परिमूढ़ प्रस्ताव
अखबारों में विलुप्त तहों में दबी पड़ी
पुरानी अप्रभावी खबरों-सी बासी हुई
ज़िन्दगी
पन्ने नहीं पलटती
हाशियों के बीच
आशंकित, आतंकित, विरक्त
साँसें
जीने से कतराती
सो नहीं पातीं
हर दूसरी साँस में जाने कितने
निष्प्राण निर्विवेक प्रस्तावों को तोलते
तोड़ते-मोड़ते
मुरझाए फूल-सा मुँह लटकाए
ज़िन्दगी...
निरर्थक बेवक्त
उथल-पुथल में लटक…
ContinueAdded by vijay nikore on November 24, 2014 at 8:30am — 22 Comments
पापा पापा बतलाओ ना , अच्छे दिन कैसे होते हैं
क्या होते हैं चाँद सरीखे, या तारों जैसे होते हैं.
बेटा ! दिन तो दिन होते हैं ,गिनती के पल-छिन होते हैं
अच्छे बीतें तो सुखमय हैं, वरना ये दुर्दिन होते हैं.
पापा पापा बतलाओ ना , अच्छे दिन कैसे होते हैं
क्या होते हैं दूध-मलाई , या माखन जैसे होते हैं.
बरसों से मैं सुनते आया, स्वप्न सजीले बुनते आया
लेकिन देखे नहीं आज तक, अच्छे दिन कैसे होते हैं
पापा पापा बतलाओ…
ContinueAdded by अरुण कुमार निगम on November 23, 2014 at 11:00pm — 10 Comments
डोभाल जी का मकान बन रहा था, बड़े ही धार्मिक व्यक्ति थे और प्रकृति प्रेमी भी,एक माली भी रख लिया था ,उसका कार्य एक सुन्दर बगीचे का निर्माण करना था ,वह भी धुन का पक्का था , उसने तरह-तरह के फूल ,घास ,पेड़ लगा दिए और कभी –कभी वह सजावट के लिए रंग बिरंगे पत्थर भी उठा कर ले आता और बड़े अच्छे शिल्पी की तरह उन्हें पौधों के इर्द-गिर्द सजाता ,उस बगीचे में अब तरह तरह के फूल खिलने लगे थे ,वही नीचे एक बड़ा काला सा पत्थर भी था जिस पर माली अपना खुरपा रगड़ता और पौधों के नीचे से खरपतवार…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 23, 2014 at 10:00pm — 17 Comments
जिसने दिया हमें आदर्श शिष्य की पहचान
गुरु को दे अंगूठा जब एकलव्य बने महान
हो लगन कुछ सीखने की इनसे सीखे हम
जग को हिला सकते नहीं किसी से पीछे हम
गुरु-शिष्य की फिर वही परम्परा जगानी है
हमे भी इन सितारों में एक जगह बनानी है |
अपने प्राणों की आहुति देकर जो चले गये
इन्कलाब का नारा दे ,गोली खाकर जो चले गये
स्वतंत्रता -गणतन्त्र दिवस पाठशाला तक सिमट गये
जिनके हाथों में बागडोर वो मधुशाला तक सिमट गये
जो भूल गये…
ContinueAdded by maharshi tripathi on November 23, 2014 at 6:55pm — 7 Comments
"पापा, पढ़ने के बाद मुझे जाॅब तो मिल जाएगी ना?"
