैसे लिखते हो कविताएँ दिखते तो बेफिक्रे से।

अलंकार रस छंद वर्तनी कैसे मैनेज करते हो

करते हो कुछ काट - चिपक या फिर अपना ही धरते हो।

पिंगल और पाणिनि को पढ़ मैं तो सोचा करता हूँ,

मात्रिक वार्णिक वर्णवृत्त मुक्तक में लोचा करता हूँ।

यति गति तुक मात्रा गण आदि सभी अंगों को ढो लाते

जरा बताओ ज्ञान कहाँ से इतने सब कुछ का पाते?

-- तब बेचारे हकबकाए क्वैक कवि ने उत्तर दिया --

भाई मैंने आज ही जाना इतने…

Continue

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 22, 2017 at 8:25pm — 4 Comments

ग़ज़ल - चाँद छिपता रहा फासले के लिए

212 212 212 212



इक नज़र क्या उठी देखने के लिए ।

चाँद छिपता गया फासले के लिए ।।



कोई सरसर उड़ा ले गई झोपड़ी ।

सोचिये मत मुझे लूटने के लिए ।।



मौत मुमकिन मेरी उसको आना ही है ।

दिन बचे ही कहाँ काटने के लिए ।।



जहर जो था मिला आपसे प्यार में ।

लोग कहते गए घूँटने के लिए ।।



रात आई गई फिर शहर हो गई ।

याद कहती रही जागने के लिए ।।



जब रकीबो से चर्चा हुई आपकी ।

फिर पता मिल गया ढूढने के लिए ।।



सज के आए हैं… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 22, 2017 at 6:00pm — 10 Comments

लौट आओ ....

लौट आओ .... 

बहुत सोता था

थक कर

तेरे कांधों पर

मगर

जब से

तू सोयी है

मैं

आज तक

बंद आँखों में भी

चैन से

सो नहीं पाया

माँ

जब भी लगी

धूप

तुम

छाया बन कर

आ गए

जब से

तुम गए हो

मुझे

धूप

चिढ़ाती है

छाया में भी

बहुत सताती है

पापा

डांटते थे

जब पापा

माँ

तुम मुझे

अपनी ममता में

छुपाती थी

डांटती थी

जब माँ…

Continue

Added by Sushil Sarna on August 22, 2017 at 5:52pm — 17 Comments

ग़ज़ल...वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

१२२२   १२२२ ​   १२२२    १२२२​

वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है

तेरी यादों का मौसम है लबों पे इक तराना है



तुझी को याद करता हूँ तेरा ही नाम लेता हूँ

यही इक काम है बाकी तुझे अपना बनाना है



कभी जाये न ये मौसम बहे नैंनो से यूँ सावन

दिखाऊँ किस तरह जज्बात​ राहों में जमाना है



रही बस याद बाकी है यही फरियाद बाकी है

सुनाऊँ क्या जमाने को खुदी को आजमाना है



मिलन होता न उल्फत में कटेगी जिन्दगी पल में

ये साँसें हैं बिखर जायें अमर… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 22, 2017 at 5:00pm — 23 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
चलो अब अलविदा कह दें......

मुझे कुछ और करना है, तुम्हें कुछ और पाना है

मुझे इस ओर जाना है, तुम्हें उस ओर जाना है

कि अब मुमकिन नहीं लगता

कभी इक ठौर बैठें हम

हमें मंजिल बुलाती है, चलो अब अलविदा कह दें....

जहाँ संबोधनों के अर्थ भावों को न छू पाएं

वहाँ सपने कहो कैसे सहेजें और मुस्काएं ?

चलो उस राह चलते हैं जहाँ हों अर्थ बातों में

स्वरों में प्राण हो जिसके मुझे वो गीत…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on August 22, 2017 at 12:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222



हमारे ग़म का उसको क्या कभी अंदाज होता है।

हमारी राह में कांटे जो वो हरबार बोता है।



कभी रूठे अगर जो हम तो ये भी याद रखना तू,

न फिर पायेगा हमको तू अगर इस बार खोता है।



बता इस ग़म का तुझपर क्यों नहीं कोई असर होता,

तू हर दम मुस्कुराता है हमारा दिल जो रोता है।



झमेले ज़िन्दगी के मुश्किलों से झेलते हैं हम,

अकेले जूझते हैं हम उधर उधर वो खूब सोता है।



अजब अपनी कहानी है रहे हैं हम निथरते ही,

बरसती आँख का…

Continue

Added by मंजूषा 'मन' on August 22, 2017 at 12:00pm — 17 Comments

पर्यावरण / किशोर करीब

कौन जाने क्या हुआ है धरा क्यों है भीत।

हो रहा संक्रमित कैसे मौसमों का रीत।

गुम हुए हैं घरों के खग

छिपकली हैं शेष,

क्या पता कौए गए हैं

दूर कितने देश।

कब उगेंगे वृक्ष नूतन होगी कल - कल नाद

कैसे होगी पत्थरों पर हरीतिमा की शीत।

धूप की गर्मी बढ़ी है

सूखती है दूब,

आस का पंछी तड़पता

धैर्य जाता डूब।

क्षीण होती जा रही है अब दिनोदिन छाँव

कब सुनाई देगी वो ही मौसमी संगीत।

आ धमकती सुबह से ही

गर्म किरणें…

Continue

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 21, 2017 at 9:54pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हैं वफ़ा के निशान समझो ना (प्रेम को समर्पित एक ग़ज़ल "राज')

२१२२ १२१२  २२

खामशी की जबान समझो ना

अनकही दास्तान समझो ना

 

सामने हैं मेरी खुली बाहें

तुम इन्हें आस्तान समझो ना

 

ये गुजारिश सही मुहब्बत की

तुम खुदा की कमान समझो ना

 

स्याह काजल बहा जो आँखों से

हैं वफ़ा के निशान  समझो ना 

 

बस  गए हो मेरी इन आँखों में

इनमें  अपना जहान  समझो ना

 

झुक गया है तुम्हारे कदमों में

ये मेरा आसमान समझो…

Continue

Added by rajesh kumari on August 21, 2017 at 10:43am — 42 Comments

नए चेहरों की कुछ दरकार है क्या

1222 1222 122



नए चेहरों की कुछ दरकार है क्या ।

बदलनी अब तुम्हें सरकार है क्या ।।



बड़ी मुश्किल से रोजी मिल सकी है ।

किया तुमने कोई उपकार है क्या ।।



सुना मासूम की सांसें बिकी हैं ।

तुम्हारा यह नया व्यापार है क्या ।।



इलेक्शन लड़ गए तुम जात कहकर ।

तुम्हारी बात का आधार है क्या ।।



यहां पर जिस्म फिर नोचा गया है ।

यहां भी भेड़िया खूंखार है क्या ।।



बड़ी शिद्दत से मुझको पढ़ रहे हो ।

मेरा चेहरा कोई अखबार है क्या…

Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 20, 2017 at 4:30pm — 12 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service