कुण्डलियाँ-
नारी अब अबला नहीं, कहने लगा समाज ।
है घातक हथियार से, नारि सुशोभित आज ।
नारि सुशोभित आज, सुरक्षा करना जाने ।
रविकर पुरुष समाज, नहीं जाए उकसाने ।
लेकिन अब भी नारि, पड़े अबला पर भारी |
इक ढाती है जुल्म, तड़पती दूजी नारी ।|
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on September 24, 2013 at 11:53am — 12 Comments
प्रेम दुलार जगावत मानवता मन भावत भारत प्यारा ।
गीत खुशी सब गावत नाचत मंगल थाल सजावत न्यारा ।
बंधु सभी मिल बैठ करे नित चिंतन सुंदर हो जग प्यारा ।
ये सपना मन भावन देख ‘‘रमेश‘‘ खुशी मन गावत न्यारा ।
.........................................................
मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on September 24, 2013 at 10:34am — 8 Comments
अरकान : १२२२/ १२२२/ १२२२/ १२२२
गिरें तो फिर सम्हलना ही हमारी कामयाबी है !
सफर में चलते रहना ही हमारी कामयाबी है !
नही ये कामयाबी है कि मंजिल पा लिया हमने…
ContinueAdded by पीयूष द्विवेदी भारत on September 24, 2013 at 8:24am — 26 Comments
Added by Ravi Prakash on September 24, 2013 at 7:30am — 14 Comments
काम बेहद मामूली था पर बड़े बाबू फाइल पर कुंडली मारे बैठे थे । मित्रों ने बताया कि बिना हजार-डेढ़ हजार का चढ़ावा लिए वो काम करने वाले नही हैं । गुप्ताजी यह सुन कर चुप रह गये ।
"बड़े बाबू एक छोटा सा काम आपके पास पेंडिंग है, यदि कर देते तो बड़ी मेहरबानी होती"
"हाँ-हाँ, गुप्ताजी हो जाएगा, थोड़ा खर्च-वर्च कर दीजिएगा", बड़े बाबू बगैर लाग-लपेट बोल उठे ।
"देखिए बड़े बाबू मैं खर्च करने की स्थिति मे तो नही…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2013 at 8:59pm — 60 Comments
Added by Neeraj Neer on September 23, 2013 at 8:30pm — 25 Comments
कुण्डलिया
सावन संग आज लगी, सखी नैन की होड़|
मान हार कौन अपनी, देत बरसना छोड़||
देत बरसना छोड़, नैन परनार बहे हैं |
कंचुकि पट भी भीज , विरह की गाथ कहे हैं ||
पड़े विरह की धूप, जले है विरहन का मन|
हिय से उठे उसाँस, बरसे नैन…
ContinueAdded by shalini rastogi on September 23, 2013 at 6:29pm — 14 Comments
Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 23, 2013 at 5:48pm — 6 Comments
२१२२/११२२/२२
झूठ अब सामने लाया जाये
आइना सबको दिखाया जाये
तीरगी है तो उदासी कैसी
दीप फ़ौरन ही जलाया जाये
आज दिल में है बड़ी बेचैनी
साक़िया भर के पिलाया जाये
लाडली वो भी किसी मा की है
फिर बहू को न सताया जाये
तोड़ डाला जो खिलौना उसने
उसको इतना न रुलाया जाये
बात गर करनी मोहब्बत की तो
दिल से नफरत को मिटाया…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 23, 2013 at 5:30pm — 25 Comments
Added by shashi purwar on September 23, 2013 at 3:30pm — 20 Comments
पथिक !!!
चल दिये कहाँ ?
क्या कंटक पथ देख
विचलित हो उठे तुम
चिलचिलाती धूप की तपन मे
सुलग उठे तुम
ढूँढने छाँव, तड़प कर
चल दिये कहाँ ?
स्वप्नों की टूटी गागर
व्यथित आकुल मन
हारी हुईं अभिलाषायेँ
बिखरा कर तुम
ढूँढने नव उजास
चल दिये कहाँ ?
रेतीले !!!!
ये गर्द भरे रास्ते
मरुथल मे जल की बूंद
मृग मरीचिका मे कस्तूरी
ढूँढने नन्दन वन
चल दिये कहाँ ?