"किस मूर्ख ने कहा है तुमको नौकरी करनी है! तुमको तो राज करना है राज, मेरे राजकुमार बेटे।"- नेता जी ने अपने 12 साल के लड़के को सीने से लगा लिया।
मौलिक और अप्रकाशित
Added by विनोद खनगवाल on November 23, 2014 at 4:12pm — 6 Comments
बंद खिडकियों से
झांकता
प्रकाश
चारो ओर स्याह-स्याह
मुट्ठी भर
उजास
टूटी हुयी
गर्दन लिए
बल्ब रहे झाँक
ट्यूब लाईट
अपना महत्त्व
रहे आंक
सर्र से
गुजर जाते
चौपहिया वाहन
सन्नाटा
विस्तार में
करता अवगाहन
तारकोली
सड़क सूनी
रिक्त चौराहे
सर्पीली…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2014 at 12:00pm — 8 Comments
शोर होता रहा रोशनी के लिये |
लोग लड़ते रहे चाशनी के लिये |
बेबसी का नज़ारा न देखा कोई ,
मार होती रही चाँदनी के लिये |
लूट मचती रही चीख होता रहा ,
अश्क गिरते रहे ज़िंदगी के लिये |
हाथ बाँधे खड़े देखते रह गये ,
घर जला आग में दोस्ती के लिये |
नाव डूबी वहीँ आब ना था जहाँ ,
यार बैरी बना…
Added by Shyam Narain Verma on November 22, 2014 at 5:00pm — 7 Comments
वर्ष का पहला दिन, दीवार पर टंगा नया कैलेण्डर और जनवरी का पृष्ठ अपने भाग्य पर इतरा रहा था, बाकी महीनों के पृष्ठ दबे जो पड़े थे, सभी को प्रणाम करते देख वह अहंकार और आत्ममुग्धता से भर गया उसे क्या पता कि लोग उसे नहीं बल्कि उस पृष्ठ पर लगी माँ लक्ष्मी की तस्वीर को प्रणाम करते हैं ।
दिन-महीने बीतते गये, संघर्ष सफल हुआ और सबसे नीचे दबा दिसंबर माह का पृष्ठ आज सबसे ऊपर था । उसके ऊपर लगी माँ सरस्वती की तस्वीर बहुत ही सुन्दर लग रही थी…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 22, 2014 at 1:00pm — 22 Comments
Added by ram shiromani pathak on November 22, 2014 at 11:00am — 8 Comments
"सर, एक काॅलेज की लड़की से बलात्कार हुआ है उसे हॉस्पिटल में लाया गया है।"-फोन पर किसी ने पत्रकार को सूचना दी।
"चलो यार, एक लड़की से बलात्कार करना है........"
"किसी टाइम तो अपनी जुबान को लगाम लगा लिया करो।"
"हाहाहाहाहा............"- ठहाकों से प्रेस रूम गूंज उठा और सभी पत्रकार उठकर हस्पताल की तरफ चल दिए।
मौलिक और अप्रकाशित
Added by विनोद खनगवाल on November 22, 2014 at 10:08am — 6 Comments
"रमलू की घरवाली कौन हैं ? "
"साब मैं हूँ । "
"हम तेरे पति की मौत पर सरकार की तरफ से मुआवजा देने आये हैं, पढना जानती हैं ? "
"जी नही साब, अनपढ़ हूँ । "
"और कौन -कौन है घर में ? "
"साब मैं, 4 छोरिया 1 बेटो है। रमलू तो मर गयो । ये सारो बोझ मारे ऊपर छोड़ गयो । घर की हालत तो थे देख ही रया हो, खाने के लाले है। साब इतनी सर्दी में भी पहनने को कुछ नही ..." सिसकने लगती है ।
"चल ठीक है, रो मत ये......"
" इक मिनट " बात पूरी भी नही हुई थी की सहायक के कान मेँ वो…
Added by किशन कुमार "आजाद" on November 22, 2014 at 8:30am — 8 Comments
Added by seemahari sharma on November 22, 2014 at 12:30am — 16 Comments
"चाची, तुम्हारी बहू को जापे में खिलाने के लिए घी का इंतजाम नहीं हो पाया है अगर थोड़ी सी मदद कर देती तो...."
"देखो बेटा, इस महीने थोड़ा हाथ तंग है।"- चाची ने बात पूरी होने से पहले ही बहाना बना दिया।
शाम को एक थाली को ढके चाची कहीं जा रही थी। उसने पूछा-"चाची, कहाँ जा रही हो?"
