चिड़िया के दो बच्चों को
पंजों में दबाकर उड़ गया है एक बाज
उबलने लगी हैं सड़कें
वातानुकूलित बहुमंजिली इमारतें सो रही हैं
छोटी छोटी अधबनी इमारतें
गरीबी रेखा को मिटाने का स्वप्न देख रही हैं
पच्चीस मंजिल की एक अधबनी इमारत हँस रही है
कीचड़ भरी सड़क पर
कभी साइकिल हाथी को ओवरटेक करती है
कभी हाथी साइकिल को
साइकिल के टायर पर खून का निशान है
जनता और प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं हैं
कि…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2013 at 7:43pm — 25 Comments
सीमांकन दूजा करे, मर्यादा सिखलाय |
पहला परवश होय तब, हृदय देह अकुलाय |
हृदय देह अकुलाय, लगें रिश्ते बेमानी |
रविकर पानीदार, उतर जाता पर पानी |
यह परिणय सम्बन्ध, पके नित धीमा धीमा |
करिए स्वत: प्रबन्ध, अन्य क्यूँ पारे सीमा -
मौलिक / अप्रकाशित
(दुर्गा-पूजा / विजयादशमी की मंगल-कामनाएं )
Added by रविकर on October 10, 2013 at 4:00pm — 11 Comments
2 1 2 2 2 1 2 2 2 2 1 2
तेरी मैं परछाई , तुम हो मेरी पिया
अब कहीं लागे नहीं तुम बिन यह जिया/
आसमाँ से है उँचा,सागर से गहन
ऐसा सच्चा प्यार हमने तुमको किया/
चाँद तुम मेरे अगर, मैं हूँ चाँदनी
ऐसा है अपना मिलन ओ मेरे पिया/
आइना तुम हो अगर मैं तस्वीर हूँ
अक्स तुझमें मेरा ही है दिखता पिया
तुम अगर दीया हो तो 'बाती' हूँ तेरी
हैं अधूरे एक दूजे बिन ओ पिया/
मैं समाई सिन्धु में जैसे…
ContinueAdded by Sarita Bhatia on October 10, 2013 at 11:30am — 9 Comments
एक आसमान को छूता
पहाड़ सा / दरक जाता है
मेरे भीतर कहीं ..
घाटियों में भारी भरकम चट्टानें
पलक झपकते
मेरे संपूर्ण अस्तित्व को
कुचल कर
गोफन से छूटे / पत्थर की तरह
गूँज जाती हैं.
संज्ञाहीन / संवेदनाहीन
मेरे कंठ को चीर कर
निकलती मेरी चीखें
मेरे खुद के कान / सुन नहीं पाते
मैं देखता हूँ
मेरे भीतर खौलता हुआ लावा
मेरे खून को / जमा देता है
जब तुम न्याय के सिंहासन पर बैठ कर
सच की गर्दन मरोड़कर
देखते देखते निगल…
Added by dr lalit mohan pant on October 10, 2013 at 11:00am — 16 Comments
Added by Poonam Shukla on October 10, 2013 at 10:34am — 12 Comments
गीत (जब से अपने जुदा हो गए)
.
जब से अपने जुदा हो गए, ख्वाहिशें सब फ़ना हो गईं,
मौत भी जैसे नाराज़ है, ज़िंदगी बेवफा हो गई।
दर्द के कुछ थपेड़ों ने आकर के फिर,…
ContinueAdded by Sushil.Joshi on October 10, 2013 at 6:00am — 16 Comments
!!! सारांश !!!
बह्र - 2 2 2
कर्म जले।
आंख मले।।
धर्म कहां?
पाप पले।
नर्म गजल,
कण्ठ फले।
राह तेरी ,
रोज छले।
हिम्मत को,
दाद भले।
गर्म हवा,
नीम तले।
जीवन क्या?
हाड़ गले।
आफत में,
बह्र खले।
प्रीत करों,
बन पगले।
विव्हल मन,
शब्द टले।
दृषिट मिली,
सांझ ढले।
गर मुफलिस,
बात…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 9, 2013 at 8:00pm — 34 Comments
आशीर्वाद !!
वह कोई नब्बे के आस पास वृदधा रही होगी जो सामान सहित अपने ही घर के बाहर बैठी थी न जाने क्या अँड बंड बड़बड़ा रही थी । लोग सहनुभूति से देखते और और चल देते किसी ने हिम्मत भी की उससे जानने की तो वह ठीक ठीक नहीं बता पा रही थी । पता नहीं क्रोध की अधिकता थी या ममता और दुःख का मिश्रित भाव था जो शब्द न निकल रहे थे । बेटा कुछ दिनों से बाहर गया हुआ था और घर पर बहू अकेली…
ContinueAdded by annapurna bajpai on October 9, 2013 at 7:30pm — 26 Comments
2 1 2 2 1 1 2 2 2 2
वो मेरी रूह मसल देता है
साँस लेने में दखल देता है
जाने आदत भी लगी क्या उसको
खुद की ही बात बदल देता है
राज़ की बात उसे मत कहना
बाद में राज़ उगल देता है
मैं उसे रोज़ दुवायें देती
वो मुझे रोज़ अज़ल देता है
उसको मालूम नहीं, गम में भी
वो मुझे रोज़ ग़ज़ल देता है
संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित
Added by sanju shabdita on October 9, 2013 at 4:59pm — 24 Comments
फँसा रहता झमेले में,
मिले जो इनमें कड़वाहट,
नहीं मिलती करेले में,
हुनर जो लेरुओं में है,
नहीं इंसा गदेले में,
भले हम जानवर होकर,
यहाँ आदम के मेले में,
गुरु तो हैं गुरु लेकिन,
भरा है ज्ञान चेले में..