अप्रकाशित…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 1:45pm — 21 Comments
तुमको देखे
बरसों बीते
सूखे फूल
किताबों में
अहिवाती बस
एक छुअन ही
रही महकती
हाथों में
मन के कोरे
काग़ज भी तो
क्षत को गिरे
प्रपातों में
अनगिन पारिजात
मगर तुम
रख गए
कलम-दावातों में
आओ ना
इस इंद्रधनुष पर
दो पल बैठें
बात करें
शावक जैसी
कोमल राते
उतर रही
आहातों में
(सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by राजेश 'मृदु' on September 23, 2013 at 1:06pm — 16 Comments
212 212 212 212
.
छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा
दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा
सड़ चुकी मान्यता सांस फिर ले रही
दिन चढ़े तक कोई शख़्स ज्यों सो रहा
ज़ाहिरन बात ये कह रहा है करम
बढ़ गया पाप जब तो कोई धो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 12:00pm — 38 Comments
मसले पर जब बलबला, शब्द मनाते जीत |
भाव मौन रहकर मरे, यही पुरातन रीत |
यही पुरातन रीत, तीर शब्दों के घातक |
दे दे गहरी पीर, ढूँढ़ ले खुशियाँ पातक |
बड़े विकारी शब्द, मचलती इनकी नस्लें |
मसले पड़े ज्वलंत, शब्दश: रविकर मसले ||
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on September 23, 2013 at 11:32am — 9 Comments
शर्म से हम आँख मीचे क्यूँ रहें
दौड़ है सोहरत की पीछे क्यूँ रहें
तब हुए पैदा जमीं पे अब मगर
हौसलों के पर हैं नीचे क्यूँ रहें
सच का लज्जत चख चुके हैं हम यहाँ
फिर बता दो हम भी तीखे क्यूँ रहें
जानते हैं फल में कीड़े कब लगे
इस कदर फिर हम भी मीठे क्यूँ रहें
जिन लकीरों ने कराई जंग है
“दीप” अब तक उनको खींचे क्यूँ रहें
संदीप कुमार पटेल “दीप”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 22, 2013 at 8:13pm — 32 Comments
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मस्तक राजे ताज सभी भाषा की हिन्दी
ज्ञान दायिनी कोष बड़ा समृद्ध विशाल है
संस्कृत उर्दू सभी समेटे अजब ताल है
दूजी भाषा घुलती हिंदी दिल विशाल है
लिए हजारों भाषा करती कदम ताल है
जन - मन जोड़े भौगोलिक सीमा को बांधे
पवन सरीखी परचम लहराती है हिंदी
भारत माँ की बिंदी प्यारी अपनी हिन्दी ...........
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१ १ स्वर तो ३ ३ व्यंजन 52 अक्षर अजब व्याकरण
गिरना…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on September 22, 2013 at 7:30pm — 14 Comments
Added by Poonam Shukla on September 22, 2013 at 10:20am — 20 Comments
मोर दशा वह देखत सोचत अविरल प्रेम अश्रु जल ढारे ।
पागल जो बन घूम रहा दर बे दर प्यार छुपा मन मारे ।
दोष रहा किसका वह बन चातक ढूंढ रहा दिल हारे ।
मै वरती उसको पर ये दुनिया भई प्रेम दुश्मन हमारे ।
मोर - मेरा/मेरी
..................................
मोलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on September 22, 2013 at 10:00am — 7 Comments
अब न मैं भयभीत तुझसे, मेघ माघी..!!
मैं पड़ी थी,
एक युग से चिर निशा की कालिमा में कैद कल तक,
रश्मि से अनजान, रवि की लालिमा से भी अपरिचित,
दृष्टि में संकोच का संचार, भय से प्राण सिमटे,
दृग झुके से, अश्रु प्लावित, अधर भी अधिकार वंचित,…
Added by अजय कुमार सिंह on September 22, 2013 at 12:33am — 8 Comments
कोई अच्छा बहाना देख लेना
कहीं दिलकश ठिकाना देख लेना /१
अगर मिलना हो तुमको हमनशीं से
तो फिर मौसम सुहाना देख लेना/२
भले ही मुश्किलों में हम पले हैं
हमारा मुस्कुराना देख लेना/३
मजा लेना अगर है दुश्मनी का
कोई दुश्मन पुराना देख लेना /४
किसी की आबरू यूँ मत उछालो
कभी इज्ज़त गंवाना देख लेना/५
सितारों की कबड्डी में मजा क्या
कभी परदा हटाना देख लेना /६
हमारा ‘सारथी’ है नाम समझे
मिज़ाजे - शाइराना देख…
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on September 21, 2013 at 5:00pm — 32 Comments
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