"बेटा, वो अपनी गली की कुतिया ने बच्चों को जन्म दिया है। जापे वाली के लिए देसी घी का हलवा बहुत फायदेमंद होता है इसलिए उसके लिए ले जा रही हूँ। बड़ा पुण्य मिलेगा।"
मौलिक और अप्रकाशित
Added by विनोद खनगवाल on November 21, 2014 at 2:37pm — 10 Comments
२१२ २११ २२१ १२२ २२
चांदनी रात में बरसात अगर हो जाये
मेरे ख्वाबों कि कोई बात अगर हो जाये
यार मेरे तू ज़माने से सदा ही बचना
इक हसीं गुल से मुलाकात अगर हो जाये
काश! सहरा हो नजर जब भी बने दिल दुल्हा
यूं भी अरमानो कि बारात अगर हो जाये
आये हर सिम्त से बस यार महक जूही की
काश धरती पे ये हालात अगर हो जाये
तन ये साँसों से तपे हौले से शब् भर मेरा
काश ऐसी भी कभी रात अगर हो…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on November 21, 2014 at 12:02pm — 18 Comments
"क्या बात, आज क्लास अटेंड नहीं कर रही हो?"
"नहीं यार, एक नया मुर्गा फसा है आज तो बस रेस्टोरेंट और थियेटर।"
मौलिक और अप्रकाशित
Added by विनोद खनगवाल on November 20, 2014 at 6:20pm — 13 Comments
मेरे पास,
थोडे से बीज हैं
जिन्हे मै छींट आता हूं,
कई कई जगहों पे
जैसे,
इन पत्थरों पे,
जहां जानता हूं
कोई बीज न अंकुआयेगा
फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज
इस उम्मीद से, शायद
इन पत्थरों की दरारों से
नमी और मिटटी लेकर
कभी तो कोई बीज अंकुआएगा
और बनजायेगा बटबृक्ष
इन पत्थरों के बीच
कुछ बीज छींट आया हूं
उस धरती पे,
जहां काई किसान हल नही चलाता
और अंकुआए पौधों को
बिजूका गाड़ कर
परिंदो से…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 20, 2014 at 3:00pm — 14 Comments
22 22 22 22 2
टूटने लगे हैं घर शब्दों से
अब तो लगता है डर शब्दों से
दैर हरम इक हो जाते लेकिन
पड़े दिलों पे पत्थर शब्दों से
हैं मेरे हमराह ज़रा देखो
ग़ालिब ओ मीर ,ज़फ़र शब्दों से
बनती बात बिगड़ने लगती है
ऐसे उठे बवण्डर शब्दों से
फूल अमन के खिलते कैसे अब
दिल आज हुए बन्जर शब्दों से
मेरी हस्ती गुमनाम -रहे पर
छाऊँ सबके मन पर शब्दों से
गुमनाम पिथौरागढ़ी
मौलिक व…
Added by gumnaam pithoragarhi on November 19, 2014 at 8:00pm — 9 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on November 19, 2014 at 5:46pm — 26 Comments
"सुनो माँ, रवि का फोन आया था। कल मुझे लेने आ रहा है और इस बार कुछ ढंग के कपड़े ला देना। वहाँ मेरी बहुत इंसेल्ट होती है।"
'पिछली बार जिससे पैसे उधार लिए थे वो कई बार वापस माँगने आ चुकी थी। अब किससे उधार माँगेगी?'- सोचकर माँ चिंता में डूब गई।
मौलिक और अप्रकाशित
Added by विनोद खनगवाल on November 19, 2014 at 4:10pm — 10 Comments
मुहब्बत का तराना तो बहुत गाया हुआ है
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1222 1222 1222 122
न आये होश अब यारों नशा छाया हुआ है
सँभल ऐ बज़्म दिल अब वज़्द में आया हुआ है
ज़रा राहत की कुछ सांसें तो लेलूँ मैं ,कि सदियों
बबूलों को मनाया हूँ तो अब साया हुआ है
हथौड़ा एक तुम भी मार दो लोहा गरम पर
यहाँ मज़हब को ले के खून गरमाया हुआ है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 19, 2014 at 10:10am — 18 Comments
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