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by अरुन 'अनन्त' on October 9, 2013 at 4:30pm — 36 Comments
"अरे गप्पू ये तो अपने ही साहब हैं चल चल जल्दी.."
जैसे ही ट्राफिक लाईट पर गाड़ी रुकी, महज दस साल का टिंकू अपने छोटे भाई गप्पू के साथ दौड़ता हुआ कार की दाहिनी ओर आकर बोला,
“अरे साब आज आप इतनी जल्दी ?"
"रावण जलता देखना है ", साहब ने जल्दी से उत्तर दिया |
"अच्छा.. साहब गजरा.. ",
टिंकू के हाथ में गजरा देखते ही बगल में बैठी मेमसाहब बोली, "अरे ले लो, कितने का है ?"
"चालीस रूपये का..", टिंकू ने तुरंत जबाब दिया ।
सुनते ही साहब तुनक…
Added by rajesh kumari on October 9, 2013 at 11:00am — 51 Comments
2122212221222
ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!
बुत शहर में बोलते, इंसान भी तो हैं!
भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े,
साथ में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!
और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,
मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।
गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़
यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!
क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?
जानकर ये बन रहे, नादान भी तो…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on October 9, 2013 at 10:30am — 33 Comments
(1)
बचपन तब का और था, अब का बचपन और |
दादी की गोदी मिली, नानी हाथों कौर |
नानी हाथों कौर, दौर वह मस्ती वाला |
लेकिन बचपन आज, निकाले स्वयं दिवाला |
आया की है गोद, भोग पैकट में छप्पन |
कंप्यूटर के गेम, कैद में बीते बचपन ||
(2)
संशोधित रूप-
तब का बचपन और था, अब का बचपन और |
तब दादी गोदी मिली, नानी से दो कौर |
नानी से दो कौर, दौर वह मस्ती वाला |
लेकिन बचपन आज, महज दिखता दो साला…
Added by रविकर on October 9, 2013 at 9:00am — 15 Comments
हाय री किस्मत्
देखो सारे कर रहे, दूजा इन्क्रीमैंट,
अपना पिछले वर्ष का, बाकी है पेमैंट।
बाकी है पेमैंट, करो मत जल्दी-जल्दी,
कई ‘अटल’ हैं हाय, चढ़ानी जिनको हल्दी।
कह ‘जोशी’ कविराय, सभी किस्मत के…
ContinueAdded by Sushil.Joshi on October 9, 2013 at 6:43am — 24 Comments
एक शहर
अत्यधिक आधुनिक टापुओ का है
जहाँ गरीवी बहुत बौनी दिखती है
हर गली में अमीरी गुलजार है
वहाँ गरीवो से अप्रत्यासित घ्रणा
अमीरों के अमीरी से बेशुमार प्यार है
वह "ग़ालिब "का शहर प्रेम से कितनी दूर हो गया है
हैवानियत ,दरिन्गीं ,लफ्फाजियो के लिए मशहूर हो गया है
इस शहर में रहते है भारत के कर्णधार
जिनका प्रिय पेशा है भ्रस्टाचार
ओ किसी भी काम में अपने को शिद्ध पुरुष मानते है
तोप ,प्याज ,अनाज से लेकर चारा तक खाने में माहिर है …
Added by दिलीप कुमार तिवारी on October 8, 2013 at 11:30pm — 13 Comments
जुग की मांग
समय की डिमांड
बात मेरी मान
बन जाएँ थेथर श्रीमान....
सलीकेदार लोगों को
जीने नही देगा समाज
भले से अच्छा था विगत
लेकिन बहुत क्रूर है आज
जीने की ये कला
जिसे सीखने में सबका भला
वरना रह जाओगे तरसते
आपका हिस्सा ये थेथर
झटक लेंगे हँसते-हस्ते...
हम जिस समय में जी रहे हैं
उसमे बदतमीज़,…
Added by anwar suhail on October 8, 2013 at 10:05pm — 8 Comments
एक इशारा अधूरा सा
********************
छू कर
पहन कर
चख कर
देख लेते हैं
कभी खरीदते हैं
कभी यूँ ही लौट आते हैं
सब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 8, 2013 at 8:30pm — 30 Comments
Added by रमेश कुमार चौहान on October 8, 2013 at 8:05pm — 7 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on October 8, 2013 at 7:09pm — 13 Comments
हे! कमल पर बैठने वाली सुंदरी भगवती सरस्वती को मेरा प्रणाम । तुम सब दिशाओं से पुजजीभूत हो । अपनी देह लता की आभा से ही क्षीर समुद्र को अपना दास बनाने वाली , मंद मुस्कान से शरद ऋतु के चंद्रमा को तिरस्कृत करने वाली............
माँ शारदा !!!
मार्ग प्रशस्त करो माँ अम्ब जगदम्ब हे !
आपकी शरण हम है माँ अम्ब जगदम्ब हे ! ........
श्वेत कमल विराजती वीणा कर धारती हे !
श्वेत हंस वाहिनी माँ श्वेताम्बर धारणी हे !
कमल सदृश नयन माँ भाग्य अनूपवती हे…
ContinueAdded by annapurna bajpai on October 8, 2013 at 6:00pm — 14 Comments
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